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मुद्दा

अदालत से ऊपर

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-राजेश बैरागी-
इरोम शर्मिला शायद अभी तक लोगों के जेहन में जिंदा हों। हालांकि वह जीवित है और अपने विदेशी पति के साथ कहीं गुमनामी का जीवन जी रही है। उसने पूर्वोत्तर में सुरक्षाबलों को हासिल विशेष अधिकार (अफस्पा) के विरुद्ध रिकॉर्ड 16 वर्ष अनशन किया। उसके इस कृत्य पर एक बार अदालत ने सजा सुनाई और साथ ही माफी मांगने का विकल्प भी दिया। इरोम ने अदालत की अपील को ठुकरा दिया। मैंने उस मौके पर अदालत के भीतर इरोम को मुस्कुराते हुए एक तस्वीर में देखा। प्रशांत भूषण भी अदालत की माफी मांगने की अपील को नकार रहे हैं।
उनका कहना है कि उन्होंने अदालत की अवमानना की ही नहीं है बल्कि जो कुछ उन्होंने अदालत के लिए कहा वह उनका नैतिक कर्तव्य था। वो कभी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी एक इशारे से अदालत से माफी मांगने से मना कर जेल पहुंचवा चुके हैं। वकीलों द्वारा अदालत में और अदालत से बहस करना नयी बात नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय शायद अब अपनी अपील पर शर्मिंदा हो। शर्मिंदगी इसलिए नहीं कि एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने उसकी अपील पर सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। शर्मिंदगी यह हो सकती है कि अदालत प्रशांत भूषण जैसे घाघ अधिवक्ता को झुका नहीं सकी। इसके विपरीत यदि अदालत उन्हें पहले ही दिन दंडित कर देती तो? न्याय और न्यायालयों के इतिहास में काले दिनों की संख्या बेहद कम है। प्रशांत भूषण और उन जैसे वकीलों को अदालत की हैसियत का बखूबी अंदाजा है। अदालतों की सर्वोच्चता उनके अधिकारों में निहित है। परंतु कर्तव्य के क्षेत्र में अदालतें उतनी ही बुरी हैं जितने दूसरे अधिकार प्रतिष्ठान। तो फिर भूषणों, सिब्बलों,जेठमलानियों और सिंघवियों को कौन अदालत दंडित कर सकती है।जमूरे और मदारी के खेल में आनंद बहुत आता है परंतु ठगी का शिकार हमेशा जनता ही होती है।(नेक दृष्टि हिंदी साप्ताहिक नौएडा)

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