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महत्वपूर्ण लेख

ओ३म् साम्प्रदायिक नही है

खुशहाल चन्द्र आर्य
यह तो पूरा विश्व मानता है कि वेद संसार के सबसे प्राचीन ग्रंथ हं। ईश्वर ने जब सृष्टि की रचना की तभी चारों वेद जिनके नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद हं जो क्रमश: ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान के ग्रंथ हैं और चार ऋषियों जिनके नाम अग्नि, वायु, आदित्य व अंगीरा थे, क्रमश: उनके मुखों से चारों वेद उच्चरित करवाए। इसीलिए वेद ईश्वरीय ज्ञान कहलाता है। ईश्वर ने यह सारी सृष्टि मनुष्य के लिए बनाई है, कारण मनुष्य उसकी सर्वश्रेष्ठ सर्वोपरि व अंतिम कृति है। इसलिए मनुष्य को अन्य योनियों की अपेक्षा बुद्घि विशेष दी है। अन्य योनियां जैसे पशु-पक्षी, कीट पतंग केवल भोग योनि हैं। इनको केवल पूर्व जन्म के कर्मों को भोगने के लिए ही जन्म मिलता है। उनके लिए स्वाभाविक कर्मों का उन्हें कोई फल नही मिलता। मनुष्य कर्म और भोग दोनों योनि है परंतु यह कर्म करने में स्वतंत्र और फल भोगने में परतंत्र है इसीलिए इसको नैमित्तिक किये कर्मों का फल मिलता है और इसी योनि में जीव मोक्ष को प्राप्त कर सकता है जो जीव का अंतिम लक्ष्य है।
यहां यह लिखना बहुत आवश्यक है कि जैसे ईश्वर ने मनुष्य को आंखों से देखने के लिए सूर्य, सुनने के लिए आकाश, नाक से सूंघने के लिए पृथ्वी, जीभ से चखने के लिए जल और त्वचा से स्पर्श के लिए वायु बनाई है उसी भांति बुद्घि के विकास के लिए वेद ज्ञान दिया है। इस वेद ज्ञान द्वारा ईश्वर ने मनुष्य मात्र को यह शिक्षा व उपदेश दिया है कि तुमको अपने संपूर्ण जीवन को कैसे व्यतीत करना है? यानि तुमको क्या कार्य करने हैं और क्या नही करने हैं जिससे तुम अपने संपूर्ण जीवन में स्वयं सुखी रह सको और दूसरों को भी सुखी बना सको। साथ ही तुम्हारा अंतिम लक्ष्य जो मुक्ति को प्राप्त करना है वह कैसे प्राप्त कर सकते हो, यह बताया है। और वेदों में ही ईश्वर ने मनुष्य मात्र को यह भी आदेश दिया है कि ओउम क्रतो स्मर-हे जीव तू ओउम को स्मरण कर। ईश्वर ने यह आदेश कोई अपनी स्तुति व प्रशंसा के लिए नही बल्कि मनुष्यों की भलाई के लिए दिया। इससे मनुष्य के मन में आत्म संतुष्टि के साथ साथ आत्मबल भी बढ़ता है और उसे कृतज्ञता भाव की पूर्ति की अनुभूति होती है जिससे उसके जीवन में नवशक्ति का संचार होता है। उस समय वेद ज्ञान यानि वैदिक धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई धर्म, मत पंथ व संप्रदाय नही थे। इसलिए वेद के आदेशानुसार हर स्त्री पुरूष को ओउम का जाप करना चाहिए। यह नाम पूर्ण वैज्ञानिक है। इसके नाम की ध्वनि नाभि से उठती है और कंठ तक आती है, यह नाम सबसे लंबे स्वर में लिया जा सकता है। इसके नाम से पूरे शरीर में कंपन का अनुभव होता है जिससे हमारे शरीर की सभी नस नाड़ियां खुल जाती हैं। ओउम के नाम को जपने से जो आनंद आता है यह आनंद अन्य नामों में नही आता। इसलिए ओउम का जाप करना ही उपयुक्त है इसको किसी एक धर्म से जोड़कर इसे साम्प्रदायिक नही बनाना चाहिए।
लाखों नही करोड़ों वर्षों तक इस पूरी धरती पर केवल एक ही जात आर्य श्रेष्ठ थी और उसका उपास्य देव केवल ओउम ही था। वे ओउम की ही सन्ध्या, हवन व अष्टग योग द्वारा उपासना करते हुए अपने मन, बुद्घि, चित्त को एकाग्र करके समाधिस्थ होकर ईश्वर के सान्निध्य में बैठकर अपार आनंद की अनुभूति करते थे। जिस प्रकार आंख का गुण रूप, नाक का गुण गंध, कान का गुण शब्द, जीभ का गुण स्वाद, त्वचा का गुण स्पर्श है, उसी प्रकार ईश्वर का गुण आनंद है। इसी की प्राप्ति के लिए मनुष्य ओउम की उपासना करता है। इसीलिए वेदों के अधिकतर मंत्रों के पहले ओउम का प्रयोग किया गया हे जिससे ओउम का पठन पाठन बना रहे। दुख इस बात का है कि हमने वेदों में आए अन्य ग्रह उपग्रह पदार्थ व संबंधों को उसी रूप में मानते हैं जैसा वेदों में विर्णत है। जैसे :-
ओउम स्वास्ति पंथामनु चरेम सूर्या मसाविव
इसका अर्थ है-हम सूर्य, चंद्रमा के समान निरंतर कल्याणकारी मार्ग का अनुसरण करें।
इसमें सूर्य और चंद्रमा का वर्णन जैसा वेदों में है उसे आज भी उसी रूप में मानते हैं नाम चाहे किसी ने सूर्य का सन (स्हृ) और चंद्रमा का मून (रूह्रह्रहृ) रख दिया हो। यदि हम उनसे पूछे तो वे इन्हीं सूर्य और चंद्रमा की ओर ही संकेत करेंगे। इसी प्रकार मा भ्राता भ्रंतर क्षिन्मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यञ्च: सव्रता: भूत्या वाचं वदत भद्रया।।
अर्थ:-भाई भाई के साथ, बहिन बहिन के साथ तथा भाई बहिन परस्पर द्वेष न करें। आपस में सदा ही सुखदायक कल्याणकारी वाणी बोलें।
जैसे वेदों में आए सूर्य चंद्रमा भाई बहिन किसी एक धर्म, पंथ, संप्रदाय के नही है यानि सारे मानव मात्र के लिए वही सूर्य चंद्रमा व भाई बहिन है तो फिर ओउम सबके लिए क्यों नही? अर्थात ओउम भी मानव जाति के लिए वही है जो वेदों में वर्णित है। अब किसी ने उसका नाम ईश्वर, अल्लाह, खुदा या गाड रख लिया हो इससे ओउम को मानने में किसी को कोई आपत्ति नही होनी चाहिए।
सृष्टिï के आरंभ से लेकर महाभारत काल तक समस्त पृथ्वी पर एक ही जाति आर्य एक ही धर्म वैदिक और उनका एक ही उपास्य देव ओउम था।
महाभारत के भयंकर युद्घ में विश्व के सभी वैदिक विद्वान, चिंतक, योद्घा व प्रबुद्घ व्यक्तियों के समाप्त हो जाने से विश्व में वैदिक धर्म का प्राय: पतन हो गया और स्वार्थी, अज्ञानी, अविद्वान ब्राह्मïणों में परस्पर अलग अलग मत, पंथ व संप्रदाय स्थापित कर लिए, जिससे विश्व में अनेकों मत मतांतर प्रचलित हो गये और उन्होंने अपने अपने उपास्य देव भी अलग अलग बना लिए। ईश्वर, राम, कृष्ण, शिव, अल्लाह, गाड आदि यह सब उसी उपास्य देव ओउम के ही भिन्न भिन्न नाम हैं जो अज्ञान अविद्या, व्यक्तिगत आस्था व परस्पर की फूट के कारण रखे हुए हैं। यह स्वाभाविक है कि अलग अलग मत और उपास्य देव होने से वे अपने ही मत को सबसे अच्छा बतलाकर आपस में लड़ने लगे और जो वैदिक काल में सारी पृथ्वी को एक कुटुम्ब समझकर सब प्रेमपूर्वक रहते थे और सारा विश्व एक स्वर्ग धाम था, उसे परस्पर विरोध ने न र्क बना दिया।
ईश्वर की असीम कृपा से उन्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानंद का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने अपने कठिन परिश्रम, तप व त्याग के बल पर वेदों का पुन: प्रकाश किया, और विश्व को वैदिक धर्म की ओर लाने का अत्याधिक प्रयत्न किया और, उन्हें बहुत सफलता भी मिली। महर्षि ने यह विचार करके कि उनकी मृत्यु के पश्चात भी वैदिक धर्म का प्रचार होता रहे, इस उद्देश्य से सन 1875 में आर्य समाज जो एक क्रांतिकारी, परोपकारी व देशहितैषी संस्था है, उसकी स्थापना मुंबई में की। उसी आर्य समाज रूपी माता की कोख से अनेकों वैदिक विद्वानों, देशभक्त, बलिदानी, क्रांतिकारी, महापुरूष उत्पन्न हुए जिन्होंने राष्टï्र की स्वतंत्रता के लिए बड़ा सहयोग किया और विश्व को धार्मिक धर्म की ओर लाने का भरसक प्रयत्न किया।
उसी श्रंखला में आज बाबा रामदेव जी है। उन्होंने सारे ऋषि मुनियों की जीवन शैली योग, आसन व प्राणायाम, जिसके बल पर मनुष्य कम से कम सौ वर्षों तक निरोग रहकर अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए जीवित रह सकता है, जिस जीवन शैली को हम भूल गये थे तथा पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगे जा रहे थे और अपने प्राचीन गौरव व स्वाभिमान को खो बैठे थे, उसे पुन: स्मरण कराया। बाबा रामदेव गुरूकुलों द्वारा शिक्षित है। उनको वेद शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान है ही तथा साथ में योग, आसन व प्राणायाम पर भी पूरा अधिकार है। उन्होंने योग, आसन व प्राणायाम का वैदिक शिक्षाओं के साथ साथ प्रदर्शन करना आरंभ कर दिया, इनके गुणों और लाभों को विश्व पटल पर प्रदर्शित किया जिससे समस्त विश्व इस ओर आकर्षित हुआ और आज इसकी ओर दौड़ते हुए आता दिखाई दे रहा है। बाबा रामदेव उसी परम पिता परमात्मा का मुख्य व निजी नाम ओउम को ही प्राणायाम करते समय श्वास, प्रश्वासों में जपने की कहते हैं जिससे मन एकाग्र हो जाने से प्राणायाम में लाभ अधिक पहुंचता है।

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