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कविता

कोरोना बनाम मधुशाला

कोरोना बनाम मधुशाला

जिनके घर में खाने के भी लाले पड़े हुए हैं।
भूखे बच्चे बीवी बाबा साले पड़े हुए हैं।
साकी की यादों पर पहरा झेले थे जो कल तक-
मधुशाला में आज वही मतवाले पड़े हुए है।।

जिनके घर के चुल्हे भी बेबस आँसू रोते हैं।
औरों की रहतम पर खाते या भूखे सोते हैं।
आज जिंदगी है ऐसी, पर जाने हो कैसी कल-
मधुशाला में अक्सर ऐसे सज्जन भी होते हैं।।

मधुशाला सरकार खोलती और निषेध कराती।
मधुशाला के कारण ही बनती अथवा गिर जाती।
सरकारों को खुद की चिंता और हमें है उनकी-
जो कुत्तों ज्यों हमें पिलाती,फिर डंडे बरसाती।।

लोकतन्त्र में भी हमने,सात दशक जीकर देखा।
सरकारी छल छद्म रसों,को भी तो पीकर देखा।
फिर कोरोना का तांडव,कैसे हम भूलें बोलो-
मधुशाला में घावों को खोला,फिर सीकर देखा।।

कब तक वोट-मोहरें बनकर, हम यूँ मौन रहेंगे?
कुछ लोगों के अपराधों को अपने माथ गहेंगे?
कोरोना का कहर निरन्तर बढ़ता ही जाएगा-
जबतक मधुशाला को,अपना दुश्मन नहीं कहेंगे।

डॉ अवधेश कुमार अवध 8787573644

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