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स्वर्णिम इतिहास

जब वेदों को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित कराने की महर्षि दयानंद ने की थी मांग

सभी मतावलंबियों को एक मंच पर आकर देश के लिए काम करने का आवाहन करने वाले महर्षि पहले व्यक्ति थे

1857 की क्रांति के 20 वर्ष पश्चात दिल्ली में एक दरबार का आयोजन 1877 में किया गया। महर्षि दयानंद ने 1857 की क्रांति के समय रह गई चूकों को दूर करने के उद्देश्य से 1877 केस दिल्ली दरबार में मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए यह प्रस्ताव किया था कि हम सभी वेद को अपना ‘राष्ट्रीय ग्रंथ’ घोषित करें । जिससे कि हमारे भीतर आ गई दुर्बलता को दूर किया जा सके और राष्ट्र व धर्म को अन्योन्याश्रित बनाए रखने की भारतीय परंपरा का सुचारू रूप से निर्वाह होता रहे । तनिक कल्पना करें कि महर्षि दयानंद वेदों को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित कराने की मांग उस समय कर रहे थे जब क्रूर अंग्रेजी शासन इस देश की सारी समस्याओं का समाधान बाईबिल के माध्यम से करने पर उतारू था । उस समय ऐसी मांग करना शेर के मुंह में अपना सिर रखने के बराबर था और हमारा मानना है कि ऋषि दयानंद को संखिया देकर मारने वाला तो केवल एक मुखौटा था पीछे से महर्षि के वही शत्रु उन्हें मारने के षड्यंत्र में सम्मिलित थे जो उन्हें वेदों को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने जैसे कामों के कारण भारत में अपना शत्रु नंबर 1 मानते थे।

महर्षि दयानंद को दिल्ली दरबार के नाम से आयोजित किए गए इस समारोह में महाराजा इंदौर के विशेष प्रयासों से मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था। महाराजा इंदौर ने यह प्रस्ताव केवल इसलिए रखा था कि वह जानते थे कि जब महर्षि दयानंद राष्ट्र धर्म पर बोलेंगे तो सोए हुए राजाओं की नींद खुल जाएगी ।
महर्षि दयानंद के द्वारा वेदों को ‘राष्ट्रीय ग्रंथ’ घोषित कराने की रखी गई यह मांग सचमुच बहुत दूरगामी सोच का परिणाम थी। उन्होंने देख लिया था कि 1857 की क्रांति की असफलता का एक कारण यह भी था कि लोगों में राक्षस बने शासकों का विरोध करने का उतना जज्बा नहीं था जितना वैदिक चिंतन के अनुसार होना चाहिए । इसलिए अब उनकी दृष्टि में यह आवश्यक हो गया था कि दुष्ट राजाओं का विरोध करने के लिए यदि देशव्यापी जन आंदोलन चलाना है तो वेद को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित कराना ही पड़ेगा । यही कारण रहा कि 1857 की क्रांति के मात्र 20 वर्ष पश्चात ही उन्होंने वेदों को ‘राष्ट्रीय ग्रंथ’ घोषित कराने की महत्वपूर्ण मांग रखी । महर्षि दयानंद ने इसके लिए मंच भी वह चुना जिसमें देश के अधिकांश राजा महाराजा उपस्थित थे । इससे पता चलता है कि वह देश की राजनीतिक व्यवस्था को लेकर भी कितने गंभीर थे और उसका उपचार भी वह वेदों के माध्यम से ही चाहते थे। इसी मंच से महर्षि दयानंद ने कॉन्ग्रेस के जन्म से 8 वर्ष पूर्व पहली बार देश के सभी मतावलंबियों से यह अनुरोध किया था कि राष्ट्र के लिए काम करने का संकल्प लेकर सब एक मंच पर एक साथ आएं और देश की आजादी के लिए काम करें। जो लोग महर्षि दयानंद को अन्य मतावलंबियों का विरोधी सिद्ध करते हैं उन्हें महर्षि दयानंद के इस प्रयास को भी देखना चाहिए।

महर्षि दयानंद ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के लेखन और आर्य समाज की स्थापना के तुरंत पश्चात राष्ट्र निर्माण के लिए वेदों को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित कराने की अपनी नवीन योजना पर कार्य आरंभ किया था। यदि वह रहते तो निश्चय ही अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति करते और यदि वेद राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित हो जाते तो हमारे देश की अनेकों समस्याओं का समाधान भी अब तक हो गया होता । देश का यह दुर्भाग्य रहा कि उस दरबार में जितने भर भी नेता , राजा – महाराजा सम्मिलित हुए थे वे अपनी-अपनी संकीर्णओं से निकल नहीं पाए, अन्यथा बहुत शीघ्र ही महर्षि दयानंद1857 की दूसरी क्रांति की भूमिका तैयार कर देते अर्थात भारत के स्वतंत्रता का बिगुल क्रांतिकारी ढंग से फूँक देते ।
देश के राष्ट्रवादियों से आज भी अपेक्षा है कि वे महर्षि दयानंद की आवाज को बुलंद करें और वेदों को भारतवर्ष के राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित कराने की मांग सरकार से अपने अपने स्तर पर करें । आर्य समाज का नेतृत्व इस समय जूतमपैजार में व्यस्त है । स्वार्थी , पदलोलुप और भ्रष्ट लोगों ने आर्य समाज पर कब्जा कर लिया है। इसलिए उनसे ऐसी कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती पर वे लोग इस काम के लिए आगे आ सकते हैं जो वेदों को अपना आदर्श मानते हैं और छद्म धर्मनिरपेक्षता की नीति को इस देश के लिए घातक मानते हैं । ऋषि के मिशन को पूरा करना ही हम सबका लक्ष्य होना चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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