एक्सक्लुसिव : गंगा जल के ब्रह्म द्रव्य को लेकर बड़ा अन्वेषण : प्रख्यात पर्यावरणविद एवं विज्ञानवेत्ता प्रभु नारायण द्वारा अपनी पुस्तक ‘दी रिवर गंगा’ में विशेष अन्वेषण का उल्लेख

………………………………….
★ गंगाजल के ब्रह्म द्रव्य का रहस्य आकाशीय सीमाओं में निहित………………………………………….
राकेश छोकर / नई दिल्ली
…………………………………………..
सदियों से रहस्य बना रहा है कि आखिर गंगाजल स्वयं अपने आप में विशेष क्यों है ? इस पर कई वैज्ञानिक संगठनों ने अपने अपने ढंग से अनुसंधान किया है, जिसमें विश्व के कई अन्य देशों के वैज्ञानिक संगठन भी शामिल हैं। प्रख्यात पर्यावरणविद एवं विज्ञान वेत्ता प्रभु नारायण के अनुसार इन्हीं संगठनों में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का “नेशनल साइंस फाउंडेशन ” भी है, जिसने गंगाजल के नहीं सड़ने के कारण विज्ञान एवं धर्म के आंतरिक संबंधों को लेकर सन 2004 से 2007 के बीच लगभग 700000 अमेरिकी डॉलर खर्च किया तथा इस पर टेलीविजन रिपोर्ट से लेकर पुस्तक भी तैयार किए गए। इस संदर्भ में जूलियन क्रेन डॉल होलिक्स की पुस्तक “गंगा” शीर्षक से अंग्रेजी में प्रकाशित है, जो पठनीय है, इस संदर्भ में भारत सरकार के सीएसआईआर अंतर्गत नागपुर स्थित “नेशनल एनवायरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट “अर्थात “नीरी” ने भी कई अनुसंधान किए हैं। भारत सरकार के गंगा संबंधित मंत्रालय सन 2015 में यथा दिनांक 16 नवंबर को सुश्री उमा भारती की अध्यक्षता में नई दिल्ली स्थित विश्व विख्यात अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में देश के जाने माने वैज्ञानिक संस्थाओं के 150 से ज्यादा वैज्ञानिकों की बैठक हुई थी और “नेशनल एनवायरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट” के वैज्ञानिक डॉ कृष्णा खैरनार की अध्यक्षता में वैज्ञानिकों की एक कमेटी गठित की गई थी। जिसमें सिविल इंजीनियर माइक्रोबायोलॉजिस्ट , बोटैनिस्ट, वायरोलॉजिस्ट, बायोटेक्नोलॉजिस्ट इत्यादि शामिल किए गए। एनडीटीवी , हिंदुस्तान टाइम्स तथा विभिन्न अखबारों के रिपोर्टिंग के अनुसार भारत सरकार ने 150 करोड़ रुपए उपलब्ध कराए हैं। इस साइंटिफिक कमेटी का उद्देश्य गंगा के “ब्रह्म द्रव्य” के रहस्य के कारणों को जुटाना था। लगभग 1 वर्ष तक जिन नामचीन संगठनों ने इस संयुक्त अभियान में भाग लिया, उनका उल्लेख करना यहां अनिवार्य होगा। नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के साथ इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के अनुसंधान करता, आईआईटी कानपुर एवं आईआईटी रुड़की, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय ,नेशनल बोटैनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट लखनऊ, सीएसआईआर से संबंधित चंडीगढ़ स्थित प्रख्यात संस्थान इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबायोलॉजी टेक्नोलॉजी चंडीगढ़ के साथ नीरी नागपुर शामिल था। जिसका मुख्य उद्देश्य दुनिया के अन्य नदियों की अपेक्षा गंगाजल में विशेष गुणों का पाया जाना। इस संदर्भ में विगत 100 वर्षों में कई अनुसंधान दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने किया है और कई दलीलों में जो सबसे महत्वपूर्ण दलील यह है कि गंगा नदी की जल में हिमालय की जड़ी बूटियों के प्रवाह क्षेत्र में पड़ने के कारण वह विशेष गुण विषाणु खात्मा कर शुद्धीकरण करता है। कुछ वैज्ञानिकों ने गंगा प्रवाह क्षेत्र अर्थात रिवर बेड में भी उन गुणों का पाया जाना बताया है। तीसरा कुछ वैज्ञानिकों का कथन है कि गंगाजल में बैक्टीरियोफेज का पाया जाना है। इस विषय पर अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन तथा कई अन्य देश के वैज्ञानिकों का कथन है कि विश्व की सभी नदियों में कमोबेश मिलते हैं और यह हाल के वर्षों में सृजित शब्द मात्र है। उपरोक्त वर्णित विषय पर समिति द्वारा लगभग दो करोड़ रुपए खर्च करने के बाद सिर्फ यह जाना जा सका है कि प्रवाह क्षेत्र में आने वाले कौन-कौन से औषधीय वृक्ष और पौधे हैं ,जिनके औषधीय गुणों के कारण गंगाजल में विषाणु की नष्ट करने की क्षमता है। जैसा कि यहां यह महत्वपूर्ण रूप से उल्लेख करना आवश्यक होगा की हिमालय से लगभग 300 नदियां निकलती हैं और संपूर्ण क्षेत्र औषधीय वृक्षों एवं वनस्पति से भरा पड़ा है . गंगा से 50 किलोमीटर की दूरी पर यमुना नदी का उद्गम है ,लेकिन ,गंगा नदी की विशेषता यमुना नदी के जल प्रवाह में नहीं है।

सीएसआईआर – नीरी द्वारा भारत सरकार को हाल में सौपे गए गए 300 पृष्ठों के रिपोर्ट में सर्वप्रथम जिस वैज्ञानिक का उल्लेख मिलता है वह है आईआईटी रुड़की के हाइड्रोलॉजी विभाग के डॉ देवेंद्र स्वरूप भार्गव जिनका मानना है की गंगा नदी में विश्व के अन्य नदियों की अपेक्षा 25% ऑक्सीजन की अधिकता ही गंगाजल की विषाणु को अल्प समय में नष्ट कर देती है। यही पटना विश्वविद्यालय से संबद्ध संस्थान के वैज्ञानिक डॉक्टर एसएन सिन्हा द्वारा 2018 में किए गए अनुसंधान में भी परिलक्षित होता है। लेकिन यह 25% अतिरिक्त ऑक्सीजन गंगा नदी को ही क्यों प्राप्त होता है ,डॉ भार्गव के अनुसार विज्ञान का यही सबसे बड़ा रहस्य है। इस संदर्भ में सामान्य विचार यह है कि गंगा बहुत ही उच्च क्षेत्र से निम्न क्षेत्र में प्रवाहित होती है , यही अतिरिक्त ऑक्सीजन का कारण है। फिर तो और भी कई नदियां हिमालय की उच्चतम शिखरों से प्रवाहित होती है और उनमें भी वही गुण होना चाहिए था। लेकिन यह विरोधाभासी प्रतीत होता है और इस संदर्भ में स्वयं ” नीरी” के वैज्ञानिकों की ओर से विरोधाभासी बयान आते रहे हैं। इस संदर्भ में अक्टूबर 2014 में प्रधानमंत्री भारत सरकार को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन केंद्र के एक वरिष्ठ प्रोफेसर ने जो भारत में सुनामी साइक्लोन तथा लैंडस्लाइड के विशेषज्ञ ही नहीं हैं बल्कि गंगा यमुना जल के शुद्धिकरण के विज्ञान पर भी कार्य किया है ,उन्होंने एक अनुसंधान पत्र के हवाले से प्रधानमंत्री जी को एक राष्ट्रीय परामर्श समिति गठित करने हेतु पत्र लिखा था, बाद में बाबा रामदेव के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण जी के परामर्श पर वह अनुसंधान पत्र नीरी को सौंप दिया गया था। इस रिसर्च के आधार पर दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में विशेष बैठक हुई लेकिन जिसका पत्र में उल्लेख था उसे ही नहीं बुलाया गया।
………..
विशेष
……..गंगाजल के प्रवाह तंत्र में ऑक्सीजन का पाया जाना दुनिया के अन्य नदियों की अपेक्षा एक रहस्य बना हुआ था ।लेकिन अभी इस संदर्भ में प्रख्यात पर्यावरणविद एवं विज्ञान वेत्ता प्रभु नारायण द्वारा लिखित “द रिवर गंगा” नामक अन्वेषणीय पुस्तक भी आ गई है जिसके द्वारा इस रहस्य से वाकई में पर्दा उठा हुआ प्रतीत हो रहा है, वह यह कि हिमालय क्षेत्र के कुछ विशेष क्षेत्रों में बहुत ही शक्तिशाली आकाशीय विद्युत पैदा होता है ,जो क्लाउड को आयोनाइज करता है और ऑक्सीजन को ओजोन में परिवर्तित करता है। आयन मंडल के ऊपर माइनस 273 डिग्री सेंटीग्रेड पर ऑक्सीजन लिक्विड ऑक्सीजन में बदल जाता है और कालांतर में “ग्राउपेल “के रूप में हिमालय क्षेत्र पर वापस लौटता है । सूर्य की रोशनी पाकर वह पिघल कर गंगाजल के प्रवाह तंत्र में शामिल हो जाता है.। यह खोज प्रख्यात पर्यावरणविद एवं विज्ञान वेता प्रभु नारायण ने 2012 में कर लिया था। अब यह पुस्तक के रूप में अभी अभी आई है जिसमें आश्चर्यजनक वैज्ञानिक कारणों का उल्लेख मिलता है। जो यह एहसास कराता है कि गंगाजल में विषाणु को नष्ट करने की क्षमता जड़ी बूटियों में निहित ना होकर, आकाश की सीमाओं में निहित है । यह पुस्तक चर्चा का विषय ही नहीं अपितु गंगा नदी के ब्रहम द्रव्य को लेकर बहुत ही गहन चिंतन मंथन को भी विवश करती है।इस संदर्भ मेंअभी तक वैज्ञानिक शोधकर्त्ताओं की कसौटियों पर भी सोचने को बाध्य करती हैं।

Comment: