हमारे कुछ हिन्दू भाइयों को स्वामी दयानंद से एक शिकायत रहती हैं कि स्वामी जी को हिन्दू समाज कि आस्था का खण्डन नहीं करना चाहिए था। स्वामी जी उद्देश्य किसी कि आलोचना अथवा विरोध नहीं था अपितु जो कुछ भी सत्य हैं उसका मंडन और जो कुछ भी असत्य हैं उसका खंडन था। स्वामी जी से पूर्व भी अनेक आचार्यों ने समाज में सुधार कि अपेक्षा से असत्य का खंडन किया था जैसे आदि शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, संत कबीर, संत दादू, समर्थ गुरु रामदास, गुरु नानक आदि। हिन्दू समाज में गीता को विशेष मान प्राप्त हैं। कुरुक्षेत्र में महाभारत के युद्ध में अर्जुन के विचलित मन को ज्ञानामृत से तृप्त कर, अर्जुन कि पिपासा को शांत करने वाले महान श्री कृष्ण जी महाराज ने गीता में स्पष्ट रूप से पाखंड का पुरजोर खंडन किया हैं।
गीता के १६/४ श्लोक में श्री कृष्ण जी कहते हैं ” पाखंड, घमंड, अभिमान, क्रोध, कठोरता तथा अज्ञान असुरी सम्पत अर्थात बंध का कारण हैं जबकि इसी अध्याय के १६/१-३ श्लोक में अभय, अंतकरण कि शुद्धि, ज्ञान, योग, दान, दम, स्वाध्याय, तप, ऋजुता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति, चुगली न करना, प्राणियों पर दया, लोलुपता का अभाव, कोमलता, चपलता का अभाव, तेज, क्षमा, धृति, शौच, अद्रोह और निरभिमान दैवी सम्पत अर्थात मोक्ष का कारण हैं।
गीता का पाठ करने वाले तो बहुत हैं। गीता कि पोथी बगल में दबाने वाला, गीता कि कथा सुनाने वाला, गीता सुनने वाला, गीता रटने वाला, गीता का प्रचार करने वाला, गीता बाँटने वाला, गीता लिखकर उसका लॉकेट गले में टांगने वाले तो बहुत हैं पर गीता के इस सन्देश को जीवन में धारण करने वाले विरले ही मिलेगे।
जिसने असुरी सम्पत को त्याग कर देवी सम्पत को नहीं अपनाया, उसकी बेड़ियाँ कभी नहीं कटेगी? संसार के प्रत्येक भाग में पाखंड हैं। पाखंडी नेता, पाखंडी गुरु, पाखंडी ब्राह्मण, पाखंडी वैश्य, पाखंडी कर्मचारी। सभी असुरी मार्ग के अनुयायी हैं। स्वामी दयानन्द का उद्देश्य इसी असुरी सम्पत का खंडन और देवी सम्पत का मंडन था।
गीता में पाखंड का स्पष्ट खंडन हमें अपने अंतर्मन कि शुद्धि, ज्ञान कि शुद्धि, कर्म कि शुद्धि, आचार कि शुद्धि, व्यवहार कि शुद्धि के प्रेरणा दे रहा हैं। पाठक स्वयं विचार करे कि स्वामी दयानंद श्री कृष्ण जी महाराज के उपदेश को यथार्थ करने का ही उपदेश तो दे रहे हैं।
डॉ विवेक आर्य

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