भारतवर्ष की सनातन सांस्कृतिक परंपरा में ‘शिक्षा’ स्वयं में बहुअर्थगर्भित शब्द है

डॉ. कृष्णगोपाल मिश्रा

हमें समझना होगा कि साक्षरता एवं पुस्तकीय ज्ञान शिक्षा का एक अंग भर हैं, शिक्षा का पूरा संसार नहीं। शिक्षा के इस अंग का उपयोग नैतिक एवं मानवीय मूल्यों के संरक्षण-संवर्धन के लिए किया जाना चाहिए। साक्षरता जनित पुस्तकीय ज्ञान विज्ञान की तरह ही दुधारी तलवार है।

भारतवर्ष की सनातन सांस्कृतिक परंपरा में ‘शिक्षा’ स्वयं में बहुअर्थगर्भित शब्द है। यहाँ शिक्षा का अभिप्राय साक्षरता अथवा शैक्षणिक प्रमाणपत्रों की उपलब्धता मात्र नहीं है। शिक्षा यहां मानव-मन को शुभसंस्कारों से सज्ज करने का माध्यम है; मनुष्य को मनुष्य बनाने की कला है; उसमें सामाजिक दायित्वबोध का जागरण है और उदात्त मानव-मूल्यों की प्राप्ति का कल्याणकारी संदेश है, जिसमें अक्षरज्ञान, संस्था-पदत्त प्रमाणपत्र आदि औपचारिकताओं का स्थान गौण है और मनुष्य का चारित्रिक उत्थान प्रधान है।

व्यापक यूरोपीय प्रभाव के कारण जब से भारतीय-समाज ने शिक्षा के उपर्युक्त स्वरूप और उद्देश्य को विस्मृत कर संस्थागत प्रमाणपत्रीय औपचारिक शैक्षणिक स्वरूप को ही शिक्षा के अर्थ में सीमित-संकुचित कर दिया है तब से समाज शिक्षा के वास्तविक प्रकाश से वंचित होकर अशिक्षा एवं अज्ञान के घोर अंधकार में भटकता हुआ अपराध के पतन-गर्त में गिर रहा है; गिरता ही जा रहा है। तथाकथित अंग्रेज शिक्षाविद मैकाले के समय से लेकर अब तक कितनी ही बार शिक्षा को लेकर विचार हुआ है; समितियों और आयोगों ने नई-नई नीतियां अनुशंसित की हैं; व्यवस्था के कर्णधारों ने उन्हें क्रियान्वित करने के लिए जनता की गाढ़ी कमाई को जी भरकर खर्च किया है किंतु परिणाम क्या है ? सामाजिक अशांति, संघर्ष और अपराध की बढ़ती भयावह स्थितियाँ !

विगत सौ वर्षों में देश के कोने-कोने में स्कूल-कॉलेज खुल गए; विश्वविद्यालयों और तरह-तरह के शैक्षणिक संस्थानों की बाढ़ आ गई; युवाओं का बड़ा वर्ग साक्षर हुआ, बड़ी-बड़ी डिग्रियों से अलंकृत हुआ किन्तु समाज में सुख-शांति और समृद्धि नहीं आई। उपर्युक्त कथित शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ हमारे समाज में अनुशासनहीनता, सामाजिक-सांस्कृतिक मानमूल्यों की अवमानना, पारिवारिक-कलह, सामाजिक संघर्ष, रोजगार के संकट, आर्थिक-भ्रष्टाचार, लूट-हत्या-बलात्कार एवं हिंसक अपराधों के प्रकरण निरंतर बढ़े हैं, मनुष्य का मन अशांत हुआ है और आत्महत्याओं का सिलसिला बढ़ा है। इस तथाकथित शिक्षा ने मनुष्य की मनुष्यता ही छीन ली है- कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के विकट संकट काल में बड़े-बड़े नामी-गिरामी चिकित्सा संस्थानों के उच्चशिक्षित डिग्री धारी डॉक्टर-व्यवस्थापक रोगियों के कपड़े उतार रहे हैं; उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ वकील न्यायालय की अवमानना कर रहे हैं, नक्सलवाद और आतंकवाद के बेलगाम घोड़ों की लगामें बड़े-बड़े प्रोफेसरों के हाथों में दिखाई दे रही हैं, भारत में रहकर भारत से पोषण पाकर ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे देशद्रोही कारनामों को अंजाम देने वाले और उनके समर्थन में खड़े होने वाले सब उच्च शिक्षित हैं। किन्तु मनुष्यता के प्रकाश और सामाजिक दायित्वबोध से कोसों दूर हैं। ऐसी शिक्षा की सार्थकता स्वयं में बड़ा प्रश्नचिन्ह है।

आज कंप्यूटर और तकनीकी शिक्षा में पारंगत युवा साइबर क्राइम की दुनिया में रोज नए काले कारनामे कर रहे हैं। कब किसके खाते से कितनी रकम चुरा ली जाएगी, कुछ पता नहीं। प्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन व्यक्ति का ट्वीटर जब हैक किया जा सकता है तब साधारण व्यक्ति की तो बिसात ही क्या है ? तात्पर्य यह है कि शिक्षा के मूल्यनिष्ठ सांस्कृतिक धरातल से विचलित होकर औपचारिक संस्थागत साक्षरतापरक पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित होने की भारी कीमत समाज पिछली शताब्दी से अब तक निरंतर चुकाता आ रहा है और जब तक शिक्षा अपने इस वर्तमान छद्म आवरण को तोड़कर मनुष्य को मनुष्य बनाने के प्रति संकल्पित नहीं होगी तब तक शिक्षा के माध्यम से समाज के कल्याण का स्वप्न अपूर्ण ही रहेगा।

हमें समझना होगा कि साक्षरता एवं पुस्तकीय ज्ञान शिक्षा का एक अंग भर हैं, शिक्षा का पूरा संसार नहीं। शिक्षा के इस अंग का उपयोग नैतिक एवं मानवीय मूल्यों के संरक्षण-संवर्धन के लिए किया जाना चाहिए। साक्षरता जनित पुस्तकीय ज्ञान विज्ञान की तरह ही दुधारी तलवार है जो किसी सुसंस्कारित विवेकशील मनुष्य के हाथ में आई तो मानवता का संकट हरेगी और अगर किसी दुराचारी व्यक्ति के हाथ में पड़ी तो समाज के लिए संकट का कारण बनेगी। सेवा, चिकित्सा, न्याय, प्रशासन आदि किसी भी क्षेत्र में हमें पहले अच्छा इंसान चाहिए बाद में अच्छा डॉक्टर, वकील, प्रशासक आदि। दुर्भाग्य है कि हमारी शिक्षा नीतियां, हमारे परिवार और समाज अच्छा मनुष्य बनाने के प्रति उदासीन हैं और अधिकतम धन-अर्जन में सक्षम व्यक्तित्व विकसित करने के प्रति प्रयत्नशील हैं। हमारी आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था संवेदनाहीन लोभी रोबोट अधिक दे रही है और संवेदना, समृद्ध सेवाभावी मनुष्य कम दे पा रही है। कोई भी शिक्षा नीति तब तक समाज के लिए उपयोगी नहीं बन सकती जब तक उसमें संवेदनशील, उदार और विवेकवान मनुष्य के सृजन की सामर्थ्य ना हो। अतः शिक्षा नीति के निर्धारण में इस लक्ष्य की प्राप्ति अभीष्ट है। शिक्षा एक गंभीर सामाजिक दायित्व-बोध है। शिक्षा स्वयं की क्षमता का संवर्धन और समाज के हित में उस क्षमता का निस्वार्थ विसर्जन है। इस दृष्टि से कोरोना वायरस के संकट काल में चिकित्सक, नर्स, आरक्षक, समाजसेवी, व्यवसायी आदि जिन करोड़ों लोगों ने अपनी क्षमताओं से पीड़ित मानवता की सेवा की है, जागरूक नागरिक के रूप में इस महामारी के नियंत्रण में सहयोग दिया है उन्हीं की शिक्षा सार्थक है, शेष शिक्षितों की शिक्षा तो शिक्षा का भ्रम मात्र है।

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