स्वतंत्रता सेनानी स्वामी रामेश्वरानन्द जी महाराज (गुरुकुल घरौण्डा)

पुण्यतिथि पर कोटि कोटि नमन
स्वामी जी का जन्म एक ग्रामीण कृषक परिवार में 1890 ई० में हुआ । स्वामी जी का बाल्यकाल अत्यन्त दुखद वातावरण में व्यतीत हुआ । छः मास की अवस्था में माता एवं 11-12 वर्ष की अवस्था में आपसे पितृस्नेह भी छिन गया । सौभाग्यवश इनकी दादी जीवित थीं उनके प्रयत्न से इन्होंने देवनागरी अक्षरों का अभ्यास किया एवं प्राईमरी पाठशाला में कक्षा चार उत्तीर्ण कर ली । मातृ पितृ सुख छिन जाने से इनके मन में वैराग्य उत्पन्न होगया । अवसर प्राप्त होते ही 14 – 15 वर्ष की अवस्था में घर से निकल भागे और गढ़मुक्तेश्वर , हापुड़ आदि होते हुए काशी विद्याध्ययनार्थ चले गए । वहां स्वामी कृष्णानन्द गुजराती दसनामी संन्यासी से साक्षात्कार हुआ और उनसे संन्यास की दीक्षा ली । इसके उपरान्त ये मथुरा आगए ।
स्वामी जी मथुरा से जब दिल्ली आए तो स्वामी भीष्म जी महाराज के विचारों को सुनकर आर्यविचारोंवाले बने । उनके पास चार वर्ष रहकर पुनरध्ययन के लिए 24 वर्ष की अवस्था में साधुआश्रम हरदुआगंज ( अलीगढ़ ) , गुरुकुल सिकन्द्राबाद ( बुलन्द – शहर ) , महाविद्यालय गुरुकुल ज्वालापुर , ऋषिकेश , खुर्जा , लाहौर , अजमेर आदि में आचार्यों के चरणों में बैठकर 21 वर्ष तक न्याय , वैशेषिकदर्शन , ऐतरेय ब्राह्मण , नवीन वेदान्त , निरुक्त तथा महाभाष्य पढ़े ।
स्वतन्त्रता के युद्ध में इन्होंने महात्मा गांधी द्वारा चालित सभी आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया । असहयोग आन्दोलन में आपको प्रचार करते हुए गिरफ्तार करके देहरादून की जेल में बन्दी बना दिया गया । स्वामी जी के गुरु स्वामी भीष्म जी की प्रेरणा तथा श्री पं० धर्मवीर शास्त्री उपाचार्य गुरुकुल घरौण्डा के सहयोग से 17 अप्रैल 1939 में घरोण्डा ( करनाल ) में गुरुकुल की विधिवत् स्थापना की । यह गुरुकुल आर्यसमाज के प्रचार का केन्द्र बना
हैदराबाद सत्याग्रह में पहले तो इन्होंने घरौण्डा , करनाल , पानीपत , कुरुक्षेत्र में प्रचार करके सत्याग्रही भेजे । अन्त में इन्होंने सत्याग्रह में स्वयं जाकर भाग लेने का निश्चय किया । ये 72 वीर सत्याग्रहियों का जत्था लेकर नवाब की संगीनों एवं गोलियों के लिए सीना तानकर चल दिए । इनको नवाब ने नांदेड़ , औरंगाबाद एवं हैदराबाद की जेलों में रक्खा । इस परिवर्तन का कारण इनके द्वारा सत्याग्रहियों को उत्साहित करना था ।। हैदराबाद जेल में इनके साथ अमानवीय अत्याचार किए गए । शक्ति से अधिक भारी – भारी पत्थर सर पर रखकर ढुलवाए गए । हड्डियां इकट्ठी कराके सर पर रखकर ढुलवाई गई । किन्तु इतने पर भी ये ओजस्वी एवं विद्युत् के समान संचार करनेवाले भाषण देते , जिससे अधिकारियों को सत्याग्रहियों से क्षमा मंगवाने का प्रयत्न व्यर्थ जाता । आपने सत्याग्रह से पूर्व प्रतिज्ञा की थी । कि जब तक जेल में रहूंगा केवल एक सीधे हाथ की मुट्ठी भर चने चबाऊंगा , न भोजन करूंगा , न अन्य कुछ खाऊंगा यह प्रतिज्ञा आपने अन्त तक निभाई ।
पंजाब में हिन्दू जनता की अपनी मातृभाषा हिन्दी पर आक्रमण हुआ । आर्यसमाज ने चुनौती स्वीकार की । स्वामी जी ने स्वर्गीय स्वामी आत्मानन्द जी महाराज की आज्ञानुसार द्वितीय सर्वाधिकारी के रूप में पंजाब का भ्रमण करते हुए विभिन्न स्थानों पर 85 भाषण देकर विधानसभा भवन चण्डीगढ़ के सम्मुख दलबल के साथ बड़े जोरों से सत्याग्रह चालू किया । पुलिस कई बार लारी में भरकर बीहड़ स्थानों पर छोड़ आती परन्तु स्वामी जी का बाल भी बांका न हुआ । एकदिन पुलिस को क्रोध आया और स्वामी जी को पैरों से पकड़कर सर के बल इस प्रकार खींचना प्रारम्भ किया जिस प्रकार मरे हुए पशु को कोई घसीटता है । आप स्वयं अनुमान लगाएं कि जून – जुलाई की तपती हुई धूप और तारकोल की उष्ण सड़कों पर इस प्रकार घसीटने से क्या अवस्था होती है । इसी खींचातानी में भी स्वामी जी के आगे के दो दांत कैरोशाही की भेंट हुए ।
जिस समय अकाली नेता मास्टर तारासिंह ने पंजाब का बंटवारा करने के लिए आमरण अनशन किया तब स्वामी जी ने प्रत्युत्तर के रूप में पंजाब को अखंडित करने के लिए आमरण अनशन व्रत किया और इन्हें सफलता मिली । स्वामी जी सन् 1962 ई० में करनाल संसदीय क्षेत्र से लोक सभा के लिए निर्वाचित हुए । संसद में इन्होंने हिन्दी की बड़ी जोरदार वकालत की । सांसद रहते हुए इन्होंने गोरक्षा के लिए लोकसभा के प्रांगण में 15 दिन का अनशन व्रत किया और इस सम्बन्ध में तिहाड़ जेल भी गए । स्वामी जी हरयाणा प्रतिनिधि सभा के उप प्रधान एवं वेद प्रचार अधिष्ठाता भी रहे । अन्तरंग के अनेक वर्षों तक सदस्य रहकर अपने परामर्श देते रहे । 8 मई , सन् 1990 ई० को इनका देहान्त होगया।
लेखक – डॉ रणजीत सिंह
प्रस्तुति – अमित सिवाहा

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