(ये लेखमाला हम पं. रघुनंदन शर्मा जी की ‘वैदिक सम्पत्ति’ नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहें हैं )
प्रस्तुतिः देवेन्द्र सिंह आर्य
(चेयरमैन ‘उगता भारत’)
गतांक से आगे …
इसलिए न तो यह सम्पत्ति शुभ कामनावाली ही है और न इस प्रकार की राज्यप्रणाली ही उत्तम है। ऐसी राज्य-प्रणाली से तो वह प्रजा लाख दरजे अच्छी है, जो विना राजा के है। समुद्र के अनेक टापुयों में जहाँ बिना राजा के मनुष्य बसते हैं, जंगली दशा में भी सुख की नींद सोते हैं। उन्हें यह खौफ नहीं है कि सवेरा होते ही हमें तोप के मुंह लड़ना पड़ेगा अथवा कल हमारा शहर उड़ाया जायगा – बंबार्डमेंट किया जायगा। उन्हें यह तो चिन्ता नहीं है कि जब तक मिल (पुतलीघर) न खोली जायें और बैंकों की प्रतिष्ठा न हो तब तक हमारा जीवन व्यर्थ है ? उन्हें किसी देश की उत्तम दशा पर ईर्ष्या और डाह तो नहीं है? वे मनुष्य जैसे प्राणी के नाश करने का उपाय तो नहीं सोचते ? इसलिए जिन राज्यों में शान्ति नहीं, सुख नहीं, मनुष्यों के प्रति दया नहीं, परस्पर प्रेम नहीं और सहानुभूति नहीं उन राज्यों से तो किसी रेतीले मैदान में बालू खाकर रहना अच्छा है। सैकड़ों स्थान पृथिवी पर अब तक ऐसे हैं जहाँ लोग राजा का नाम तक नहीं जानते, पर क्या वहाँ के लोग पूर्ण आयु नहीं जीते ? अवश्य जीते हैं। राज्यहीन जितने जंगली मनुष्य हैं, वे वहाँ की प्रजा से अधिक दीर्घायु बलवान् और प्रसन्नवदन होते हैं, जहाँ राज्यशासन प्रचलित है।
ऐसी प्रचलित राज्यशासनप्रणाली में अधूरी आयु जीनेवाले नागरिक सिवा अस्पतालों की दवा पी पीकर आधी आयु जीने के और क्या किये लेते हैं और बड़े बड़े महलों में तकिया गद्दी पर कराह कराह कर आधी नींद सोने के सिवा और क्या बनाये लेते हैं? इसलिए हम कहते हैं कि राज्यशासनप्रणाली वही ठीक है, जिसका उद्देश्य मानक जीवन को शान्ति देनेवाला हो। परन्तु उपर्युक्त राजनैतिक अर्थशास्त्र के कारण राष्ट्र में एक भी व्यक्ति शान्ति से एक दिन भी नहीं बैठ सकता । प्रत्येक व्यक्ति दूसरे राज्यों से बचने के लिए अथवा उनसे बाजी मारने के लिए व्यग्र रहता है। एक विज्ञानवेत्ता से लेकर साधारण कुली पर्यंत इसी व्यथा से पीड़ित रहता है और इसी के कारण संसार में कहीं न कहीं युद्ध की आग घधका करती है। अतः इस प्रकार की शासनप्रणाली से संसार में कभी सुख, शान्ति नहीं मिल सकती। जहाँ वैर विरोध है, वहाँ चैन कहाँ हो सकता है? वह मनुष्य सुख की नींद कैसे सो सकता है, जिसने अनेकों शत्रु बना रक्खे हैं और वह मनुष्य शान्त कैसे हो सकता है, जिसने अपने जीवन को कलहमय बना रक्खा है ? इसलिए इस शासनप्रणाली को छोड़कर देखना चाहिये कि वैदिक शासनप्रणाली के अनुसार राजा की क्या आवश्यकता है ?
संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं, एक विद्वान् दूसरे मूर्ख। विद्वानों के लिए राज्यशासन की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि विद्वान् कभी शारीरिक शासन से सजा जुर्माना से काबू में नहीं आ सकते। वे अपने ज्ञानचातुर्य से राजा के दबदबे को ढीला कर देते हैं, इसलिए राज्यशासन उन्हीं मूर्ख और उद्दण्ड मनुष्यों के लिए है, जो अत्याचारी हैं और जिनके पाप कर्मों को सब लोग देख सकते हैं। उन्हीं के दमन करने को आवश्यकता भी है और उन्हीं का दमन हो भी सकता है। किन्तु जो विद्वान् हैं और आप बुद्धिकौशल से पाप कर्म कर रहे हैं, उनका दमन राजा नहीं कर सकता। इसलिए राजा की आवश्यकता केवल उद्दण्ड, मूर्ख और अत्याचारी, राक्षसों पर ही शासन करने के लिए है। इसीलिए मनुस्मृति में कहा गया है कि-
यस्य स्तेनः पुरे नास्ति नान्यस्त्रीणो न दुष्टवाक् ।
न साहसिकदण्डघ्नो स राजा शक्रलोकभाक् ।।
अर्थात् जिस राजा के राज्य में चोर, व्यभिचारी, दुष्ट वाक्य बोलनेवाला, साहसी और दण्ड का न माननेवाला नहीं होता, वही राजा इन्द्र के समान राज्य करता है। आार्यराज्य का यह काल्पनिक आदर्श नहीं है प्रत्युत राजा अश्वपति कहते हैं कि-
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यापो ।
नानाहिताग्निर्नाविद्वान स्वैरी स्वैरिणी कुतः ।।
(छान्दोग्य उपनिषद्)
अर्थात् मेरे राज्य में न चोर हैं, न कायर हैं, न मद्यपान करनेवाले हैं, न अग्निहोत्र न करनेवाले हैं, न मूर्ख हैं, न व्यभिचारी हैं और न व्यभिचारिणी हैं। यही यथार्थ शासन का आदर्श है। इसी प्रकार के शासन से दुष्ट मनुष्यों का दमन होता है। शृङ्गारप्रिय और विलासी मनुष्य ही प्रायः शराबी और व्यभिचारी होते हैं। यही कारण है कि आय-शासन ने विलास और कामुकता की जड़ नशा और व्यभिचार को ही करार दिया है। किन्तु आज हम देख रहे हैं कि राजनैतिक सम्पत्ति बढ़ाने के लिए राज्यशासन के दबदबे से शराब और वैश्याभों की वृद्धि करनेवाले शृङ्गारिक पदार्थों का प्रचार किया जा रहा है, इसलिए सम्पत्ति उत्पन्न करनेवाला यह राज्यबलरूपी साधन भी मनुष्यस्वभाव के विरुद्ध ही है। यह मनुष्यजाति को सुख देनेवाला नहीं, प्रत्युत कामी बनाकर अकाल मृत्यु के मुख में ले जानेवाला है।
अब रही बात सम्पत्ति बढ़ाने में सहायता देनेवाली तीसरी वस्तु जातीयता की। जातीयता को अँगरेजी में नेशनेलिटी कहते हैं। यह लोगों को युद्धों में मरने और दूसरों को मारने के लिए तैयार करती है। यह न हो, तो कोई मनुष्य युद्ध में मरने के लिए तैयार ही न किया जाय। जातीयता के भाव से प्रेरित होकर ही एक प्रजा दूसरी प्रजा के साथ युद्ध करने के लिए तैयार होती है और जो युद्ध इस प्रकार की भावनावाली प्रजा के द्वारा होते हैं, उन युद्धों में प्रायः विजय ही होती है। इसीलिए राजनैतिक व्यापार में युद्ध को सहायक इस जातीयता की आवश्यकता होती है। परन्तु यह जातीयता भी मनुष्यस्वभाव और सृष्टिनियम के विरुद्ध ही है। क्योंकि समस्त संसार के मनुष्य एक ही वंश और एक ही जाति के हैं। इसलिए इस एक जाति को कल्पनाभेद से अनेक जातियों में बाँटकर कलह पैदा करना उचित नहीं है। जातीयतावाले जो कहते हैं कि जिसका एक घर्म, एक भाषा, एक रङ्गरूप और एक राजा हो वह जाति है पर यह ठीक नहीं है। इस लक्षण में दोष है। हम देखते हैं कि रूस में कई धर्म, कई भाषा और कई रङ्गरूप के आदमी हैं, पर वे सब एक ही जाति में संगठित हैं। इसी तरह अन्य जातियों में भी अनेक प्रकार के विषम भेद मौजूद हैं।
इसलिए यह जाति का लक्षण ठीक नहीं है। हाँ, जाति का यह एक लक्षण ठीक प्रतीत होता है कि समान स्वत्व प्राप्त एक शासन में आबद्ध जनता एक जाति है, किन्तु यह लक्षण भी दोषपूर्ण है। भारतवर्ष में हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध और ईसाई सभी समान स्वत्व प्राप्त एक शासन में आबद्ध हैं पर इतना होने पर भी इंगलैंड के शासक कहते हैं कि भारतवर्ष में एक जाति अथवा एक ही जातीयता- नेशनेलिटी – नहीं है। कहने का मतलब यह कि जाति से सम्बन्ध रखनेवाले जितने लक्षण किये गये हैं वे सब कृत्रिम और अस्तव्यस्त हैं। जाति का सबसे उत्तम लक्षण तो ‘समानप्रसवात्मिका जातिः’ है। जिसका तात्पर्य यही है कि समान प्रसव अर्थात् जिस नर और नारी से सन्तान उत्पन्न हो वही जाति है। संसार के समस्त नर नारी परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध से सन्तान उत्पन्न कर सकते हैं अतएव संसार के समस्त मनुष्यों की एक ही जाति है।
क्रमशः

लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।