1857 की क्रांति के अमर क्रांतिकारी एवं किला परीक्षितगढ़ के अंतिम राजा राव कदम सिंह

लेखक अशोक चौधरी मेरठ।

सन् 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम का प्रारंभ मेरठ से हुआ।इस स्वतंत्रता-संग्राम में मेरठ के किला-परिक्षत गढ़ कस्बे के निकटवर्ती गांव पूठी के निवासी राव कदम सिंह ने विदेशी अत्याचारी ब्रिटिश सत्ता से भारतीय क्रांतिकारियों के साथ मिलकर जो संघर्ष किया,वह भुलाने योग्य नहीं है।
आखिर राव कदम सिंह किस पृष्ठभूमि से थे,वो कोन सी सामाजिक पूंजी थी जिसने राव कदम सिंह को अपने क्षेत्र के क्रांतिकारियों का नेता बना दिया,इस पर नजर डालें तो हमें सन् 1857 से 67 वर्ष पूर्व में सन् 1790 में जाना होगा जब किला-परिक्षत गढ़ के राव जेत सिंह नागर की मृत्यु के पश्चात उनका दत्तक पुत्र नैन सिंह नागर राज गद्दी पर बैठे।

राव जेत सिंह नागर की मृत्यु के पश्चात नैन सिंह नागर पूर्वी परगने के राजा बने। उनकेे दो पुत्र थे। एक पुत्र का नाम नत्था सिंह तथा दूसरे पुत्र का नाम गुमानी सिंह था।राजा नैन सिंह नागर ने अपने क्षेत्र के प्रत्येक वर्ग को खुशहाल बनाने के लिए भरसक कार्य किया।कई सड़कों का निर्माण करवाया, चिकित्सालय खुलवाये,, चरागाहों के लिए भूमि दी। उन्होंने बहसूमा के अंदर अपने सहित, अपने छः भाइयों के लिए सात महल बनवाये।अनेक मंदिर बनवाये जैसे परिक्षत गढ़ का कात्यानी मंदिर,शिव मंदिर, हस्तिनापुर में जैन मन्दिर तथा बहसूमा व गढ़-मुक्तेश्वर में भी कई मंदिर व धर्मशालाएं बनवायी। उन्होंने अपने क्षेत्र में सैयद मुसलमानों के अत्याचारों से आम गरीब आदमी को मुक्त कराया तथा अत्याचार करने वाले सैयद जमीनदारों को मौत के घाट उतार दिया। राजा नैन सिंह नागर ने अपने राज्य की सुरक्षा एवं राजस्व प्राप्ति के लिए अपने छः भाइयों को गढ़ियों में तेनात किया। गोहरा आलमगीर की गढ़ी में चेन सिंह सिंह को, बहसूमा में भूप सिंह को,परिक्षत गढ़ के निकट पूठी में गढ़ी बनवाकर जहांगीर सिंह को, मवाना के निकट ढिकोली में बीरबल सिंह को,कनखल में अजब सिंह को, सीकरी में खुशहाल सिंह को नियुक्त कर दिया।
राजा नेन सिंह नागर ने 13 वर्ष मराठों तथा 15 वर्ष अंग्रेजों के शासन के अंतर्गत अपने क्षेत्र की जागीर का नेतृत्व किया।राजा नेन सिंह नागर के शौर्य तथा पराक्रम से प्रभावित होकर मराठों के अलीगढ़ के गवर्नर पैरां ने 350 गांव उपहार स्वरूप भेंट में दिये।
राजा नैन सिंह नागर के राज्य क्षेत्र से लगी लंढोरा नाम की गुर्जरों के पंवार गोत्र की रियासत थी, जिसके राजा रामदयाल थे, सन् 1813 में राजा रामदयाल की मृत्यु हो गई। अंग्रेजों ने राजा की मृत्यु के बाद ही इस रियासत को छिन्न-भिन्न कर दिया तथा राजपरिवार के सदस्यों में कई ताल्लुकेदार बना कर बांट दिया। इस घटना से क्षेत्र मे तनाव बन गया, जिसका असर किला-परिक्षत गढ़ की रियासत पर भी पडा।
अपने पूर्वज राव जेत सिंह नागर की तरह ही अपने क्षेत्र की सेवा करते हुए सन् 1818 में राजा नेन सिंह नागर स्वर्गवासी हो गये।राजा नेन सिंह नागर की मृत्यु के पश्चात उनका बेटा नत्था सिंह परिक्षत गढ़ की राजगद्दी पर बेठा।राजा नेन सिंह नागर के दूसरे पुत्र गुमानी सिंह सन्यासी बन गए थे।
यह तो सर्वविदित है कि किला-परिक्षत गढ़ की रियासत दिल्ली के बादशाह के अन्तर्गत आती थी, अतः राजा नेन सिंह नागर के राजा बनने (सन् 1790)से उनकी मृत्यु ( सन् 1818)तक दिल्ली के लालकिले की राजनीति में क्या हो रहा था,उस पर नजर डालते हैं-
मराठा सरदार महादजी सिंधिया जिनका केन्द्र ग्वालियर था,का सन् 1794 में स्वर्गवास हो गया।अब दोलत राव सिंधिया ने महादजी सिंधिया का स्थान ले लिया।समय व्यतीत होता रहा।नो वर्ष पश्चात 11 सितम्बर सन् 1803 को इस्ट इंडिया कम्पनी की सेना ने दिल्ली पर हमला कर दिया।दोलत राव सिंधिया की सेना ने अंग्रेज सेना से डटकर युद्ध किया। परंतु मराठा सेना परास्त हो गई। अंग्रेजों का दिल्ली पर अधिकार हो गया।अब 16 सितंबर सन् 1803 को इस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारी जनरल वेग ने मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय से भेंट की तथा बादशाह को विश्वास दिलाया कि उसे घबराने की जरूरत नहीं है,वह पहले की तरह ही बादशाह रहेगा।8 अक्टूबर सन् 1803 को लार्ड वैलेजली ने बादशाह को पत्र लिखकर कहा कि बादशाह के लिए शांति व सम्मान का कम्पनी शासन पूरा ध्यान रखेगा। अंग्रेज चाहते तो बादशाह को हटा सकते थे परंतु वे बादशाह की आड़ लेकर भारतीयों का शोषण करना चाहते थे।अपनी योजना के अनुसार अंग्रेजों ने बादशाह शाह आलम द्वितीय की पेंशन जो मराठे 17 हजार रुपए प्रति माह देते थे,इस पेंशन को बढ़ाकर अंग्रेजों ने 60 हजार रुपए प्रति माह कर दिया। अब गंगा-यमुना के दोआबा का क्षेत्र अंग्रेजों के अधिकार में आ गया।19 नवम्बर सन् 1806 को बादशाह शाह आलम द्वितीय की मृत्यु हो गई। अब अंग्रेजों ने बादशाह शाह आलम द्वितीय के पुत्र को दिल्ली का बादशाह बना दिया।जिसका नाम अकबर द्वितीय था,यह भारत का 18 वा मुगल बादशाह था।समय व्यतीत होने लगा। सन् 1818 में दो घटनाएं और घटित हुई।एक मुगल बादशाह के अन्तर्गत आने वाली अवध रियासत पूर्ण रूप से इस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की अधिनस्थ रियासत हो गई। दूसरे मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों ने पूना से हटा कर तथा पेंशन देकर कानपुर के पास बिठूर में भेज दिया।
भारत में अंग्रेजी न्यायालय स्थापित होने लगे थे। हिन्दूओं के मुकदमों के फैसले अंग्रेजी कानून के अनुसार तथा मुसलमानों के मुकदमों के फैसलों के लिए मोलवी व काजियों की नियुक्ति अंग्रेजों द्वारा की गई। भारतीयों को फांसी देने के लिए अंग्रेज बादशाह से आज्ञा लेते थे। परन्तु यह आज्ञा एक दिखावा थी, बादशाह तो अंग्रेजों का वेतन भोगी था,प्रत्येक आज्ञापत्र पर हस्ताक्षर करना बादशाह की मजबूरी थी। अंग्रेजी शासन के दो चेहरे थे,एक उदारवादी चेहरा था,इस चेहरे में उनके न्यायालय, चर्च, चिकित्सालय, सड़कें,पुल तथा रेल- मार्ग दिखाई देते थे।जो बडा न्यायप्रिय था।
परंतु इस न्यायप्रिय चेहरे के पीछे जो असली चेहरा था, उसके अन्तर्गत अंग्रेज अपने न्यायालयों का उपयोग भारतीयों को फांसी पर चढ़ाने के लिए, रेल, सड़कों व पुलों का उपयोग सैन्य सामग्री को ले जाने तथा भारत में बने कच्चे माल को बंदरगाहों तक पहुचाने के लिए करते थे। विद्यालयों, चर्चों व चिकित्सालयों का उपयोग भारतीयों को ईसाई धर्म में ले जाने के लिए करने लगे थे।
इस लेख में हमारे लेखन का उद्देश्य मेरठ के किला-परिक्षत गढ़ के राव कदम सिंह नागर की सन् 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम में भूमिका पर प्रकाश डालना है। इसलिए हम पुनः किला-परिक्षत गढ़ रियासत में घट रही घटनाओं की ओर केंद्रित होते हैं-
राजा नेन सिंह नागर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र नत्था सिंह राजा बने।इस समय दिल्ली में अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया था। अंग्रेज भारतीय राजाओं, रजवाड़ों व जागीरदारों को समाप्त करते जा रहे थी।
अंग्रेजों ने सन् 1819 में परिक्षत गढ़ की निकटवर्ती रियासत लंढोरा के अंतर्गत आने वाले कुंजा-बहादुर पुर ताल्लुके का ताल्लुकेदार विजय सिंह को बना दिया। स्थानिय किसानों ने अंग्रेजों की शोषणकारी निति से क्षुब्द होकर हथियार उठा लिए विजय सिंह ने किसानों का नेतृत्व किया। विजय सिंह लंढौरा राज परिवार के निकट सम्बन्धी थे।। 03 अक्टूबर सन् 1824 को किसानों व ब्रिटिश सेना में घमासान युद्ध हुआ।इस युद्ध में विजय सिंह अपने सेनापति कल्याण सिंह सहित शहीद हो गए।ब्रिटिश सरकार के आकडों के अनुसार 152 स्वतन्त्रता सेनानी इस युद्ध में शहीद हुए, 129 जख्मी हुए और 40 गिरफ्तार किये गये। किसानों के इस संघर्ष से किला-परिक्षत गढ़ के किसानों में भी तनाव व्याप्त हो गया।
अंग्रेजी सरकार ने इस क्षेत्र में लोगों को निशस्त्र करने का अभियान चलाया।किला-परिक्षत गढ़ के किले की बुर्ज पर तीन तोपें लगी हुई थी। राजा नत्था सिंह ने उन तोपों को किले की बुर्ज से उतार कर गुप्त स्थान पर छिपा दिया।
परिक्षत गढ़ की रियासत को अंग्रेजों ने जब्त कर लिया। नत्था सिंह को केवल 3.5 गांव की जमींदारी का अधिकार दिया तथा 183 गांवों में केवल 5% ननकारा दिया।इस परिस्थिति में नत्था सिंह ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध दीवानी दावा कोर्ट में दायर कर दिया। राजा नत्था सिंह का दावा आंशिक रूप से स्वीकार हो गया।अब नत्था सिंह को 274 गांव मिले, जिनकी मालगुजारी 50000 रूपए वार्षिक थी। इस प्रकार राजा नत्था सिंह नागर के समय परिक्षत गढ़ रियासत एक छोटे-से हिस्से में सिमट कर रह गई। राजा नत्था सिंह के संतान के रूप में एक पुत्री थी।जिसका नाम लाडकौर था।जिसकी शादी लंढोरा रियासत के राजा खुशहाल सिंह के साथ हो गई थी।समय चक्र चलता रहा अगस्त सन् 1833 को राजा नत्था सिंह की मृत्यु हो गई।
इससे आगे रियासत के बारे में जानने से पहले एक नजर अंग्रेजों की शासन व्यवस्था पर डाल लेते हैं-
अंग्रेज भारतीयों को निम्न दर्जे का मानते थे,आम आदमी के साथ उनका बर्ताव बहुत बुरा था। अंग्रेज अधिकारी भ्रष्टाचार में डूबे हुए थे। भारतीयों पर शासन करने के लिए अंग्रेजी ने इंडियन सिविल सर्विस का निर्माण किया, इसमें 2000 अंग्रेज़ अधिकारी थे ,10000 अंग्रेज अधिकारी सेना में और 60 हजार अंग्रेज सिपाही भारत में तेनात थे। कोई भारतीय उच्च पद पर नहीं जा सकता था, भारतीय कर्मचारियों को अपमानित किया जाता था। भारतीय जज की अदालत में किसी भी अंग्रेज के विरुद्ध कोई मुकदमा दर्ज नहीं होता था।रेल गाड़ी के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में कोई भारतीय नहीं बैठ सकता था। अंग्रेजों द्वारा संचालित होटलों और क्लबों में तख्तियो पर लिखा होता था कि कुत्तों और भारतीयों का आना वर्जित है।
भारतीय सिपाही भी असंतुष्ट थे। सेना में एक भारतीय सूबेदार का वेतन 35 रूपय प्रति माह था, जबकि उसी पद पर तैनात अंग्रेज सूबेदार का वेतन 195 रूपये प्रति माह था। भारतीय सैनिकों को पदोन्नति नहीं दी जाती थी। सन् 1806 से लेकर सन् 1855 तक भारतीय सैनिकों ने कई बार विद्रोह किये। लेकिन अंग्रेजों ने उनको बडी क्रुरता से कुचल दिया था। अंग्रेजों ने भारतीय कृषि को तहस नहस कर दिया था।वह किसानों से अपनी मनचाही फसल उगवाते थे, जिस कारण भारतीय किसानों का फसल चक्र बिगड़ गया था।
देशी राजाओं की स्थति यह थी कि एक ओर तो वह अंग्रेजों के पंजो में छटपटा रहे थे, दूसरी ओर उन्हें लगता था कि अंग्रेजों से अलग हटते ही उनका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। बहुत से राजे रजवाड़ों को अंग्रेजों ने युद्ध में नहीं जीता था बल्कि राजाओं के मर जाने के बाद सीधे ही हडप लिया था।
औरंगजेब के बाद जो भारत बिखर गया था,वह पुनः अंग्रेजों के नेतृत्व में एक साथ आ गया था। परन्तु यह एकीकरण मुगल शासन की तरह ही पीड़ादायक था।
अंग्रेज अपने उदारवादी चेहरे का इतना व्यापक प्रचार-प्रसार करते थे कि उनका शोषणकारी चेहरा आम भारतीय को तो क्या दिखता? जिसका शोषण होता था उसे ही तब पता लगता था जब वह कुछ करने की स्थति में नहीं रहता था।यह अंग्रेजों की राजनीतिक कुशलता थी या उनकी धोखाधड़ी। ये तो हर कोई अपने नजरिए से तय करेगा।
सन् 1833 में राजा नत्था सिंह की मृत्यु होने के बाद जागीर को पुनः समाप्त कर दिया गया। नत्था सिंह की रानी को 9000 रूपए प्रति वर्ष पेंशन तथा 5% एलाउंस अंग्रेजों ने दिया। सन् 1836 में सर एच एम इलियट ने जिले का बंदोबस्त किया। राजा नत्था सिंह के अन्य राजपरिवार के सदस्यों में 20 गांव वितरित कर दिए गए।जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं कि राजा नैन सिंह के छः भाई थे।उन सबको चार-चार गांव दे दिए गए। ऐसा लगता है कि छः भाईयों में से एक निसंतान स्वर्गवासी हो गये थे, इसलिए 20 गांवों में से पांच भाइयों में चार-चार गांव दिये गये। राजा नैन सिंह के भाई जहांगीर सिंह जो पूठी गांव की गढ़ी में रहते थे,राव कदम सिंह इन्हीं जहांगीर सिंह के पोत्र थे।अब हम लालकिले में घट रहे उस घटनाक्रम पर नजर डालते हैं जिसकी वजह से मेरठ में सन् 1857 की स्वतंत्रता-संग्राम का प्रारम्भ हुआ तथा राव कदम सिंह ने इस संग्राम में अपनी आहूति दे दी थी-
सन् 1835 में अंग्रेजों ने मुगल बादशाह का टाइटिल बदल दिया।अब वह बादशाह को भारत के बादशाह के स्थान पर king of Delhi(किंग आंफ देहली) कहने लगे।इसी वर्ष सिक्कों की लिखाई भी बदल दी।अब तक सिक्कों पर फारसी भाषा में लिखा जाता था। दूसरी ओर बादशाह का नाम अंकित रहता था।अब सिक्कों पर लिखी भाषा अंग्रेजी कर दी गई। बादशाह का नाम हटा दिया गया।यह एक तरह से मुगल शासन की समाप्ति की घोषणा ही थी। परन्तु इस पर विरोध तो तब होता,जब बादशाह वास्तव में बादशाह होता। सन् 1837 में गंगा-यमुना के दोआबा में भयंकर अकाल पड़ा।इस अकाल में करीब 8 लाख लोगों की मौत हो गई। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची थी।इस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार ने अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए कुछ भी नहीं किया।जब जनता ने विरोध किया तों शक्ति के बल पर जनता का दमन कर दिया गया। सन् 1837 में ही मुगल बादशाह अकबर द्वितीय की मृत्यु हो गई।अब अंग्रेजों ने अपने हित को ध्यान में रखते हुए मरहूम बादशाह अकबर द्वितीय के बड़े पुत्र के स्थान पर छोटे पुत्र मिर्जा अबू जफर उर्फ बहादुर शाह जफर को बादशाह बना दिया।यह भारत का 19 वां मुगल बादशाह था। समय चक्र चलता रहा। कम्पनी से मिलने वाली पेंशन से बादशाह का गुजारा चल रहा था। परन्तु ऐसा हमेशा नहीं चलना था। सन् 1842 में लार्ड एलन ब्रो भारत का गवर्नर जनरल बन कर आया। उसने बादशाह को कम्पनी सरकार की ओर से मिलने वाले उपहार बंद करा दिए। सन् 1848 में लार्ड डलहौजी भारत का गवर्नर जनरल बन कर आया। उसने मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को लालकिला छोड़ कर महरोली में जाकर रहने के लिए कहा। परंतु यह बात बादशाह ने नहीं मानी।वह लालकिले से बाहर नहीं गया।इस पर अंग्रेजों ने सन 1856 में बादशाह के एक आवारा शहजादे मिर्जा कोयस से संधि कर ली। अंग्रेजों ने मिर्जा कोयस से यह तय कर लिया कि वह लालकिले को छोड़कर महरोली चला जायेगा। कम्पनी सरकार उसे 15 हजार रुपए महीने की पेंशन देगी।वह बादशाह का टाइटिल न लगाकर शहजादा के टाइटल का प्रयोग करेगा।
सन् 1856 में ही अंग्रेजों ने अवध की रियासत को हडप लिया।अवध का नवाब इस समय वाजिद अली शाह था।यह एक सम्पन्न रियासत थी तथा कम्पनी सरकार पर ही रियासत का चार करोड़ रुपया कर्ज था। अंग्रेजों ने नवाब वाजिद अली शाह को निर्वासित कर कलकत्ता भेज दिया। नवाब की बेगम हजरत महल को रियासत का शासक बना दिया।इस घटना की सूचना जब देश में फैलीं तो सभी रियासतों के राजा सकपका गये।
सन् 1852 में पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु हो गई। अंग्रेजों ने पेशवा के दत्तक पुत्र पेशवा नाना साहब द्वीतिय की पेंशन बंद कर दी।इस समय नाना साहब द्वीतिय ने जिन राजाओं की पेंशन अंग्रेजों ने बंद कर दी थी अथवा जिन राजाओं, जागीर दारो की जागीरें जब्त कर ली थी, सबको अंग्रेजों के विरुद्ध एकत्रित होकर संघर्ष करने के लिए पत्र लिखे।नाना साहब ने नवाब वाजिद अली शाह का वजीर अली नकी खां जो कलकत्ते में था तथा बेगम हजरत महल को भी अपने साथ योजना में शामिल कर लिया । सन् 1857 के प्रारंभ में दमदम शास्त्रागार में पानी पीने को लेकर एक दलित कर्मचारी से एक ब्राह्मण सिपाही की बोलचाल हो गई।इस मूंह-भाषा में दलित कर्मचारी ने गाय व सूअर की चर्बी कारतूस पर लगीं होने की बात का खुलासा कर दिया।जिसका नाम मतादिन बाल्मिकि बताया जाता है। इससे सेना में आक्रोश फैल गया। कहने का तात्पर्य यह है कि चारों तरफ अंग्रेजों के विरुद्ध माहोल गर्म हो रहा था।इन परिस्थितियों में नाना साहब व वजीर अली नकी खां ने मुस्लिम फकीर व हिन्दू साधुओं के भेष में अपने दूत समस्त उत्तर भारत में भारतीय सैनिकों तथा पीड़ित जागीरदारों से सम्पर्क करने के लिए भेजे। सन् 1857 के प्रारंभ में ही नाना साहब पेशवा अपने छोटे भाई बाला साहब व अपने सेनापति अजीबुल्ला खां के साथ तीर्थयात्रा करने के बहाने भारत भ्रमण पर निकल लिए।नाना साहब ने भारत के सभी रजवाड़ों के राजाओं से, सैनिक छावनी में सैनिकों से सम्पर्क किया।नाना साहब ने दिल्ली में पहुंच कर लालकिले में बादशाह बहादुर शाह जफर व उसकी बेगम जीनत महल से भी भेंट की। शायद तभी 31मई की तिथि क्रांति के लिए तय हुई तथा भारतीय सेना भी इस मुहिम में जुड गईं। क्रांति के प्रचार के लिए फकीरों व संन्यासियों के भेष में नाना साहब के कार्यकर्ताओं ने बंगाल के बैरकपुर से लेकर पखनूतिस्थान के पेशावर तक तथा लखनऊ से लेकर महाराष्ट्र के सतारा तक सघन प्रचार किया।इस प्रयास से दिल्ली, बिठूर, लखनऊ, कलकत्ता व सतारा प्रमुख केन्द्र बन गए।एक अंग्रेज़ अधिकारी विलसन ने अपने अधिकारी को सूचित किया कि 31 मई की तारीख भारतीयों ने विद्रोह के लिए निश्चित कर ली है।उस समय भारत की राजधानी कलकत्ता थी, परंतु मुगल बादशाह दिल्ली के लालकिले में बैठा था तो दिल्ली का महत्व भी कम नहीं था।
नाना साहब ने अपनी शक्ति और बुद्धि बल से क्रांति की देवी व उसके पुत्रों (भारतीय सैनिक व अंग्रेजों के विरोधी जागीरदार तथा राजा)को झकझौर कर जगा दिया था।जब क्रांति की देवी ने आंखें खोल कर लालकिले की ओर देखा तो लालकिले के अंदर बैठा बादशाह अत्यंत कमजोर, निर्धन, बूढ़ा और उत्साहहीन था। उसमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वह खड़ा होकर क्रांति की देवी के स्वागत के लिए लालकिले का दरवाजा खोल दे।इस अवस्था में क्रांति की देवी के पुत्रों ने स्वयं आगे बढ़कर लालकिले के दरवाजे को लात मारकर खोल दिया तथा लालकिले के अंदर बैठे बादशाह को अपने आगोश में भरकर ना चाहते हुए भी क्रांति की देवी के स्वागत के लिए लालकिले के दरवाजे पर खडा कर दिया।
जब अंग्रेजों पर 31 मई को बगावत होने की सूचना पहुची तो वे भी चोकन्ने हो गये। अंग्रेज जहां जहां से खतरा समझते थे, वहां निगाह गड़ाए हुए थे। बंगाल आर्मी की छावनियों में एक छावनी मेरठ में भी थी। अंग्रेजों पर पहुंची सूचनाओं के आधार पर उन्हें मेरठ से कोई खतरा नहीं था।मेरठ में देशी सिपाहियों की केवल दो रेजिमेंट थी, जबकि यहां गोरे सिपाहियों की एक पूरी राइफल बटालियन तथा एक ड्रेगन रेजिमेंट थी, मेरठ में 2200 अंग्रेज़ सिपाही थे।एक अच्छे तोपखाने पर भी अंग्रेजों का ही पूर्ण अधिकार था। इस स्थिति में अंग्रेज बेफिक्र थे। लेकिन यह ईश्वर की कृपा ही थी कि 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम के प्रारंभ करने का श्रेय मेरठ को प्राप्त हुआ।
इस समय केंटोनमेंट का क्षेत्र मेरठ की सदर कोतवाली के अंतर्गत आता था तथा इस कोतवाली का कोतवाल धन सिंह गुर्जर था जो मेरठ से बागपत रोड पर स्थित पांचली खुर्द गांव का निवासी था।जैसा ऊपर बताया जा चुका है कि साधु संन्यासी तथा फकीरों के भेष में नाना साहब के गुप्तचरों द्वारा क्रांति में भाग लेने वाले लोगों से सम्पर्क किया गया था।इस निमित्त धन सिंह कोतवाल का सूरजकुंड पर अयोध्या से आये एक साधु से सम्पर्क हुआ था। सम्भवतः राव कदम सिंह से भी किसी ना किसी का मेल-मिलाप अवश्य हुआ होगा।
मेरठ में 8 मई को उन सैनिकों को हथियार जब्त कर कैद कर लिया गया था,जिन्होंने गाय व सूअर की चर्बी लगे कारतूस लेने से इंकार कर दिया था। इन गिरफ्तार सिपाहियों को मेरठ डिवीजन के मेजर जनरल डब्ल्यू एच हेविट ने 10-10 वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड सुना दिया था।
10 मई को चर्च के घंटे के साथ ही भारतीय सैनिकों की गतिविधियाँ प्रारंभ हो गई।शाम 6.30बजे भारतीय सैनिकों ने ग्यारहवीं रेजिमेंट के कमांडिंग आफिसर कर्नल फिनिश व कैप्टन मेक डोनाल्ड जो बीसवीं रेजिमेंट के शिक्षा विभाग के अधिकारी थे, को मार डाला तथा जेल तोडकर अपने 85 साथियों को छुड़ा लिया। सदर कोतवाली के कोतवाल धन सिंह गुर्जर तुरंत सक्रिय हो गए, उन्होंने तुरंत एक सिपाही अपने गांव पांचली जो कोतवाली से मात्र पांच किलोमीटर दूर था भेज दिया। पांचली से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर सीकरी गांव था, तुरंत जो लोग संघर्ष करने लायक थे एकत्र हो गए और हजारों की संख्या में धनसिंह कोतवाल के भाईयों के साथ सदर कोतवाली में पहुंच गए। मेरठ के आसपास के गांवों में प्रचलित किवदंती के अनुसार इस क्रांतिकारी भीड़ ने धनसिंह कोतवाल के नेतृत्व में देर रात दो बजे जेल तोडकर 839 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी। मेरठ शहर व कैंट में जो कुछ भी अंग्रेजों से सम्बंधित था उसे यह क्रांतिकारियों की भीड़ पहले ही नष्ट कर चुकी थी। क्रांतिकारी भीड़ ने मेरठ में अंग्रेजों से सम्बन्धित सभी प्रतिष्ठान जला डाले थे, सूचना का आदान-प्रदान न हो, टेलिग्राफ की लाईन काट दी थी। मेरठ से अंग्रेजी शासन समाप्त हो चुका था, कोई अंग्रेज नहीं बचा था, अंग्रेज या तो मारे जा चुके थे या कहीं छिप गये थे।
रात भर 70 किलोमीटर चलने के बाद 11 मई को दिन निकलने से पहले मेरठ के ये क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली के यमुना तट पर पहुच गये।इन सैनिकों में बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के 3,11,20 नम्बर बटालियन के घुड़सवार सैनिक थे।इन तीनों दस्तों का नेतृत्व तीन नम्बर बटालियन के सैनिक कर रहे थे। दिल्ली में घुसने के लिए नावों को जोड़ कर एक पुल बना हुआ था।इस पुल से ही ये सैनिक शहर में प्रवेश कर गये।इन सैनिकों ने लाल किले के बाहर पहुंच कर किले के चोबदार के हाथों बादशाह के पास सूचना भिजवाई कि मेरठ से आये सिपाही मिलना चाहते हैं। बादशाह ने मिलने के लिए मना कर दिया और कहा कि वे शहर से बाहर बादशाह के आदेश का इंतजार करें।इस समय तक अंग्रेजों को मेरठ से आने वाली इस सेना की सूचना मिल चुकी थी। अंग्रेजों ने दिल्ली नगर के परकोटे के दरवाजे बंद करने का प्रयास किया। लेकिन तब तक काफी विलम्ब हो चुका था। क्रांतिकारी सिपाही दक्षिणी दिल्ली में राजघाट दरवाजे की तरफ से दिल्ली में घुस गये थे। क्रांतिकारी सैनिकों ने घुसते ही चुंगी के एक दफ्तर में आग लगा दी।अब वे उत्तरी दिल्ली में स्थित सीविल लाइन की तरफ बढ़ चले, जहां दिल्ली के उच्च अधिकारी व उनके परिवार रहते थे।इस समय दिल्ली से तीन किलोमीटर दूर बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की दो बेरकें थी,इन बेरकों में इंफेंट्री की 38,54,74 वी बटालियन के जवान थे। उन्होंने मेरठ से आये सिपाहियो को बारूद और तोपे उपलब्ध करा दी।असलाह मिल जाने के बाद क्रांतिकारी सैनिकों ने उत्तरी दिल्ली के अंग्रजों द्वारा बनाए गए सभी महत्वपूर्ण कार्यालयों को बर्बाद करने के बाद अंग्रेज़ अधिकारियों व पादरियों के बंगलों को आग के हवाले कर दिया तथा जो भी अंग्रेज मिला उसे मार डाला। कुछ अंग्रेज इस मारकाट से बच कर मुख्य गार्ड में जा कर छिप गए। क्रांतिकारी सैनिकों ने उन्हें वहीं जा घेरा। लेकिन तब तक बेरको से अंग्रेज़ सिपाही पहुंच गए, वहां छिपे अंग्रेज बचा लिए गए।अब क्रांतिकारी सैनिकों ने ब्रिटिश शस्त्रागार पर धावा बोल दिया।इस मेगज़ीन को बचाने के लिए अंग्रेजी सिपाहियो ने भरसक प्रयत्न किया, लेकिन मेगज़ीन में उपस्थित भारतीय सिपाही व कर्मचारी क्रांतिकारी सैनिकों की ओर हो गये। पांच घंटे संघर्ष हुआ। अंग्रेजों ने मेगजीन छीनती देख, अपने हाथों से इसमें आग लगा दी।यहा उपस्थित सभी अंग्रेज अधिकारी मारे गए, सिर्फ तीन बच कर निकल गये।इन तीनों अधिकारियों को बाद में विक्टोरिया क्रास दिया गया।इसके बाद क्रांतिकारी सैनिक कश्मीरी बाजार में पहुंच गए।इन सैनिकों को देखकर अंग्रेजों मे भगदड़ मच गई। कुछ अंग्रेज अधिकारी व उनके परिवार फखरूर मस्जिद में जाकर छिप गए। जिन्हें वहीं जाकर मार डाला गया।इसके बाद अंग्रेज़ अधिकारी कालिंग साहब की हबेली व सेंटजिन्स चर्च को फूंक डाला गया।इस समय तक क्रांतिकारी सैनिकों के सर पर खून सवार हो गया था।स्थानिय लोग उनके सहयोग के लिए निकल पड़े। दिल्ली की गलियों में ढूंढ-ढूंढ कर अंग्रेजों को मार डाला गया। चर्च में मिले 23 अंग्रेजों को मार दिया गया। अंग्रेजों के मारने के बाद अंग्रेजों के समर्थक रहे भारतीयों को स्थानिय लोगों ने बताना शुरू कर दिया।अब क्रांतिकारी सैनिकों ने अंग्रेज समर्थक रहे भारतीयों को मार डाला। अंग्रेज परस्त जैन व मारवाड़ी साहूकारों को उनके घर सहित नेस्तनाबूद कर दिया गया।यह मारकाट 11 मई के पूरे दिन व रातभर चली।जिन अंग्रेजो की जान बच गई वो उत्तर-पश्चिम दिल्ली में स्थित एक पहाड़ी टेकरी में बने फ्लेग स्टाफ टावर पर एकत्रित हो गए, जिसे रिज कहां जाता हैं।जो आज भी दिल्ली विश्वविद्यालय के निकट है,यही से टेलीग्राफ के माध्यम से दूर अंग्रेज अधिकारियों को दिल्ली में घटित घटना की सूचना भेज दी गई।इसी रात अंग्रेज करनाल के लिए चल दिए।
12 मई को दोपहर बाद बादशाह बहादुर शाह जफर ने अपने चोबदार को दरिया गंज में भेजकर यह मनादी करवाई कि मार-काट बंद कर दो।जो अंग्रेज या उनके परिवार कहीं छिपे हुए हैं उन्हें लालकिले में ले आओ तथा मृत पडे अंग्रेजों के शवों का दाह-संस्कार किया जाय। बादशाह ने थानेदार मुहद्दीन खां को यह कार्य सोंपा।एक चर्च में छिपे 19 अंग्रेज मिले, जिन्हें लालकिले मे पहुंचा दिया गया।सभी अंग्रेजो के शवों का दाह-संस्कार बादशाह ने करवा दिया।12 तारिख की रात को क्रांतिकारी सैनिक पुनः लालकिले में स्थित बादशाह के महल पर पहुंच गए। उन्होंने बादशाह के चोबदार के माध्यम से बादशाह से मिलने की सूचना पहुचवाई। बादशाह ने मिलने से मना कर दिया।ये सिपाही चाहते तो बलपूर्वक जा सकते थे, परंतु वो समय की नजाकत को समझ रहे थे। यदि बादशाह का बरदहस्त नही मिला तो सब कुछ समाप्त हो जायेगा।वो अकेले पड़ जायेंगे। इसलिए वो बाहर ही डटे रहे तथा बादशाह से बार-बार मिलने का आग्रह करते रहे। आधीरात को क्रांतिकारी सैनिकों की बादशाह से मुलाकात हुई। बादशाह ने उनको फटकार लगाते हुए कहा कि शहर के लोगों को मारकर क्या मिलेगा? उन्होंने बहुत गलत किया है।अंत में बादशाह ने नेतृत्व स्वीकार कर लिया। बादशाह ने कहा कि अब वो किसी निरपराध को ना मारे, अनुशासन में रहे।12 मई की रात को 12 बजे बादशाह को 21 तोपों की सलामी देदी गई।पूरी दिल्ली तोपों की गर्जना से दहल गयी। बादशाह ने अपने बड़े शहजादे मिर्जा मुगल को अपनी इस सेना का सेनापति बना दिया।अब क्रांतिकारी सिपाही नेतृत्व विहिन नही थे। क्रांतिकारी सैनिकों ने बादशाह से निवेदन किया कि दिल्ली की जनता को भी पता चलना चाहिए कि आप बादशाह हैं और हम आपके सैनिक। इसलिए 13 मई को बादशाह को हाथी पर बैठाकर दिल्ली की सड़कों पर जुलूस निकाला गया, जिसमें बादशाह के नाम के नारे लग रहे थे।यह समय का कैसा चक्र था कि जिस बादशाह के पास एक सिपाही को वेतन देने के लिए धन नहीं था वह एशिया की सबसे बढ़िया सेना बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के सिपाहियो का स्वामी बन गया था।
बहादुर शाह जफर के बादशाह बन जाने के बाद अब हम अपने पाठकों को पुनः मेरठ की ओर लिए चलते हैं-
10 मई 1857 को मेरठ में हुए सैनिक विद्रोह की खबर फैलते ही मेरठ के पूर्वी क्षेत्र में क्रान्तिकारियों ने राव कदम सिंह के निर्देश पर सभी सड़के रोक दी और अंग्रेजों के यातायात और संचार को ठप कर दिया। मार्ग से निकलने वाले सभी अंग्रेजो पर हमले किए गए। मवाना-हस्तिनापुर के क्रान्तिकारियों ने राव कदम सिंह के भाई दलेल सिंह, पिर्थी सिंह और देवी सिंह के नेतृत्व में बिजनौर के विद्रोहियों के साथ साझा मोर्चा गठित किया और बिजनौर के मण्डावर, दारानगर और धनौरा क्षेत्र में धावे मारकर वहाँ अंग्रेजी राज को हिला दिया। राव कदम सिंह को पूर्वी परगने का राजा घोषित कर दिया गया। राव कदम सिंह और दलेल सिंह के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने परीक्षतगढ़ की पुलिस पर हमला बोल दिया और उसे मेरठ तक खदेड दिया। उसके बाद, अंग्रेजो से सम्भावित युद्व की तैयारी में परीक्षतगढ़ के किले की बुर्ज पर उन तीन तोपों को चढ़ा दिया जो राव कदम सिंह के पूर्वज राजा नत्था सिंह द्वारा छिपा कर रख दी गई थी। 30-31मई को हिंडन के तट पर क्रांतिकारी सेना व अंग्रेजी सेना में युद्ध हुआ जिसमें क्रांतिकारी सेना जीत न सकी परन्तु हारी भी नहीं।31 मई को बरेली में भी क्रांति हो गई,बरेली से भी अंग्रेजों को भगा दिया गया। बिजनौर के नजीबाबाद का नबाब महमूद खां रूहेला सरदार नजीबुद्दौला का वंशज था,इस परिवार से राव कदम सिंह के परिवार के राव जैत सिंह के समय से ही सम्बन्ध थे। महमूद खां के परिवार का बख्त खां अंग्रेजों की सेना में सूबेदार था तथा बरेली में क्रांतिकारी सेना का सेनानायक था।बरेली में शासन की व्यवस्था बनाने के बाद बख्त खां अपनी सेना लेकर दिल्ली की ओर चल दिया।इस समय गढ़-मुक्तेश्वर में गंगा नदी पर पीपे का पुल बना हुआ था। अंग्रेज नही चाहते थे कि यह सेना दिल्ली पहुंचे। अतः अंग्रेजों ने इस पीपे के पुल को तोड दिया। लेकिन राव कदम सिंह ने अपने सामर्थ्य का प्रयोग करते हुए नावों की व्यवस्था कर दी तथा इस सेना को 27 जून सन् 1857 को गंगा नदी को पार करा दिया। अंग्रेज देखते रह गए।अब राजनीति के पत्ते खुल चुके थे।यह साफ हो गया था कि अंग्रेजों व क्रांतिकारी सेना में युद्ध होने के बाद यदि परिणाम क्रांतिकारी सेना के पक्ष में रहा तो राव कदम सिंह किला-परिक्षत गढ़ के राजा रहेंगे,यदि परिणाम अंग्रेजों के पक्ष में गया तो वो होगा जो अंग्रेज चाहेंगे।एक जुलाई को बख्त खां सेना लेकर दिल्ली पहुंच गया।
10 मई से लेकर बख्त खां के दिल्ली में पहुचने के बीच दिल्ली में चल रहे घटनाक्रम पर एक नजर डालते हैं-
13 मई को बादशाह बहादुर शाह जफर का शाही जुलूस जब दिल्ली की सड़कों पर निकला तो दिल्ली की जनता ने क्रांतिकारी सैनिकों का फूल बरसाकर तथा जगह-जगह मिठाई खिलाकर स्वागत किया।जो अंग्रेज दिल्ली में बच गये थे वो सब बादशाह के संरक्षण में लालकिले में थे,उनकी संख्या 52 थी। बादशाह ने मृत अंग्रेजों का दाह-संस्कार भी करवा दिया था। अतः क्रांतिकारी सैनिकों के नेतृत्व कर्ताओं को ऐसा आभास हुआ कि बादशाह दोहरी राजनीति कर रहा है, यदि किसी कारणवश क्रांतिकारी सेना हार गयी और अंग्रेज पुनः दिल्ली पर काबिज हो गये तो बादशाह अंग्रेजों के साथ अपने द्वारा किए गए सकारात्मक व्यवहार के बदले क्षमादान प्राप्त कर सकता है। अतः इस सम्भावना को समाप्त करने के लिए क्रांतिकारी सिपाही 16 मई को बादशाह के पास पहुंच गए और उन्होंने बादशाह से उन 52 अंग्रेजों के वध की आज्ञा मांगी जो बादशाह के संरक्षण में थे। बादशाह ने अनुमति नहीं दी लेकिन क्रांतिकारी सैनिकों ने बादशाह की बिना अनुमति के ही इन 52 अंग्रेजों को लालकिले के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे लाकर मार डाला।जब यह समाचार दिल्ली की जनता को मिला तो अधिकांश प्रसन्न हुए। परंतु बादशाह बडा दुखी हुआ। अंग्रेजों के चापलूस अब भी बादशाह के आसपास मौजूद थे, उन्होंने इस घटना की सूचना अंग्रेजों तक पहुंचा दी। बादशाह व उसके शहजादे को युद्ध का कोई अनुभव नहीं था। इसलिए अंग्रेजों का सामना करने की तैयारी क्या हो? वो नहीं जानते थे। उन्हें सेना के लिए रसद,घायलो के लिए चिकित्सा तथा दिल्ली के चारों ओर जहां से बादशाह को मदद मिलने वाली थी उन लोगों की सुरक्षा का प्रबंध तथा अंग्रेजों को जो मदद कर सकते थे उनका दमन तथा अंग्रेजों की रणनीति का पता चलता रहे इसके लिए गुप्तचरों की व्यवस्था करनी थी, परंतु उन्होंने कुछ नहीं किया।जो कुछ भी था क्रांतिकारी सैनिकों तथा जनता के भरोसे था। क्रांतिकारी सैनिकों के भोजन का भार दिल्ली की जनता उठा रही थी। दिल्ली के चारों ओर बसें गुर्जर क्रांतिकारी सैनिकों के साथ उसी तरह का सहयोग कर रहे थे जैसा मेरठ में दस मई को किया था।वो दिल्ली के रास्तों पर नाके स्थापित कर तैनात हो गये तथा व्यवस्था बनाने में सेना का सहयोग देने लगे।
दूसरी ओर अंग्रेजों की तैयारी तेजी से चल रही थी। अंग्रेजों की सबसे बड़ी सेना बंगाल नेटिव इन्फैंट्री थी। जिसमें 139000 सिपाही थे, जिनमें से 132000 हजार सिपाहियों ने क्रांति का झंडा उठा लिया था।अब इन्हें काबू में करने के लिए उनके पास बडी सेना अफगानिस्तान के बार्डर पर तैनात थी,जब तक वो सेना दिल्ली पहुंचे तब तक क्रांतिकारी सैनिकों को घेरे रखने के लिए दिल्ली के आसपास मेरठ,अम्बाला, करनाल में स्थित अंग्रेजी सेनाओं के उपयोग की योजना तैयार की गई तथा 17 मई सन् 1857 को अम्बाला व मेरठ की गोरी पलटनों को दिल्ली की ओर भेजा।अम्बाला की सेना जब करनाल पहुंची तभी सेना में हैजा फ़ैल गया। सेना का जनरल जांन एनसन हैजे से मर गया। कुछ दिनों बाद हैजे का प्रकोप कम होने पर जनरल हेनरी बर्नाड के नेतृत्व में सेना ने कूच किया।मेरठ और अम्बाला की ये गोरी पलटन 7 जून 1857 को अलीपुर नामक स्थान पर मिल गयी।एक गोरखा पलटन भी इनके साथ आ जुडी।
इसी बीच विलियम होडसन जो एक अंग्रेज़ अधिकारी था और अमृतसर का डिप्टी कमिश्नर रहा था, कमांडर इन चीफ जान एनसन के सहयोग के लिए नियुक्त था ने पंजाब से एक घुड़सवार दस्ता बनाया जिसमें सब सिक्ख घुड़सवार थे।इस दस्ते का नाम होडसन होर्डस रखा गया।इस दस्ते को शत्रु पक्ष से युद्ध नही करना था।इस का काम अंग्रेजों की सेना के आगे रहकर जासूसी करना था ताकि सेना को सटीक जानकारी प्राप्त होती रहें।इतना ही नहीं होडसन ने मोलवी रजब अली को अपनी गुप्तचर विभाग का प्रमुख बनाया।यह रजब अली पहले भी अंग्रेजों के लिए जासूसी करता था। इसके आदमी पूरे दोआबा तथा दिल्ली के लालकिले के अंदर तक थे।इस रजब अली के कारण ही लालकिले की हर खबर होडसन तक पहुंच रही थी।रजब अली का कमाल यह था कि बादशाह बहादुर शाह जफर की बेगम जीनत महल, प्रधानमंत्री हकीम अहसन उल्ला खां व बादशाह के शहजादे मिर्जा फखरु का ससुर मिर्जा इलाही बख्श भी होडसन के मुखबिर बन गए थे।ये वो लोग थे जो दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते थे। वे ऐसा सोचते थे कि यदि क्रांतिकारी सेना अंग्रेजों से हार गई तो होडसन से लाभ प्राप्त कर लेंगे, यदि बादशाह जीत गया तो वो उसके नजदीक थे ही। बेचारे बादशाह और उसके सेनापति शहजादे को कुछ मालूम नही था।
8 जून सन् 1857 को अंग्रेजों की सेना यमुना तट से दस किलोमीटर दूर बडली की सराय नामक स्थान पर पहुंची। क्रांतिकारी सेना भी यही पर डेरा डाले हुए थी। गोरी सेना ने इस सेना पर हमला कर दिया तथा क्रांतिकारी सेना को दिल्ली की ओर धकेल दिया। अंग्रेजी सेना ने रिज पर कब्जा कर लिया जो एक बडी सफलता थी।10 जून से गोरी सेना ने छोटी तोपों से दिल्ली पर गोलीबारी शुरू कर दी। होडसन ने रिज पर ही अपना कार्यालय बना लिया।13 जून को हिंदू राव हाउस तथा बैंक आफ देहली का भवन गोलाबारी में तबाह हो गया। दिल्ली में हलचल पैदा हो गई।19 जून को क्रांतिकारी सेना ने रिज पर जमी गोरी सेना पर जोरदार हमला किया परन्तु रिज पर कब्जा न हो सका।23 जून 1857 को फिर एक बडा हमला क्रांतिकारी सेना ने रिज पर जमें अंग्रेजों पर किया।यह हमला भी विफल हो गया।
अंग्रेजों की सेना में फिर से हैजा फ़ैल गया।5 जुलाई को जनरल बर्नाड हैजे से मर गया। इन परिस्थितियों में आरकिडेल विल्सन मेजर जनरल बना।
14 जुलाई सन् 1857 को क्रांतिकारी सैनिकों की गोलीबारी में ब्रिगेडियर लेविली चैम्बर लेन बुरी तरह घायल हो गया।
दूसरी ओर बादशाह बहादुर शाह जफर की सेना में नेतृत्व की कमजोरी के कारण आक्रोश फैल रहा था। क्रांतिकारी सैनिकों ने बादशाह बहादुर शाह जफर से साफ कह दिया कि मिर्जा मुगल व बादशाह के पोते अबू बक्र का नेतृत्व उन्हें स्वीकार नहीं है।इन परिस्थितियों में बादशाह ने बख्त खां को क्रांतिकारी सेना का प्रधान सेनापति नियुक्त कर दिया।
अंग्रेजों ने दिल्ली में लड रही क्रांतिकारी सेना की सहायता को रोकने के लिए चारों ओर से घेराबंदी शुरू कर दी।27 जून को जब राव कदम सिंह ने बख्त खां की सेना को गंगा पार करायी थी, उसके अगले ही दिन मेरठ के तत्कालीन कलेक्टर आरएच डनलप ने मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को पत्र लिखा कि यदि हमने शत्रुओं को सजा देने और अपने समर्थकों को मदद देने के लिए जोरदार कदम नहीं उठाए तो क्षेत्र कब्जे से बाहर निकल जायेगा।
तब अंग्रेजों ने खाकी रिसाला के नाम से मेरठ में एक फोर्स का गठन किया जिसमें 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। इनके अतिरिक्त 100 रायफल धारी तथा 60 कारबाईनो से लैस सिपाही थे।चार जुलाई सन् 1857 को प्रात:ही खाकी रिसाले ने धन सिंह कोतवाल के गांव पर हमला कर दिया। पूरे गांव को तोप के गोलो से उड़ा दिया गया, धनसिंह कोतवाल की कच्ची मिट्टी की हवेली धराशायी हो गई। भारी गोलीबारी की गई। सैकड़ों लोग शहीद हो गए, जो बच गए उनमें से 46 कैद कर लिए गए और इनमें से 40 को फांसी दे दी गई।
9 जुलाई को खाकी रिसाला ने दिल्ली रोड पर स्थित सीकरी गांव पर हमला कर दिया।मेरठ के तत्कालीन कमिश्नर एफ0 विलियमस् की शासन को भेजी रिपोर्ट के अनुसार गुर्जर बाहुल्य गाँव सीकरी खुर्द का संघर्ष पूरे पाँच घंटे चला और इसमें 170 क्रान्तिकारी शहीद हुए।
17 जुलाई को खाकी रिसाला ने बागपत के पास बासोद गांव पर हमला किया। डनलप के अनुसार बासौद में लगभग 150 लोग मारे गये। 18 जुलाई को खाकी रिसाला ने चौधरी शाहमल सिंह पर हमला किया गया।इस लडाई में करीब 200 भारतीय शहीद हुए। जिनमें बाबा शाहमल भी थे।22 जुलाई को खाकी रिसाला सरधना के पास अकलपुरा पहुँच गया।क्रान्तिकारी नरपत सिंह के घर के आस-पास मोर्चा जमाए हुये थे। परन्तु आधुनिक हथियारों के सामने वे टिक न सकें। गांव मे जो भी आदमी मिला अंग्रेजो ने उसे गोली से उडा दिया। नरपत सिंह सहित सैकडो क्रान्तिकारी शहीद हो गए।
अंग्रेजों ने दिल्ली की क्रांतिकारी सेना को गंगा-यमुना के मध्य मेरठ से दिल्ली के बीच से मिलने वाली सहायता की हर सम्भावना को ध्वस्त करने का प्रयास किया।
इन घटनाओं के बाद राव कदम सिंह ने परीक्षतगढ़ छोड दिया और बहसूमा में मोर्चा लगाया, जहाँ गंगा खादर से उन्होने अंग्रेजो के खिलाफ लडाई जारी रखी।
18 सितम्बर को राव कदम सिंह के समर्थक क्रान्तिकारियों ने मवाना पर हमला बोल दिया और तहसील को घेर लिया। खाकी रिसाले के वहाँ पहुचने के कारण क्रान्तिकारियों को पीछे हटना पडा। 20 सितम्बर को अंग्रेजो ने दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। हालातों को देखते हुये राव कदम सिंह एवं दलेल सिंह अपने हजारो समर्थको के साथ गंगा के पार बिजनौर चले गए जहाँ नवाब महमूद खान के नेतृत्व में अभी भी क्रान्तिकारी सरकार चल रही थी। थाना भवन के काजी इनायत अली और दिल्ली से तीन मुगल शहजादे भी भाग कर बिजनौर पहुँच गए।
अब हम पुनः अपने पाठकों को दिल्ली की ओर ले चलते हैं तथा 14 जुलाई के बाद से दिल्ली में क्रांतिकारी सेना की पराजय तक के घटनाक्रम का अध्ययन करते हैं-
दिल्ली के लालकिले की प्राचीर पर लगीं तोपों से क्रांतिकारी सेना तथा रिज पर लगी तोपों से अंग्रेजी सेना की ओर से लगातार गोलीबारी हो रही थी। भारत की अलग-अलग छावनियों से बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की बटालियन दिल्ली पहुंच कर क्रांतिकारी सेना में मिलती जा रही थी।इसी क्रम में 14 अगस्त सन् 1857 को अफगानिस्तान बार्डर पर तैनात एक बहादुर अंग्रेज अधिकारी जान निकलसन करीब चार हजार गोरे सैनिकों के साथ रिज पर पहुंच गया। क्रांतिकारी सैनिकों ने रिज पर फिर जोरदार हमला किया। परन्तु अंग्रेजों की सेना ऊंचाई पर होने के कारण क्रांतिकारी सेना को कोई सफलता नहीं मिली।25 अगस्त को निकलसन ने नजबगढ़ गढ़ में मोर्चा लगाये क्रांतिकारी सेना पर जोरदार हमला किया।इस हमले में क्रांतिकारी सेना को नजबगढ़ से पीछे हटना पड़ा।निकलसन ने हाथ आये क्रांतिकारी सैनिकों को मार डाला।सर जॉन लोरेंस नाम के एक अधिकारी ने निकलसन को पत्र लिखकर कहा कि बागी सैनिकों का पहले कोर्ट मार्शल होना चाहिए,ऊनकी लिस्ट बननी चाहिए तब सजा देनी चाहिए।इस पत्र के पीछे निकलसन ने एक लाइन लिखकर पत्र वापस भेज दिया, जिसमें लिखा था कि प्रत्येक बागी की एक ही सजा है और वो है मोत।इस समय रिज पर तैनात तीनों अंग्रेज अधिकारी निकलसन,होडसन व मेटकाफ एक मत हो गये थे। आर्क डेल विल्सन के नेतृत्व में अंग्रेजों की सेना लड़ रही थी। क्योंकि अंग्रेजों के पास बडी तोपें नही थी इसलिए दिल्ली के अंदर घुसने का मार्ग नहीं बन पा रहा था। सितंबर सन् 1857 को पंजाब से बडी तोपें गोरी सेना के पास पहुंच गयी।6 सितंबर व 8 सितंबर को गोरी सेना ने बडी तोपों से क्रांतिकारी सेना पर जोरदार हमला किया तथा दिल्ली में घुसने का प्रयास किया। परंतु क्रांतिकारी सेना ने यह प्रयास विफल कर दिया तथा गोरी सेना को पीछे धकेल दिया।अब अंग्रेजों ने 50 तोपों से भारी गोलीबारी की जिसमें 300 के करीब क्रांतिकारी सिपाही शहीद हो गए।14 सितंबर को निकलसन के नेतृत्व में क्रांतिकारी सेना पर जबरदस्त हमला किया गया, क्रांतिकारी सैनिकों ने काबुल गेट के बाहर किशनगंज में भारी युद्ध किया। दोनों पक्ष अपनी-अपनी ओर से सर हथेली पर रखकर लड़े।सर जान चर्च पर अधिकार को लेकर भयानक युद्ध हुआ जिसमें 1170 अंग्रेज सैनिक मारे गए। अंग्रेज अधिकारी निकोलसन घायल हो गया। इस संघर्ष में इतने अंग्रेज अधिकारी मारे गए कि अंग्रेज सैनिकों को यह भ्रम होने लगा कि उनका अधिकारी कौन है।
16 सितंबर को अंग्रेजों का पुनः उस मेगज़ीन पर अधिकार हो गया, जिसे 11 मई को क्रांतिकारी सैनिकों ने कब्जाया था।16 सितंबर की को ही सेनापति बख्त खां बादशाह से मिला।बख्त खां ने कहा कि अब दिल्ली हमारे अधिकार से निकलने वाली है अतः हमें एक स्थान पर लड़ने के बजाय खुलें मैदान में बाहर लडना चाहिए। हमें शत्रु के सामने आत्मसमर्पण नहीं करना चाहिए।बख्त खां ने बादशाह को अपने साथ चलने के लिए कहा। परन्तु बादशाह डरा हुआ,हताश और निराश था, जिस वीरता की इस समय आवश्यकता थी वह तो उसमें दूर-दूर तक नहीं थी। बहुत से जेहादी लालकिले के नीचे इकट्ठा होने लगे, दिल्ली के आम नागरिक भी लाठी बंदूक लेकर लालकिले के सामने पहुंच गए।जिनकी संख्या करीब 70000 के करीब थी।इस भारी भीड़ को देखकर बादशाह भी अपनी पालकी में बैठकर बाहर निकल आया।शहर में हल्ला मच गया कि बादशाह बहादुर शाह जफर युद्ध के लिए मैदान में आ गया है। सामने गोरी सेना की ओर से फायरिंग चल रही थी। तभी अंग्रेज अधिकारी होडसन के जासूस हकीम एहसान अल्ला खां ने बादशाह को डरा दिया कि वो बाहर क्यो आ गये। जबर्दस्त हमला हो रहा है जान चली जायेंगी। बहादुर शाह जफर अपने जीवन में पहली बार लडने निकला था, करीब तीन घंटे में बिना लड़े ही वापस किले में चला गया।शहर में फिर हल्ला मच गया कि बादशाह भाग गया। दिल्ली में भगदड़ मच गई। अंग्रेज अधिकारी यह देखकर हैरान रह गए,वो समझ गये कि दिल्ली ने हार मान ली है।16 सितंबर की रात को 11 बजे बादशाह ने अपनी पुत्री कुलसुम जमानी को बुलाकर कुछ गहने व धन दिया तथा कहा कि वह अपने शोहर मिर्जा जियाउद्दीन के साथ चली जाय। यहां उसकी जान को खतरा है। कुलसुम जमानी रात को ही दिल्ली से मेरठ की ओर को निकल चली। परन्तु रास्ते में गुर्जर क्रांतिकारी सड़कों पर लगे हुए थे। बादशाह के भागने की खबर से ये सब कुपित थे।जब बादशाह की लड़की को भागते देखा तो इन्होंने कुलसुम जमानी से सारा धन छिन लिया।
17 सितंबर को सूरज निकलने से पहले ही बहादुर शाह जफर लालकिले से अपने भरोसे के नोकरो के साथ निकल लिया।वह साथ में कुछ सामान भी ले रहा था।वह कश्ती में बैठकर यमुना नदी के पुराने किले के घाट की ओर उतरा तथा शहाजहानाबाद से तीन मील दूर दक्षिण में ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर पहुंचा। उसने वह सामान वहीं रख दिया।इस सामान में पैगम्बर साहब की दाढ़ी के तीन पवित्र बाल भी थे जो तेमूरी खानदान की विरासत के रूप में उसे मिले थे। इसके बाद बादशाह अपने महरोली के महल की ओर चल दिया जहां बख्त खां से उसकी मुलाकात होनी थी। बादशाह समझ रहा था कि उसे किसी ने नही देखा है परन्तु होडसन के जासूस उसके पीछे ही थे। बादशाह के रिश्तेदार इलाही बख्श बादशाह के पास पहुंच गया, उसने बादशाह को बताया कि वह दिल्ली के बाहर न जाय, दिल्ली के सब रास्तों पर गुर्जरों ने कब्जा कर रखा है।वे उसके साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे जैसा अब तक अंग्रेजों के साथ किया है। लेकिन बादशाह ने उसकी बात नहीं सुनी तथा चलता रहा। इलाही बख्श ने बादशाह को बताया कि बेगम जीनत महल का होडसन के साथ समझौता हो गया है।उसकी जान को कोई खतरा नहीं है। बेगम निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में उसका इंतजार कर रही है। अब बादशाह रुक गया।वह बेगम जीनत महल को साथ लेकर हूमायू के मकबरे में चला गया। अब बादशाह एक तरह से होडसन का बंदी बन चुका था।जिसकी उसे भनक तक नहीं थी।18 सितंबर को अंग्रेजों ने जामा मस्जिद पर अधिकार कर लिया तथा 19 सितंबर को लालकिले का घेरा डाल दिया।20 सितंबर की सुबह लालकिले पर हमला कर अंग्रेज सेना अंदर घुस गई।मेजर जनरल विल्सन दिवाने खास मे आ गया था। लालकिले में जो भी मिला गोरी सेना ने उसे मार डाला। अंग्रेज अधिकारियों ने सेना को आदेश दे दिया कि दिल्ली की पूरी सफाई कर दे। सफाई का मतलब जो भी मिले मार डाले। बूढ़े बीमार महिलाए, घायल क्रांतिकारी सिपाही जो भी मिला मार डाला गया।20 सितंबर को बख्त खां ने फिर बादशाह से साथ चलने के लिए कहा परन्तु वह नहीं माना।अब इलाही बख्श को साथ लेकर होडसन ने बादशाह को गिरफतार कर लिया तथा बेगम जीनत महल की हवेली में बंद कर दिया। बादशाह के दो शहजादे मिर्जा मुगल व खिज्र सुल्तान तथा पोता अबू बक्र अभी पकड़ें नहीं जा सके थे।जब इलाही बख्श ने देखा कि बादशाह को अंग्रेजों ने मारा नहीं तो उसने तीनों शहजादों का पता होडसन को बता दिया।होडसन ने तीनों शहजादों को हुमायूं के मकबरे से गिरफ्तार कर दिल्ली ले जाकर लालकिले के सामने उनको नंगा कर गोली से मार डाला। तीनों के शव थाने के सामने तीन दिन तक पडे रहे। तीन दिन बाद शवों को उठाकर यमुना के तट पर फैंक दिया।
21 सितंबर सन् 1857 को अंग्रेज अधिकारियों ने दिल्ली पर विजय की अधिकारिक घोषणा कर दी। क्रांतिकारी सेना पराजित हो चुकी थी बादशाह गिरफ्तार हो चुका था,अब तो अंग्रेजों को चारों ओर शांति स्थापित करनी थी।
गवर्नर जनरल लार्ड केनिंग ने उदारता दिखाते हुए कहा कि जो हथियार डाल देगा, उसके साथ न्याय होगा। परन्तु उनकी यह घोषणा एक राजनीतिक घोषणा हो कर रह गई। अंग्रेजी सेना ने उसका पालन नहीं किया। खुद लार्ड केनिंग ने अपने पत्र में रानी विक्टोरिया को भारतियों पर किए गए अत्याचारों के विषय में लिखा।
दिल्ली में क्रांतिकारियो की हार के पश्चात अब पुनः पाठको को मेरठ की ओर ले चलते हैं। जहां राव कदम सिंह संघर्ष कर रहे थे। इन परिस्थितियों में राव कदम सिंह तथा उनके सहयोगियों ने निर्णय लिया कि अंतिम सांस तक संघर्ष किया जायेगा। अंजाम चाहें जो हो। अंग्रेजों की सेना ने परिक्षत गढ़ के किले को जमींदोज कर दिया।
राव कदम सिंह एवं दलेल सिंह अपने हजारो समर्थको के साथ गंगा के पार बिजनौर चले गए जहाँ नवाब महमूद खान के नेतृत्व में अभी भी क्रान्तिकारी सरकार चल रही थी।
राव कदम सिंह आदि के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने बिजनौर से नदी पार कर कई अभियान किये। उन्होने रंजीतपुर मे हमला बोलकर अंग्रेजो के घोडे छीन लिये। 5 जनवरी 1858 को नदी पार कर मीरापुर मुज़फ्फरनगर मे पुलिस थाने को आग लगा दी। इसके बाद हरिद्वार क्षेत्र में मायापुर गंगा नहर चौकी पर हमला बोल दिया। कनखल में अंग्रेजो के बंगले जला दिये। इन अभियानों से उत्साहित होकर नवाब महमूद खान ने कदम सिंह एवं दलेल सिंह आदि के साथ मेरठ पर आक्रमण करने की योजना बनाई परन्तु उससे पहले ही 28 अप्रैल 1858 को बिजनौर में क्रान्तिकारियों की हार हो गई और अंग्रेजो ने नवाब को रामपुर के पास से गिरफ्तार कर लिया। उसके बाद बरेली मे मे भी क्रान्तिकारी हार गए। कदम सिंह एवं दलेल सिंह का उसके बाद क्या हुआ कुछ पता नही चलता।
लोक मृत्यु भी मृत्यु ही मानी गई है। अतः 28 अप्रैल सन् 1857 को हम किला-परिक्षत गढ़ के अंतिम राजा राव कदम सिंह तथा उनके सहयोगियों का बलिदान दिवस मान सकते हैं।
राव कदम सिंह व उनके साथियों को शत् शत् नमन।
समाप्त
संदर्भ ग्रंथ
1-डा दयाराम वर्मा- गुर्जर जाति का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास।
2–डा मोहन लाल गुप्ता-लाल किले की दर्द भरी दास्तां(यू-टयूब-164,165,167,168,189 -193,197 -202,204-212)
3- डा सुशील भाटी- मेरठ के क्रांतिकारियों का सरताज राव कदम सिंह।

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