रामायण कालीन कुछ नारियां और उनके चरित्र

रामायण एक ऐसा ग्रंथ है जिसने न केवल भारत वासियों को बल्कि संसार के अन्य देशों के निवासियों को भी एक सुव्यवस्थित जीवन जीने के लिए प्रेरित किया है । इसमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम सहित अन्य अनेकों पात्रों की ऐसी गंभीर मर्यादानुकूल भूमिकाएं हैं कि उन्हें यदि आज का समाज स्वीकार कर ले तो संसार से कलह कटुता जैसे अनेकों रोग स्वयं ही समाप्त हो जाएंगे । इस महान ग्रंथ में अनेकों ऐसी नारियों का उल्लेख है जिनके चरित्र से हमें बहुत कुछ शिक्षा मिलती है । सीता जैसी सती साध्वी यदि इस महान ग्रंथ में है तो शूपर्णखा जैसी चरित्रहीन महिला भी है , परंतु इसके उपरांत भी शूपर्णखा का चरित्र भी ऐसा है कि उससे भी हमें आज कुछ सीखने को मिल सकता है । इस अध्याय में हम रामायण कालीन कुछ विशिष्ट नारियों के चरित्र पर सूक्ष्म प्रकाश डालेंगे ।

सीताजी

कहते हैं कि एक बार राजा जनक के टच में सूखा पड़ गया कई वर्ष तक जब वर्षा नहीं हुई तो राजा ने अपने किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए स्वयं हल चलाकर खेती करने का निर्णय लिया । संयोग की बात थी कि जिस दिन राजा ने हल चलाने का कार्य किया उसी दिन उन्हें एक पुत्री प्राप्त हुई । हल के कुंड को सीता कहा जाता है , राजा ने इस घटना की स्मृति को अपने मानस में बनाए रखने के लिए अपनी पुत्री का नाम सीता रखा । जिसे लोक प्रचलित मान्यताओं में कुछ दूसरा रूप देकर प्रस्तुत किया जाता है ।

सीता में वे भी सभी गुण थे जो एक आदर्श पुत्री , आदर्श पत्नी , आदर्श बहू और आदर्श माता या आदर्श रानी के अंदर होने चाहिए । संपूर्ण जीवन उन्होंने अपने इन आदर्श गुणों का पालन किया । चरित्र में बहुत मजबूत सीता जी कहीं भी अपने पथ से भ्रष्ट नहीं हुईं । उन्होंने सदा धर्मानुकूल आचरण संपादित किया । यही कारण है कि वह आज भी भारतीय महिलाओं की आदर्श हैं और वैदिक हिन्दू संस्कृति में आस्था रखने वाले लोग उन्हें सीता माता का सम्मान देकर पुकारते हैं। हजारों सेवक होने पर भी, सीता अपने पति श्रीराम की सेवा का स्वयं ही ध्यान रखती थीं। वह अपने पति श्री रामचंद्र जी की अनुमति से ही अपने पुत्र लव और कुश का निर्माण करने के लिए अर्थात उन्हें विद्याध्ययन और शस्त्र विद्या में पारंगत करने के लिए ऋषि आश्रम में गई थी।

कौशल्या माता

कौशल्या माता रामायण की एक ऐसी अमर पात्र हैं जिन्होंने अपने धर्म को सदा निभाने का प्रयास किया। वह अपने पति राजा दशरथ के प्रति सदैव निष्ठावान बनी रहीं । उन्होंने ही अपने पुत्र राम का निर्माण वन में जाकर किया था । उन्हें जैसे ही यह आभास हुआ था कि वह गर्भवती हो गई हैं तो उन्होंने तुरंत राजकीय भवनों को छोड़कर जंगल के सात्विक परिवेश में जाकर राम का गर्भकाल में निर्माण करने का निर्णय लिया था । उनकी तपस्या , साधना और पवित्र जीवन का ही परिणाम था कि उन्हें रामचंद्र जी जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम पुत्र की प्राप्ति हुई । जिसका नाम लोक में आज तक सम्मान के साथ लिया जाता है । यदि रामचंद्र जी का नाम हम सम्मान के साथ लेते हैं तो समझो कि हम माता कौशल्या की साधना को ही नमन करते हैं। माता कौशल्या ने केकई या किसी भी ऐसे रामायणकालीन पात्र के प्रति अपनी घृणा को कभी प्रकट नहीं किया जिन्होंने उन्हें अत्यंत कष्ट दिये थे । वह भरत के प्रति भी बहुत ही ममतामयी बनी रहीं और उसकी माता कैकई के प्रति भी सम्मानभाव प्रकट करती रहीं । उनका चरित्र आज की नारी को यही शिक्षा देता है कि विषम से विषम परिस्थिति में भी अपनी मर्यादा और अपने धर्म का पालन करना चाहिए तथा परिवार को व्यर्थ के कलह से बचाने का प्रयास करना चाहिए।

कैकेयी

कैकेयी भी रामायण की एक प्रमुख पात्र हैं । उन्होंने अपने जीवन में सबसे बड़ी गलती यह की कि मंथरा नाम की अपनी दासी के बहकावे में आकर अपने पति पर अनावश्यक दबाव बनाया । जिससेअपने पुत्र भरत को 14 वर्ष का राज्य तथा श्री राम को 14 वर्ष का वनवास दिलवा दिया । इस एक घटना ने ही कैकेयी जैसी गंभीर रानी की सारे जीवन की साधना को भंग कर दिया । इसके उपरांत उन्होंने अपने किए पर पश्चाताप भी किया । परंतु तब तक समय उनके हाथ से निकल चुका था ।

रानी कैकेयी द्वारा की गई इस एक गलती के परिणाम से ही आज की नारी को यह शिक्षा लेनी चाहिए कि ‘ मन्थरा ‘ की भूमिका निभाने वाली किसी भी अपनी दासी , पड़ोसन , मित्र या सगी संबंधी की बात में आकर अपने परिवार को नरक न बनाएं । अपने परिवार को अपने ढंग से चलाने में ही अपनी भलाई समझनी चाहिए । जो नारियां आज की किसी मन्थरा के कहने से अपने परिवार में कल का कोहराम मचाती हैं वे अपने घर को स्वयं ही नरक बनाती हैं।

शूपर्णखा

शूपर्णखा का चरित्र बहुत ही निकृष्ट दर्जे का है ।उसके चाल , चलन और चरित्र को देखकर लोग उससे घृणा करते हैं । यही कारण है कि उसका चित्र भी ऐसा बनाया जाता है जिसे देखकर ही घृणा उत्पन्न हो । उसने अपने जीवन में अनेकों पुरुषों के साथ संबंध बनाए और अनेकों लोगों के घर परिवार को नष्ट करने का काम किया । जिससे उसकी नाक आज तक कटी हुई है ।

कहने का अभिप्राय है कि लोग उसे उसके कार्यों की वजह से ही हेय दृष्टि से देखते हैं । इससे पता चलता है कि जो महिला शूपर्णखा जैसे चाल चरित्र की होगी उसको लोग अच्छी दृष्टि से नहीं देखेंगे । शूपर्णखा के साथ भी यही हुआ था कि वह अपने समय में लोगों की उपेक्षा और हेयदृष्टि का शिकार बनी थी , उसे समाज में सम्मान नहीं मिला ।

आज के परिवेश में हमें शूपर्णखा से यह शिक्षा लेनी चाहिए कि समाज में उन्हीं लोगों का या महिलाओं का सम्मान होता है जो स्वयं अपने चरित्र में मजबूत होती हैं । लज्जा नारी का आभूषण है ।लज्जाशील होकर रहने वाली नारी सर्वत्र पूजनीया होती है । जैसे सीता आदि आज भी पूजनीया है।

उर्मिला

उर्मिला रामायण का एक ऐसा पात्र है जिसके प्रति कोई भी पाठक से सहज ही श्रद्धा भाव से झुक जाता है । उर्मिला सीता की छोटी बहन एवं लक्ष्मण की पत्नी हैं। वह अपने पति लक्ष्मण के साथ वन तो नहीं गई परंतु उन्होंने जिस प्रकार से एक साध्वी और तपस्विनी का जीवन अपने पति की अनुपस्थिति में व्यतीत किया , उससे वह भी रामायण की एक अमर पात्र हो गई हैं । उनके जीवन से शिक्षा मिलती है कि पति साथ हो या ना हो परंतु अपने चरित्र की रक्षा करना नारी का सबसे बड़ा काम है । जो नारी पति की अनुपस्थिति में भी उर्मिला की भांति साध्वी और तपस्विनी बनी रह कर जीवन यापन करती है , उसका जीवन दूसरों के लिए अनुकरणीय हो जाता है और लोग उसके प्रति श्रद्धा भाव रखने वाले बन जाते हैं ।

राम , लक्ष्मण और सीता जी की अनुपस्थिति में अयोध्या के महलों में रहकर उर्मिला ने अपनी सभी सासों की जिस भाव से सेवा की उससे उन्हें ख्याति प्राप्त हुई । उर्मिला के इसी त्याग के कारण लक्ष्मण श्रीराम की सेवा पूरी निष्ठा से कर सके।

‘ साकेत ‘ के ‘नवम सर्ग ‘ में मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला के बारे में बहुत सुंदर लिखा है :–

मानस-मंदिर में सती, पति की प्रतिमा थाप,

जलती सी उस विरह में, बनी आरती आप।

आँखों में प्रिय मूर्ति थी, भूले थे सब भोग,

हुआ योग से भी अधिक उसका विषम-वियोग।

आठ पहर चौंसठ घड़ी स्वामी का ही ध्यान,

छूट गया पीछे स्वयं उससे आत्मज्ञान।“

अनसूइया

महिलाओं के अंदर ईर्ष्या का एक ऐसा दुर्गुण मिलता है जो उन्हें आगे नहीं बढ़ने नहीं देता , परंतु अनुसुइया रामायण की एक ऐसी पात्र हैं जिन्होंने इस दोष को जीतने में सफलता प्राप्त की । उनकी महानता उनकी सादगी और तपस्या की भावना में स्पष्ट झलकती है । अनसूइया ब्रह्म ऋषि अत्रि की पत्नी थीं । आज के दौर में अधिकांश स्त्रियां ईर्ष्या भाव को पाले रखती हैं। जिससे वह आगे नहीं बढ़ पाती । यदि महिलाएं अनुसूइया के जीवन से शिक्षा लेते हुए ईर्ष्या जैसे दुर्गुण को अपने जीवन से निकाल दें तो उससे न केवल उनका स्वयं का भला होगा अपितु उनकी संतान पर भी इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। जिससे एक सकारात्मक परिवेश और समाज का निर्माण कर हम राष्ट्र को भी उन्नति और प्रगति के मार्ग पर आरूढ़ करने में सफल हो सकते हैं ।

मंदोदरी

मंदोदरी रावण की पत्नी है , परंतु इसके उपरांत भी उस पर रावण के दुर्गुण किसी भी प्रकार से हावी प्रभावी नहीं हो पाए । वह अपने धर्म पर अडिग रही और अपने पति को भी धर्मभ्रष्ट न होने देने की सकारात्मक प्रेरणा सदा देती रही । उसका आचरण और व्यवहार उसे भी रामायण की एक सम्माननीया पात्र बनाकर स्थापित करती हैं ।

जो पत्नी अपने पति को धर्मभ्रष्ट न होने देती है और उसे धर्मानुकूल आचरण करते रहने के लिए प्रेरित करती रहती है , वही वास्तव में पत्नी होती है। पत्नी का अर्थ ही रक्षा करने वाली है । रक्षिका का अभिप्राय है कि जो अपने पति को धर्मभ्रष्ट या पथभ्रष्ट ना होने दे । मंदोदरी ने अपने इस पत्नी धर्म का उत्तमता से संपादन किया है । विवाह संस्कार के समय हमारे यहां आज भी यह वचन पति पत्नी एक दूसरे को देते हैं कि वह सदैव एक दूसरे की बातों का सम्मान करेंगे और कोई सा भी कोई से को धर्म भ्रष्ट या पथभ्रष्ट नहीं होने देगा । अच्छे संकल्पों और व्रतों को लेकर साथ – साथ जिएंगे ।

मंदोदरी के जीवन से हमें यही प्रेरणा मिलती है कि जब पति-पत्नी की उत्तम सलाह को नही मानता है तो उसे अप्रत्याशित कठिनाइयों और आपत्तियों का सामना करना पड़ता है । इतना ही नहीं उसे लोक में अपयश का पात्र बनकर इतिहास में भी अपयश का जीवन जीना पड़ता है ।

यह मंदोदरी ही थी जिसने अपने पति को दूसरे की पत्नी अर्थात सीता जी का अपहरण न करने की सीख दी थी । इतना ही नहीं जब रावण सीताजी का अपहरण करके ले गया तो भी मंदोदरी ने उसे बार-बार यह सलाह दी कि वह परनारी को उसके पति को ससम्मान सौंप दें । परंतु रावण ने उसकी एक भी न सुनी।

त्रिजटा

त्रिजटा रावण की राजधानी लंका में रहने वाली एक राक्षसी थी । यह बहुत ही आदर्श विचारों की महिला थी । जिसकी बुद्धि बड़ी न्यायपरक थी । वह रावण की ओर से सीता जी की देखभाल करने के लिए नियुक्त की गई थी । वह जानती थी कि सीता जी का चरित्र कितना आदर्श और पवित्र है ? इतना ही नहीं वह यह भी जानती थी कि रावण के द्वारा सीता जी का अपहरण किया जाना किसी भी दृष्टिकोण से उचित और नैतिक नहीं माना जा सकता । ऐसे में त्रिजटा का यह आचरण बहुत ही उत्तम माना जाएगा कि उसने रावण की ओर से सीता जी की देखभाल करने के लिए अपनी नियुक्ति होने के उपरांत भी सीता जी को कभी निराश नहीं होने दिया । वह हर समय उनका मनोबल बढ़ाती रही और उन्हें इस बात के लिए आश्वस्त करती रही कि एक न एक दिन रामचंद्र जी को आप की जानकारी हो जाएगी और आप रावण की जेल से मुक्त हो जाएंगी । त्रिजटा, माता की तरह सीता का मनोबल बढ़ाती थी।

त्रिजटा का यह आचरण हमें बताता है कि अपने बौद्धिक विवेक और न्यायसंगत आचरण को कभी भी व्यक्ति को छोड़ना नहीं चाहिए । उसी से वह समाज में सम्मान पाता है।

राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

Comment: