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भारतीय संस्कृति

अंतिम संस्कार के बाद मृत्यु भोज का औचित्य

देह का अंत हो जाना ही देहांत है। और देह का अंत होना हम जानते हैं कि प्रकृति के जो तत्व थे , वह सब अपने – अपने मूल तत्वों में मिल जाते हैं। अविनाशी आत्मा शरीर से निकल जाती है।
यजुर्वेद के 39 वें अध्याय में प्रथम मंत्र में अंत्येष्टि कर्म को नरमेध ,पुरुष मेध कर्म कहा गया है तथा संस्कार विधि में 16 वें अध्याय में महर्षि दयानंद ने नरयाग ,पुरुष याग़ भी वर्णित किया है। यह क्रिया शरीर को भस्म करने के विषय में है।
यह अंत्येष्टि संस्कार ही 16 वां संस्कार है।
इस अंतिम संस्कार के बाद तेरहवीं का कहीं कोई प्रावधान नहीं है। हम संसार में केवल दिखावे के लिए अथवा अपनी आत्म संतुष्टि के लिए अथवा समाज की मांग पर तेरहवीं का कार्यक्रम करते हैं एवम् मृत्यु भोज का आयोजन करते हैं। यह एक गलत परंपरा है। यह एक गलत रीति रिवाज है। जो मूर्ख व स्वार्थी (जो केवल अपने खाने पीने का तरीका ढूंढते हैं)लोगों द्वारा प्रारंभ किया गया था।

फिर यह 13 दिन का कार्यक्रम क्यों किया जाता है ? क्या यह बिल्कुल गलत है ?
जी हां , बिल्कुल गलत है। मानने के योग्य नहीं है।
क्योंकि कुछ मामलों में ऐसे प्रमाण मिले हैं कि जिन आत्माओं को शरीर को त्यागते ही स्वत: तुरंत अन्य शरीर धारण किया जाता है और कुछ ऐसे प्रमाण हैं कि सौ – सौ वर्ष भी अंतरिक्ष में आत्मा रमण करती है। इस प्रकार के दोनों प्रमाण है। यह सब अंतिम भावना और कर्मों के आधार पर जन्म और शरीर प्राप्त होते हैं। इस विषय में पूर्व में विस्तृत रूप से लिखा जा चुका है।
आज पुन:इस विषय को प्रसंगवश प्रस्तुत करना चाहेंगे कि अंतरिक्ष में तमोगुण वाले मनुष्य की आत्मा 13 दिन तक रहती है तथा हम यह भी जान चुके हैं कि तमोगुण वाली आत्मा सबसे निकृष्ट व्यक्ति की होती है, क्योंकि पहला सतोगुण दूसरा रजोगुण और तीसरा तमोगुण है।
ऐसे तमोगुणी व्यक्ति की आत्मा 13 दिन तक तमोगुण आत्माओं के साथ अंतरिक्ष में रमण करती है।
इसका साधारण सा अर्थ हुआ कि हमने दिवंगत आत्मा को अनावश्यक एवं विस्मयजनक रूप से तमोगुण आत्मा मान लिया। चाहे वह आत्मा सतोगुण वाली रही हो अथवा रजोगुण वाली रही हो। यह सतोगुण ,रजोगुण वाली आत्माओं के साथ हमारे द्वारा अनुचित कार्य और अन्याय ही किया गया है।
यजुर्वेद के 40 वें अध्याय के 15 वें मंत्र में निम्न प्रकार व्यवस्था दी है :–

वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम्‌।
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ॥

विद्वानों की इस मंत्र के विषय में मान्यता

अन्वयः-हे क्रतो! त्वं शरीरत्यागसमये (ओ३म्) स्मर, क्लिबे परमात्मनं स्वस्वरूपं च स्मर, कृतं स्मर। अत्रस्थो वायुरनिलमनिलोऽमृतं धरति। अथेदं शरीरं भस्मान्तं भवतीति विजानीत।।15।।

भाषार्थ-हे (क्रतो) कर्म करने वाले जीव! देहान्त के समय (ओ३म्) ओ३म्, यह जिसका निज नाम है उस ईश्वर को (स्मर) चारों तरफ देख, (क्लिबे) अपने सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए परमात्मा और अपने स्वरूप को (स्मर) याद कर, (कृतम्) और जो कुछ जीवन में किया है उसको (स्मर) स्मरण कर।

यहां विद्यमान (वायुः) धनंजयादि रूप वायु (अनिलम्) कारण रूप वायु को और अनिल (अमृतम्) नाशरहित कारण को धारण करता है।

(अथ) और (इदम्) यह (शरीरम्) चेष्टादि का आश्रय, विनाशी शरीर (भस्तान्तम्) अन्त में भस्म होने वाला होता है, ऐसा जानो।।40/15।।

भावार्थ-जैसे मृत्यु के समय चित्त की वृत्ति होती है, और शरीर से आत्मा का पृथक् भाव होता है, वैसी ही चित्त की वृत्ति तथा शरीर-आत्मा के सम्बन्ध को जीवनकाल में भी सब मनुष्य जानें।

इस शरीर की भस्मान्त-क्रिया (अन्त्येष्टि) करनी चाहिए, इस दहन-क्रिया के पश्चात् कोई भी संस्कार नहीं करना चाहिये।

जीवन काल में एक परमेश्वर की ही आज्ञा का पालन, उपासना तथा अपनी शक्ति की वृद्धि करनी चाहिए।

किया हुआ कर्म कभी निष्फल नहीं होता, ऐसा मानकर धर्म में रुचि और अधर्म में अप्रीति रखनी चाहिए।।40/15।।

भाष्यसार–देहान्त के समय क्या करें-कर्म करने वाला जीव देहान्त अर्थात् शरीरत्याग के समय में ‘ओ३म्’ नाम का स्मरण करे। अपने सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए परमात्मा को और अपने स्वरूप को स्मरण करे। जो कुछ जीवन में किया है उसको स्मरण करे।

इस शरीर में स्थित धनंजय आदि नामक वायु कारण रूप सूक्ष्म वायु के और सूक्ष्म वायु नाशरहित कारण (प्रकृति) के आश्रित है। शरीर से आत्मा का पृथग्भाव उक्त वायु के आश्रित है। शरीर से आत्मा के पृथग्-भाव अर्थात् मृत्यु के समय में यहां जैसी चित्तवृत्ति बतलाई है, वैसी ही चित्तवृत्ति अब जीवन-काल में भी रखें।

देहान्त के समय इस शरीर की भस्मान्त क्रिया (अन्त्येष्टि कर्म) करें। भस्मान्त क्रिया के उपरान्त इस शरीर का कोई संस्कार-कर्त्तव्य शेष नहीं रहता।

जीवन-काल में एक परमेश्वर की ही आज्ञा का पालन, उसकी उपासना और अपने सामर्थ्य की वृद्धि करें। किया हुआ कर्म विफल नहीं होता, ऐसा समझ कर धर्म में रुचि और अधर्म में अप्रीति रखें।।15।।

अन्यत्र व्याख्यात-‘‘भस्मान्तं शरीरम्” (यजुर्वेद 40/15) इस शरीर का संस्कार (भस्मान्तम्) अर्थात् भस्म करने पर्यन्त है (संस्कारविधि, अन्त्येष्टिकर्म)।।40/15।।

मनुष्य को चाहिए कि जैसी मृत्यु समय में चित् की वृत्ति होती है और शरीर से आत्मा का पृथक होना होता है वैसे ही इस समय भी जाने ।इस शरीर की जलाने पर्यंत क्रिया करें। जलाने पश्चात शरीर का कोई संस्कार न करें। वर्तमान समय में एक परमेश्वर ही की आज्ञा का पालन , उपासना और अपने सामर्थ्य को बढ़ाया करें। किया हुआ कर्म निष्फल नहीं होता। ऐसा मानकर धर्म में रुचि और अधर्म में अप्रीति किया करें।
स्पष्ट हुआ कि हम जो कुछ भी मृत्यु के बाद (अर्थात अंतिम संस्कार के पश्चात ) करते हैं , वह वेद विरुद्ध है । वेद ईश्वरीय वाणी है अर्थात ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध है। और वेद में स्पष्ट है कि परमेश्वर की आज्ञा का पालन, उपासना करें।
आयुर्वेद के 39 वें अध्याय के मंत्रों में अंत्येष्टि कर्म का विषय दिया हुआ है।
जिसमें मृतक शरीर के तोल की बराबर घी, प्रत्येक सेर पर एक रत्ती कस्तूरी, एक मासा केसर और चंदन आदि के साथ दाह करना चाहिए। इस प्रकार दाह करने से कर्म करने वालों को यज्ञ कर्म के फल की प्राप्ति होती है। मृतक शरीर को न भूमि में गाड़ें, न बन में छोड़ो न जल में डूबावें। ऐसा करने से मृतक के बिगड़े शरीर से दुर्गंध बढ़ने के कारण जगत में असंख्य रोगों की उत्पत्ति होती है इसलिए सर्वोत्तम संस्कार केवल दाह करना है।
इसी अध्याय के तीसरे मंत्र में लिखा है कि जो लोग सुगंधित व्रत आदि सामग्री से मरे शरीर को जलाते हैं वे पुण्य सेवी होते हैं।
चौथे मंत्र में आया है कि जो मनुष्य सुंदर विज्ञान ,उत्साह और सत्य वचनों से मरे शरीरों को विधिपूर्वक जलाते हैं वह पशु प्रजा धन-धान्य आदि को पुरुषार्थ से पाते हैं ।

आज विश्व में कोरोना वायरस की महामारी फैली हुई है। इस महामारी से लाखों लोगों की मृत्यु हो चुकी है। ऐसे अवसर पर भी कार्य पद्धति के अनुसार दाह संस्कार किया जाना सर्वोत्तम माना गया है । विश्व में हमारी प्राचीन काल से आ रही परंपरा को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है।
पांचवें मंत्र में बताया गया है कि यह जीव संसार को छोड़कर सब पृथ्वी आदि पदार्थों में भ्रमण करता हुआ जहां तहां प्रवेश करता और इधर उधर जाता हुआ कर्मानुसार ईश्वर की व्यवस्था से जन्म पाता है तब ही सुप्रसिद्ध होता है अर्थात जन्म कर्म के अनुसार ईश्वर की व्यवस्था पर निर्भर है।
छठवें मंत्र में वर्णित है कि जब यह जीव शरीर को छोड़ते हैं । तब सूर्य प्रकाश आदि पदार्थों को प्राप्त होकर कुछ काल भ्रमण कर अपने कर्मों के अनुकूल गर्भाशय को प्राप्त हो शरीर धारण कर उत्पन्न होते हैं तभी पुण्य पाप कर्म से सुख-दुख रूप फलों को भोगते हैं।
सातवें मंत्र में बताया गया है कि कौन मनुष्य दोनों
दोनों जन्मों में सुख पाते हैं। इसको स्पष्ट किया गया है कि जो मनुष्य शरीर के सब अंगों से धर्म आचरण ,विद्या ग्रहण ,सत्संग और जगदीश्वर की उपासना करते हैं वह वर्तमान और भविष्य जन्मों में सुखों को प्राप्त होते हैं।
लेकिन मनुष्य कैसे उग्र स्वभाव आदि को प्राप्त होते हैं ? इस विषय को नौवें मंत्र में बताया गया है , जो निम्न प्रकार है :-
हे मनुष्य जैसे देहधारी रुधिर आदि से तेजस्वी स्वभाव आदि को प्राप्त होते हैं , वैसे ही गर्भाशय में भी प्राप्त होते हैं।
दसवें मंत्र में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्य को भस्म होने तक शरीर का मंत्रों से दहन करना चाहिए जो निम्न प्रकार है :-
हे मनुष्य जब तक लोम से लेकर वीर्य पर्यंत उस मृत शरीर का भस्म न हो तब तक भी और ईंधन डाला करो।
11वे मंत्र में व्यवस्था दी है कि मनुष्य को जन्मांतर में सुख के लिए क्या करना चाहिए ?
मनुष्यों को चाहिए पुरुषार्थ सिद्धि के लिए सत्य वाणी बुद्धि और क्रिया का अनुष्ठान करें । जिससे देहांत और जन्मांतर मंगल हो।
12 वें मंत्र में स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य को किन साधनों से सुख प्राप्त करना चाहिए ?
मनुष्य को चाहिए कि प्राणायाम आदि साधनों से सब किल्विश का निवारण करके शुभम को स्वयं प्राप्त हो और दूसरों को प्राप्त करवाएं।
तेरहवें और अंतिम मंत्र में मनुष्य को क्या करना चाहिए ? पर प्रकाश डाला गया है।
जो मनुष्य न्याय व्यवस्था का पालन कर ,अल्प मृत्यु को निवारण कर, ईश्वर और विद्वानों का सेवन कर, ब्रह्म इत्यादि दोषों को छुड़ाकर सृष्टिविद्या को जान के अंत्येष्टि कर्म विधि करते हैं, वह सबके मंगल देने वाले होते हैं ।सब काल में इस प्रकार मृतक शरीर को जलाकर सब सुख की उन्नति करनी चाहिए।
यजुर्वेद के 40 वेंअध्याय के दूसरे मंत्र में निम्न प्रकार व्यवस्था दी है :–
मनुष्य आलस्य को छोड़कर सब देखने हरे न्यायाधीश परमात्मा और करने योग्य उसकी आज्ञा को मानकर शुभ कर्मों को करते हुए और अशुभ कर्मों को छोड़ते हुए ब्रह्मचर्य के सेवन से विद्या और अच्छी शिक्षा को पाकर उपस्थ इंद्रिय के रोकने से पराक्रम को बढ़ाकर अल्प मृत्यु को हटाए । युक्त आहार विहार से 100 वर्ष की आयु को प्राप्त होवे।जैसे-जैसे मनुष्य सुकर्म में चेष्टा करते हैं वैसे वैसे ही पाप कर्म से बुद्धि की निवृति होती है और विद्या, अवस्था और सुशील ता बढ़ती है। 39 वे अध्याय का अंतिम 13 मंत्र और 40 वें अध्याय का दूसरा मंत्र यदि एक साथ पढ़े हैं तो दोनों से स्पष्ट होता है कि अल्प मृत्यु अर्थात अल्पकाल में होने वाली मृत्यु को पराजित किया जा सकता है। जो ब्रह्मचर्य के सेवन से और उचित शिक्षा प्राप्त करके जननेंद्रिय के रोकने से पराक्रम को बढ़ाकर संभव है।
यम का अर्थ भी संदर्भ अनुकूल अलग अलग होता है। यम ऋतुओं, परमेश्वर, अग्नि ,वायु, विद्युत ,सूर्य को भी कहते हैं। जब किसी की मृत्यु हो जाए तो पुरुष को तो पुरुष और स्त्री हो तो स्त्रियां उसको स्नान कराएं। घी, चंदन, केसर आदि का प्रबंध करें।
तत्पश्चात मृतक को श्मशान में ले जावें। और अंत्येष्टि प्रकरण में दिए गए नियम के अनुसार चिता बनाकर मृतक को चिता में सिर उत्तर की ओर व पैर दक्षिण की ओर करते हुए लिटाएं और अग्नि प्रवेश सिर की तरफ से कराएं।
ऋग्वेद के 17 मंत्र यजुर्वेद के 63 मंत्र अथर्ववेद के 10 मंत्र तेत्ती० प्रपा ० के 26 मंत्रों से आहुति देनी चाहिए।
उसके बाद घर पहुंच कर लेपन आदि करके स्नान करें। स्वस्तिवाचन व शांतिकरण , ईश्वर उपासना करके यज्ञ पूर्ण करें।
अंत्येष्टि संस्कार के 3 दिन पश्चात शमशान में जाकर चिता से अस्थि एकत्रीकरण करके पृथक उठाकर कहीं रख दें। बस इसके आगे कोई कार्यवाही नहीं करनी है।
क्योंकि शरीर भस्म हो चुका दाहकर्म और अस्थि संचयन से अतिरिक्त मृतक के लिए दूसरा कोई भी कर्म कर्तव्य नहीं है।
लेकिन महर्षि दयानंद ने यहां पर एक व्यवस्था और दी है जो निम्न प्रकार है :-
“मृतक व्यक्ति उसको अपने जीवन काल में भी कर सकता है या उसकी मृत्यु के उपरांत उसके परिजन कर सकते हैं। वेद विद्या वेदों प्रक्रम का प्रचार अनाथ पालन वे दो प्रमुख देश की प्रवृत्ति के लिए चाहे जितना धन प्रदान करें , बहुत अच्छी बात है।”
स्पष्ट हुआ कि तेरहवीं का कार्यक्रम वेद विद्या और वेदों में वर्णित अथवा व्यवस्थित कर्म के प्रचार के लिए या अनाथों को दान देने के लिए ,तथा वेद के धर्म उपदेश कराने के लिए आयोजित किया जा सकता है और उसमें उचित दान दिया जा सकता है, इस बात की छूट है। परंतु यहां शर्त यह भी है कि मृतक या उसके संबंधी धन संपन्न होने चाहिए।
अर्थात गरीब या निर्धन व्यक्ति को यह आयोजन भी नहीं करना चाहिए और जब निर्धन व्यक्ति धनी व्यक्ति की होड़ करते हुए ऐसा आयोजन करता है तो वहीं से गलत परंपरा पड़ने की संभावना होती है। इसीलिए मृत्यु भोज की मनाही है।
मृत्यु भोज अब एक कुप्रथा समाज में बन गई है। जिसका निराकरण किया जाना सभी लोगों का पावन उत्तरदायित्व है।

देवेन्द्रसिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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