शांता कुमार
गतांक से आगे…
परिणाम यह हुआ कि सब के सब पुलिस के हाथ आ गये और लगभग 23 प्रमुख क्रांतिकारी जेल के सींखचों में बंद कर दिये गये। इनमें से जयगोपाल तथा हंसराज बोहरा पुलिस की यातनाओं से आतंकित होकर तथा क्षमा मिलने के लालच में मुखबिर बन गये। सांडर्स हत्या तथा बम काण्ड के पीछे की सारी विस्तृत योजना, जिसके लिए पिछले कई वर्षों से सरकार अपना सिर पटक रही थी, इन मुखबिरों ने अदालत में उगल दी। उसी के अनुसार सांडर्स की हत्या में भगत सिंह का हाथ बताया गया और अभियोग चलाने के लिए पुलिस उसे दिल्ली से लाहौर ले आई। इस षडयंत्र में कुल मिलाकर 32 लोग अपराधी घोषित किये गये। उनमें से 7 सरकारी गवाह बन गये। 9 भागे हुए थे और शेष 16 पर अभियोग चला।
इसके बाद जेल में बंदियों के उचित अधिकारों की प्राप्ति के लिए विकट संघर्ष आरंभ हुआ। बंदियों ने लंबे अनशन आरंभ किये। इसी संघर्ष में यतीन्द्रनाथ 62 दिन की भूख हड़ताल के बाद तेरह दिसंबर को सरकारी नौकर नौकरशाही के माथे पर कलंक का टीका लगाते हुए इस संसार से चल बसे। भगत सिंह आदि ने भी 62 दिन के लंबे अनशन मिलने पर अन्न ग्रहण किया। आश्वासन पूरे न हुए, इसलिए बंदियों ने फिर भूख हड़ताल शुरू कर दी।
इन अनशनों के कारण न्यायालय में अभियोग की कार्यवाही चलनी कठिन हो गयी थी। अब भगत सिंह आदि ने सरकार के अमानवीय व्यवहार के विरोध में अदालत का बायकाट कर दिया। तब वायसराय के विशेष आदेश द्वारा लाहौर षडयंत्र का मुकदमा इस अदालत से हटाकर एक ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया। उस ट्रिब्यूनल को अभियुक्तों की अनुपस्थिति में भी कार्य करने तथा निर्णय देने का अधिकार दिया गया। अदालत में अभियुक्त नही, उनके वकील भी नही, पर मुकदमा चलता रहा। न्याय की देवी की यह क्रूर हत्या, न्याय के नाम पर यह महान अत्याचार तथा न्याय के इस ढंग द्वारा भारत माता के 16 पुत्रों के भाग्य का निर्णय इतिहास के पृष्ठों पर ब्रिटिश न्याय पद्घति के माथे पर एक कलंक बनकर रहेगा। सभ्यता की डींग हांकने वाले इन असभ्य पशुओं ने कितनी कठोरता से भारतीय भूमि पर न्याय का गला घोंटा, यह बात इतिहास कभी न भूलेगा।
अभियुक्तों को बिना कुछ कहने सुनने का अवसर दिये उनकी अनुपस्थिति में ही 7 अक्टूबर 1930 को निर्णय सुना दिया गया। भगत सिंह, राजगुरू व सुखदेव को फांसी की सजा हुई। तीन छोड़ दिये गये, सात को आजीवन कारावास तथा दो को 7 वर्ष की सजा हुई। लाहौर षडयंत्र का निर्णय 400 पृष्ठों में था और उसकी एक प्रति 225 रूपये में बिकी।
भारत के करोड़ों लोगों ने इस निर्णय के विरूद्घ जलसे, जुलूस तथा प्रदर्शनों द्वारा अपने हृदय का क्षोभ प्रकट किया। सारे देश में निराशा की काली घटाएं छा गयीं। इस निर्णय के पांच दिन बाद ही लंदन में गोलमेज कांफ्रेंस हुई औ उसमें इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ने बड़ी सदभावना से यह घोषणा की कि यदि कांग्रेस सहयोग दे तो भारत को औपनिवेशिक राज्य प्रदान किया जा सकता है। अंग्रेजी सरकार भारत में होने वाली उथल पुथल तथा बमों के धमाकों से उत्पन्न असंतोष को दूर करके सहानुभूति का वातावरण बनाना चाहती थी। इसी आधार पर 10 फरवरी 1930 को महात्मा गांधी छोड़ दिये गये और लार्ड इरविन के साथ बड़े शांत वातावरण में बातचीत शुरू हुई।
डा. सीतारामैयाने अपने कांग्रेस के इतिहास में इस बात को स्वीकार किया है कि उस समय भारत में भगत सिंह तथा उसके साथी महात्मा गांधी से कम प्रसिद्घ न थे। जनता को यह विश्वास था कि इस सहानुभूति के वातावरण का लाभ उठाकर गांधीजी अपनी बातचीत की सबसे पहली शर्त भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की फांसी को हटाने के रूप में करेंगे और यह लगता था कि उस अवस्था में इन तीनों क्रांतिकारियों के प्राण बच जाएंगे। परंतु भारत के करोड़ों लोगों की आशाओं पर वज्रपात हुआ, जब गांधीजी ने कहा, मैं इन हिंसावादियों की सजा कम करने की मांग को नीच समझता हूं। लोगों की रही सही आशा पर पानी फिर गया।
आज इस कलम को इतिहास की एक कड़वीं सच्चाई लिखने पर विवश होना पड़ा है। परंतु सच्चाई सच्चाई है। महान गांधी के महान व्यक्तित्व, त्याग, तपस्या तथा देशभक्ति के आगे कौन नतमस्तक न होगा वे भारतमाता के एक अनन्य पुजारी थे, परंतु इस बात को इतिहास की ईमानदार लेखनी कभी लिखना न भूलेगी कि अहिंसा को अनावश्यक महत्व दिये जाने के कारण कुछ क्रांतिकारी महान देशभक्तों की उपेक्षा करने की हिमालय सी गलती महात्मा गांधी से हो गयी। इतिहास सदा एक प्रश्न पूछता रहेगा। यदि गांधीजी स्वामी श्रद्घानंद जैसी पवित्र आत्मा की हत्या करने वाले साम्प्रदायिक अब्दुल रशीद के प्राणों की भिक्षा अंग्रेजी सरकार से मांग सकते थे, तो क्या कारण था कि करोड़ों भारतवासियों के आदर और स्नेज के प्रतीक इन तीनों शहीदों की सजा कम करने की मांग वे न कर सकें।
मां के पवित्र मंदिर तक स्वातन्त्रय का अर्घ्य लेकर असंख्य पुजारी बढ़ते हैं। दूर किसी ऊंचे पहाड़ के शिखर पर कइिन कांटों भरे पथ के उस पार मां के मंदिर में जल रहा दीपक सबाक मार्गदर्शन करता है। उस मंदिर तक पहुंचने के भिन्न भिन्न मार्ग हो सकते हैं। एक साध्य के लिए अनेक साधन हो सकते हैं और एक ही मंजिल के लिए कई रास्ते भी हो सकते हैं। महात्मा गांधी के अहिंसा के मार्ग के साथ साथ क्रांतिकारी यह विश्वास करते थे कि आजादी प्राप्त करने के लिए शक्ति का उपयोग उचित ही नही अनिवार्य भी है।
क्रमश: