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गौ और गोवंश

देश की सुख समृद्धि एवं सुरक्षा के लिए गोवध पर पूर्ण प्रतिबंध अनिवार्य है

ओ३म्

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मनुष्य तथा पशु-पक्षी आदि सभी प्राणियों की उत्पत्ति अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल भोगने के लिये हुई है। मनुष्य योनि उभय योनि है जिसमें मनुष्य पूर्वजन्मों के कर्मों का फल भोगता है तथा नये कर्मों को भी करता है। यह नये कर्म मनुष्य के बन्धन व मोक्ष का कारण होते हैं। अपने पूर्वजन्मों के कारण ही मनुष्य, पशु, पक्षी आदि बने हैं। यदि संसार में गो आदि हितकारी पशु न हों तो मनुष्य का जीवन सुखद नहीं हो सकता। गाय से हमें गोदुग्ध मिलता है। गाय के दुग्ध से ही हम अनेक प्रकार के पदार्थ घृत, मक्खन, दधि, मट्ठे व पनीर आदि को प्राप्त करते हैं जिससे हमारा शरीर पुष्ट, बलवान व दीर्घायु होने के साथ हमारी जिह्वा भी सुखद स्वाद का अनुभव करती है। गाय से हमें बछिया व बैल भी प्राप्त होते हैं जिससे हम पीढ़ी दर पीढ़ी गोदुग्ध आदि पदार्थों सहित खेती व भार ढोने के लिये बैल आदि प्राप्त करते रहते हैं। इस प्रकार से अन्य सभी पालतू पशु मनुष्य के लिए हितकर व लाभकारी सिद्ध होते हैं। गाय के दुग्ध से पोषण होने सहित यह हमारी अन्न की आवश्यकता को कम करता है। गाय के दुग्ध में अनेक पौष्टिक पदार्थ होते हैं जिनसे हमारे शरीर में आरोग्य, बल, बुद्धि सहित सात्विक विचारों आदि की वृद्धि होती है। गाय का मां के दुग्ध के समान सम्पूर्ण आहार होता है। हमारे समस्त ऋषि, मुनि तथा विद्वानों सहित मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, ऋषि दयानन्द, चाणक्य एवं वीर सावरकर आदि गोदुग्ध का ही सेवन करते थे। इसी से उन्होंने बुद्धि सम्बन्धी महान कार्य किये हैं। दूसरी ओर मांसभक्षी व मांसाहारियों को हम रूग्ण, बलहीन तथा अल्पायु वाला पाते हैं। अधिकांश मांसाहारी मनुष्य व पशु-पक्षियों का जीवन शाकाहारी पशु-पक्षियों से कम आयु का होता है। घोड़ा मनुष्यों के अनेक प्रयोजनों को सिद्ध करता है। इसी प्रकार हाथी भी बल में अधिक होता है और उसका उपयोग लेकर उन कार्यों को किया जा सकता है जो मनुष्य नहीं कर सकते। यह दोनों पशु शाकाहारी हैं। इससे शाकाहार की महत्ता का ज्ञान होता है। अतः मनुष्य के जीवन में सभी पशु व पक्षियों का महत्व है। परमात्मा ने इन्हें मनुष्यों की सहायता व रक्षा के लिये बनाया है।

मनुष्य का शरीर भी शाकाहारी पशुओं से मिलता जुलता है। विज्ञान की दृष्टि से भी मनुष्य का शाकाहारी होना सिद्ध होता है। मांसाहारी पशुओं का पाचन तन्त्र शाकाहारी पशुओं के पाचन तन्त्र से भिन्न होता है। मनुष्यों के दांत व पाचन तन्त्र परमात्मा ने शाकाहारी पशुओं के समान ही बनाये हैं। अतः मनुष्य को अपनी बुद्धि का प्रयोग कर पशुओं से वही उपयोग लेने चाहिये जिसके लिये परमात्मा ने इन्हें बनाया है। इन्हें मनुष्यों की तरह से जीने का अधिकार है। मनुष्य को कोई अधिकार नहीं कि वह अकारण किसी पशु की हत्या मांसाहार व अन्य किसी कारण से करें। ऐसा करना मनुष्य को मनुष्य नहीं अपितु एक हिंसक एवं पशुओं की तुलना में अधिक अमानवीय, संवेदनहीन तथा असहिष्णु बनाता है। वैदिक राज्यव्यवस्था न होने से पशु वध करने वाले तथा मांसाहारी प्रवृत्ति के दण्डनीय अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को दण्ड नहीं मिलता जिससे यह प्रवृत्ति समाज में बढ़ती जा रही है। ईश्वर की व्यवस्था में जो मनुष्य जैसा कर्म करता है उसे उसका फल अवश्यमेव मिलता है। मनुष्य जन्म में हम पूर्वजन्म के कर्मों का फल प्राप्त करते हैं। जिन पशुओं को हम देखते हैं, उन्होंने पूर्वजन्म में जो कर्म किये थे उसी के अनुसार उन्हें पशु योनि में जन्म मिला है और वह सारा जीवन पशु रहते हुए ही सुख व दुःख का भोग करते हैं। इसी प्रकार से मनुष्य भी अपने पूर्वजन्म के अनुसार ही वर्तमान मनुष्य जीवन में पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार ही सुख व दुःख का भोग करता है। इस जन्म के संचित कर्मों का फल उसे इस जन्म में होने वाली मृत्यु के बाद पुनर्जन्म प्राप्त होने पर मिलता है जिसमें वह इस जन्म के कर्मानुसार ही मनुष्य, पक्षु, पक्षी आदि असंख्य नाना योनियों में से किसी एक योनि में जन्म लेगा। हममें से कोई नहीं चाहता कि हम मनुष्य से इतर किसी अन्य नीच योनि में जन्म लेकर दुःख भोगें। यह हमारे वश में नहीं है। जन्म व मृत्यु जगतपति परमात्मा के हाथों में है। वह न्यायाधीश है। हम जैसे कर्म करेंगे उसी के अनुसार मनुष्य वा पशु-पक्षी आदि योनियों में ही हमें जन्म मिलना सुनिश्चित है। अतः इस कर्म रहस्य को जानकर मनुष्य को पशुओं आदि पर अनुचित हिंसा सहित मांसाहार का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये जिससे उनका पतन न हो और वह भविष्य के जन्मों में भी दुःखों से बचकर सुखों को प्राप्त कर सकें।

आजकल पूरे विश्व में गाय सहित अनेक पशु व पक्षियों की जिह्वा के स्वाद वा भोजन के लिये हत्या की जाती है वा उनका मांस खाया जाता है। क्या पशुओं का मांस खाने वाले बुद्धिमान हैं? ऐसा नहीं है। मांसाहार बुद्धि की कसौटी पर उचित नहीं है। मांसाहार से मनुष्य के शरीर में अनेक रोग होते हैं व रोगों के होने की संभावना होती है। आजकल करोना रोग का संसार में प्रकोप जारी है। पूरे विश्व में करोना संक्रमितों की संख्या पैंतालीस लाख पहुंच गई है तथा मृत्यु का आंकड़ा भी लगभग तीन लाख पहुंच रहा है। इस करोना वायरस की उत्पत्ति चमगादड़ आदि किसी पशु की हत्या वा चीन की किसी प्रयोगशाला में जैविक हथियार बनाते समय पशुओं की हत्या के द्वारा अस्तित्व में आई है। इससे पशु हत्या एवं पशुओं के मांस खाने के दुष्परिणामों का ज्ञान होता है। समाचारों में यह भी कहा जा रहा है कि कोरोना का प्रभाव अधिकांशतः मांसाहारियों पर हो रहा है। शाकाहारी लोग इस रोग से कम ही पीड़ित हो रहे हैं। इससे हमें शिक्षा लेनी चाहिये। आजकल अवसाद आदि रोगों में गो आदि पशुओं से प्रेम करने व उन पर हाथ फेरने से रोग दूर करने की बातें कही जाती हैं। अमेरिका जैसे देश में इस प्रकार से उपचार किया जाता है। हमारी संस्कृति में भी सृष्टि के आरम्भ से ऐसा होता आया है। पशुओं से प्रेम करने से हमारे मन, हृदय आदि अन्तःकरण के अवयव स्वस्थ व पूरी क्षमता से काम करते हैं। ऐसा करके भी शरीर की आन्तरिक शक्ति बढ़ती है जिससे अनेक रोगों से बचाव होता है। इससे भी मनुष्य का शाकाहारी जीवन व्यतीत करना ही सिद्ध होता है। हम वेदभाष्यकार पं. विश्वनाथ वेदोपाध्याय जी के जीवन काल में उनसे मिलते रहे हैं। वह शाकाहारी रहते हुए 103 वर्ष की आयु तक जीवित रहे थे। अन्तिम समय तक उन्होंने सक्रिय रहते हुए लेखन कार्य किया। महाभारत के भीष्म पितामह एक सौ अस्सी वर्ष तथा कृष्ण व अर्जुन आदि 120 वर्ष तक जीवित रहे और इस आयु में भी एक युवा की भांति युद्ध करते थे। यह उदाहरण मनुष्यों को शाकाहारी बनने की प्रेरणा देने के लिये पर्याप्त हैं। अतः मांसाहारियों को इन उदाहरणों से प्रेरणा लेनी चाहिये और अपने हित व सुखों के लिये मांसाहार का तत्काल त्याग कर देना चाहिये।

गाय आदि दुग्धधारी पशुओं से हमें दुग्ध के साथ गोबर भी प्राप्त होता है। गोबर भी एक बहुप्रयोजनीय पदार्थ है। यह रासायनिक खाद के दुष्प्रभावों से मुक्त उत्तम किस्म की जैविक खाद कही जा सकती है जिसके प्रयोग से मनुष्य अनेक रोगों से बचता है और इससे उत्पन्न अन्न भी शरीर के लिये आरोग्य सहित स्वाद की दृष्टि से उत्तम भोजन होता है। आयुर्वेद में गोघृत को आयु वृद्धि का आधार बताया जाता है और यह है भी। गाय का गोबर ईधन के रूप में भी उपयोग में लाया जा सकता है। इसका उपयोग कुछ रोगों की ओषधियों में भी किया जाता है। आजकल कुछ लोग गोबर के उपलों पर घृत और हवन सामग्री डालकर यज्ञ करते हैं। वह बताते हैं कि इससे भी रोगों को दूर करने में लाभ होता है। गोबर की गन्ध भी हमें अनेक किटाणुओं व वायरसों से बचाती है। बतातें हैं कि यदि क्षय रोग का रोगी किसी गोशाला में रह कर उपचार करवाता है तो उसके कम समय में रोगरहित होने की संभावना होती है। गाय के मरने के बाद उसका चर्म जूतों व चप्पल के रूप में हमारे पैरों की अनेक प्रकार से रक्षा करता व उपयोगी होता है। इन सब लाभों को देखते हुए गाय का वध करना महापाप है। जो ऐसा करते हैं वह अपनी तो हानि करते ही हैं, इसके साथ ही वह देश व समाज के लोगों से उस गाय व गोवंश से होने वाले लाभों से भी वंचित करने के कारण पापी व अपराधी होते हैं।

गो रक्षा का महत्व बताते हुए ऋषि दयानन्द जी ने गोकरुणानिधि नामक एक लघु पुस्तिका लिखी है। एक गाय के दुग्ध और उससे उत्पन्न बैलों से कृषि कार्यों के द्वारा अन्न उत्पन्न होता है। इसका विस्तार से विवेचन एवं अर्थशास्त्रीय रीति से गणना कर उन्होंने बताया है कि एक गाय की एक पीढ़ी से दुग्ध व बैलों से उत्पन्न अन्न से 4,10,440 चार लाख दस हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का एक बार का भोजन होता है। इस प्रकार गाय की पीढ़ी दर पीढ़ी से होने वाले लाभों का अनुमान किया जा सकता है जो कि असंख्य व अनन्त लोगों तक पहुंचता है। ऋषि दयानन्द लिखते हैं ‘इस (गाय) के मांस से अनुमान है कि केवल अस्सी मांसाहारी मनुष्य एक बार में तृप्त हो सकते हैं। देखो! तुच्छ लाभ के लिए लाखों प्राणियों को मार असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं?’ गाय की ही तरह ऊंटनी, बकरी आदि से भी लाभ होते हैं। गाय के प्रति अपनी करूणा प्रवाहित करते हुए वह लिखते हैं ‘देखिए, जो पशु निःसार घास-तृण, पत्ते, फल-फूल आदि खावें और दूध आदि अमृृतरूपी रत्न देवें, हल-गाड़ी आदि में चल के अनेकविध अन्न आदि उत्पन्न कर, सबके बुद्धि, बल, पराक्रम को बढ़ाके नीरोगता करके, पुत्र-पुत्री और मित्र आदि के समान मनुष्यों के साथ विश्वास और प्रेम करें, जहां बांधे वहीं बंधे रहें, जिधर चलावें उधर चलें, जहां से हटावें वहां से हट जावें वा मारनेवाले को देखें, अपनी रक्षा के लिए पालन करनेवाले के समीप दौड़कर आवें कि यह हमारी रक्षा करेगा। जिसके मरे पर चमड़ा भी कण्टक आदि से रक्षा करे, जंगल में चरके अपने बच्चे और स्वामी के लिए दूध देने के नियत स्थान पर नियत समय पर चलें आवें, अपने स्वामी की रक्षा के लिए तन-मन लगावें, जिनका सर्वस्व राजा और प्रजा आदि मनुष्य के सुख के लिए है, इत्यादि शुभगुणयुक्त, सुखकारक पशुओं के गले छुरों से काटकर जो मनुष्य अपना पेट भर, सब संसार की हानि करते हैं, क्या संसार में उनसे भी अधिक कोई विश्वासघाती, अनुपकारक, दुःख देनेवाले और पापी मनुष्य होंगे?’

ईश्वर से गाय आदि प्राणियों की रक्षा के लिए मार्मिक प्रार्थना करते हुए वह अपनी इसी पुस्तक में लिखते हैं ‘हे परमेश्वर! तू क्यों इन पशुओं पर, जोकि विना अपराध मारे जाते हैं, दया नहीं करता? क्या उन पर तेरी प्रीति नहीं है, क्या उनके लिए तेरी न्यायसभा बन्द हो गई है? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर ध्यान नहीं देता, और उनकी पुकार नहीं सुनता? क्यों इन मांसाहारियों की आत्माओं में दया का प्रकाश कर निष्ठुरता, कठोरता, स्वार्थपन और मूर्खता आदि दोषों को दूर नहीं करता, जिससे ये इन बुरे कामों से बचें।’ ऋषि दयानन्द ने एक स्थान पर मांसाहारियों से पूछा है कि जब सभी पशु समाप्त हो जायेंगे तो क्या तुम अपनी जिह्वा के स्वाद के लिये अपने बच्चों को मार कर खाओगे? इन शब्दों में उनकी पीड़ा प्रकट हुई है। गोकरूणानिधि पुस्तक की समाप्ती पर वह ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहते हैं ‘हे महाराजाधिराज जगदीश्वर! जो इनको कोई न बचावे तो आप इनकी रक्षा करने और हमसे कराने में शीघ्र उद्यत हूजिए।’

गो आदि पशुओं की रक्षा तथा गोवध पर पूर्ण प्रतिबन्ध मानवीयता, धर्म, आर्थिक कारणों सहित सुख व आरोग्य की दृष्टि से भी आवश्यक है। सुप्रसिद्ध सांसद पंडित प्रकाशवीर शास्त्री जी ने एक पुस्तक ‘गोहत्या राष्ट्र हत्या’ लिखी है। इसमें गोरक्षा की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। इससे अनुमान होता है कि जिस देश में गोहत्या होती है, कालान्तर में उस देश की भी हत्या व नाश हो जाता है। आज कोरोना के परिप्रेक्ष्य में हम इसका दर्शन कर रहे हैं। समूचे विश्व को गोहत्या सहित सभी प्राणियों व पशुओं की हत्याओं पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने पर विचार करना चाहिये। इसी से मानवता बच सकती है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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