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कविता

परमब्रह्म में ही है वास्तविक गुरु


*गुरुर्ब्रह्मा: गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वरः।*
*गुरुर्साक्षात् परमब्रह्म: तस्मै श्री गुरुवे नमः।।*
प्यारे भाइयो बहिनों आज हम आपको एक ऐसे विषय से अवगत कराने जा रहे हैं जिसके बारे में बहुत कम लोग इस श्लोक का अर्थ सटीक जानते हैं।
आपने देखा होगा शादी विवाह आदि के निमंत्रण पत्र पर भी यह श्लोक सबसे ऊपर लिखा रहता है।
ऐसा क्यों??

तो उत्तर होगा- प्रथम ईश्वर की स्तुति वंदना के लिए ही।
कोई देहधारी गुरु, आचार्य, शिक्षक के लिये इस स्तुति को शुभ कार्य के प्रारम्भ में क्यों लिखेगा, ऐसा हम सबको विदित हो।
इस श्लोक में तो उस परमपिता परमेश्वर के बारे में कहा है कि वह परमब्रह्म कैसा है? जिसकी प्रथम वंदना हम सब करते हैं हर शुभ कार्य में और नित्य भी करनी ही चाहिए।
तो कहा वह परमब्रह्म प्रथम *गुरुओं का गुरु* है। स एषः पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।।-योगदर्शन।
सभी गुरु उसी से ही वेद द्वारा भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करते हैं।
और वही गुरु जो परमब्रह्म परमेश्वर है उसका एक नाम विष्णु भी है। जो समस्त चराचर जगत में व्यापक हो पूरे ब्रह्मांड की रचना कर
पालना कर रहा है।
और वही गुरु परमब्रह्म परमपिता परमेश्वर समस्त देवों का देव महेश भी है जो सबसे महान है सबका स्वामी है, अध्यक्ष है, सब समर्थों का भी समर्थ ईश्वर है।
और वही एक गुरु ही जो कि काल से भी नहीं बिंधा जाता अर्थात् समस्त कालों में एकरस बना रहता है साक्षात् परमब्रह्म है, ऐसे उस गुरुओं के गुरु महान गुरु को हम नमस्कार करते हैं।।
*काव्य*
प्रथम वंदना परमगुरू की,
तन मन रच बोध कराया है।
वही ब्रह्म- ब्रह्मा, विष्णु,
व्यापक हो जगत समाया है।
उसी देव महादेव ब्रह्म को,
महेश महान कह ध्यावें सब।
वही ब्रह्म गुरुओं का गुरु है,
शीश झुका साक्षात हो नभ- (हृदयाकाश)।।
-आचार्या विमलेश बंसल आर्या
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