इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू (अध्याय 7)

jawaharlal_nehru_cigarette_1614761461 (1)

इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू (डिस्कवरी ऑफ इंडिया की डिस्कवरी)  पुस्तक से

अध्याय 7

विदेशी मजहब वालों का भारतीयकरण

  • डॉ राकेश कुमार आर्य

भारत के अतीत का वर्णन करते हुए नेहरू जी हिंदुस्तान की कहानी नामक अपनी पुस्तक के पृष्ठ 70 पर लिखते हैं कि-

“एक हिंदुस्तानी अपने को हिंदुस्तान के किसी भी हिस्से में अजनबी न समझता और वही हिंदुस्तानी किसी भी दूसरे मुल्क में अपने को अजनबी और विदेशी महसूस करता। हां, यकीनी तौर पर वह अपने को उन मुल्कों में कम अजनबी पाता, जिन्होंने उसकी तहजीब और धर्म को अपना लिया था। हिंदुस्तान से बाहर के मुल्कों में शुरू होने वाले मजहबों के अनुयायी भारत में आने और यहां पर बसने के कुछ पीढियों के भीतर साफ तौर पर हिंदुस्तानी बन जाते थे। जैसे ईसाई, यहूदी, पारसी और मुसलमान। ऐसे हिंदुस्तानी जिन्होंने इनमें से किसी एक मजहब को कबूल कर लिया, एक क्षण के लिए भी धर्म परिवर्तन के कारण गैर हिंदुस्तानी नहीं हुए। दूसरे मुल्कों में इन्हें हिंदुस्तानी और विदेशी समझा जाता रहा। चाहे इनका धर्म वही रहा हो जो इन दूसरे मुल्क वालों का था।”

नेहरू जी ने एक प्रकार से यहां पर उस विषबीज का बीजारोपण किया है, जिसे उन जैसे इतिहास लेखकों के द्वारा ही भारत की पवित्र भूमि में डालने का अपराध किया गया। यदि इतिहास की निष्पक्ष भाव से समीक्षा की जाए तो धर्मांतरण से मर्मांतरण और मर्मांतरण से राष्ट्रांतरण की प्रक्रिया को कोई नकार नहीं सकता। जिसे हम धर्मांतरण कहते हैं, वह भी वास्तव में धर्म विनाश का एक लक्षण है।

एक व्यक्ति का इधर से उधर जाना वैदिक धर्म के विनाश का प्रमाण है। इस प्रक्रिया के माध्यम से हमसे गांव, तहसील, जिले, प्रदेश या देश ही नहीं छिने बल्कि महाद्वीप के महाद्वीप छिन गए।

धर्म विनाश के इस महत्वपूर्ण विचार को सावरकर जी के द्वारा प्रस्तुत किया गया। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब कोई व्यक्ति अपना धर्मातरण कर दूसरे मजहब को अपनाता है तो वह भारत का एक नया शत्रु बन जाता है। इस प्रकार धर्मांतरण केवल धर्मातरण ना होकर भारत के लिए धर्म विनाश का कारण बनता है। जिस अकबर को बहुत उदार दिखाया जाता है और नेहरू जी जैसे लोग यह कहते हुए नहीं थकते कि वह आचार विचार से पूर्णरूपेण भारतीय हो गया था, उसने भी हजारों लाखों की संख्या में हिंदुओं का संहार करवाया था। यह कार्य उसने मजहब के नाम पर ही किया था। यहां तक कि हेमचंद्र विक्रमादित्य जैसे देशभक्त भारतीय शासक को उसके द्वारा केवल इसलिए मारा गया था कि अकबर ‘गाजी’ बनना चाहता था। अधिकांश मुसलमानों के लिए आज भी मजहब पहले है, भारतीय होना उसके लिए दूसरे स्थान पर है। ईसाई मत के लोग भी भारत में हिंदुओं के धर्म विनाश में लगे हुए हैं। यदि उनके भीतर भारतीयता निवास कर गई होती तो वह ऐसा निंदनीय कृत्य कभी नहीं करते। राष्ट्र के विनाश में लगी हुई इन शक्तियों को उपेक्षित करना, आत्महत्या के समान है।

भारतीय इतिहास के विकृतिकरण में नेहरू जी का बहुत बड़ा योगदान है। वास्तव में, यह सोच कि विदेशी मजहब वाले भारत में आकर भारतीय हो गए थे, कतई भी गले नहीं उतरती। इस प्रकार की सोच ही भारत के इतिहास का विकृतिकरण है। सच ये है कि जो भी विदेशी मजहब वाले लोग यहां पर आए, उन सबने कभी भी भारत के धर्म को स्वीकार नहीं किया। मुसलमान मुसलमान ही बना रहा। आज भी वह भारत देश की पवित्र भूमि को अपनी पुण्य-भूमि और पितृभूमि नहीं मानता। वह भारत को काफिरों का देश मानता है और जब तक हिंदुस्तान की भूमि पर काफिर है, तब तक वह जिहाद करने के लिए कटिबद्ध है।

ईसाई चुपचाप आज भी धर्मांतरण के माध्यम से अपनी संख्या बढ़ाने पर लगा हुआ है। इन दोनों ही समुदायों का लक्ष्य भारत विनाश है। भारत का धर्मनाश करना है। भारत की परंपरा को मिटा देना इनका लक्ष्य है। ऐसी सोच के लोगों को आप कभी भी भारतीय नहीं कह सकते। हां, पारसी लोगों पर यह बात लागू नहीं होती। उन्होंने अपने आप को पूर्णतया भारतीय बना लिया है और शांतिपूर्वक राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ मिलकर राष्ट्र की उन्नति में अपना सहयोग कर रहे हैं। उनसे हिंदू समाज को कोई शिकायत नहीं है। वह शांतिपूर्वक रह रहे हैं और हिंदू समाज उन्हें शांतिपूर्वक रहने भी दे रहा है।

खतरे को खतरा न कहना नेहरू जी के लेखन की विशिष्ट शैली है। वह खतरे को देखकर शुतुरमुर्ग की भांति गर्दन को रेत में छुपाने का प्रयास करते हैं या कहिए कि जैसे बिल्ली को देखकर कबूतर आंखें बंद कर अपने आप को सुरक्षित अनुभव कर लेता है, वैसा ही नाटक नेहरू जी करते दिखाई देते हैं। नेहरू जी की हिंदुस्तान की कहानी का देश के जनमानस पर यही प्रभाव पड़ा है कि अपने आप को शुतुरमुर्ग और कबूतर बनाए रखकर राष्ट्र की एकता के गीत गाते रहो। कहते रहो कि ईद के पाक मौके पर मुस्लिम भाइयों ने वतन में अमन और चैन की कामना की।

नेहरू जी का यह कहना भी गलत है कि- “जिन्होंने इनमें से किसी एक मजहब को कुबूल कर लिया, एक क्षण के लिए भी धर्म परिवर्तन के कारण गैर हिंदुस्तानी नहीं हुए” – यदि नेहरू जी वास्तव में इतिहासकार थे तो उन्हें इन बातों का भली प्रकार ज्ञान होगा कि आज के बांग्लादेश और बंगाल में जितने मुसलमान मिलते हैं, वह कालापहाड़ नाम के उस मुस्लिम के द्वारा धर्मांतरित किए गए जो कालाचंद्र के नाम से पहले हिंदू था। जिस समय 1944 में अहमदनगर की जेल में नेहरू जी के द्वारा द डिस्कवरी ऑफ इंडिया लिखी जा रही थी, उस समय माना जा सकता है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश अस्तित्व में नहीं थे, परंतु अफगानिस्तान ईरान ती अस्तित्व में थे। जिनका अतीत हिंदू वैदिक अतीत रहा है।

उनसे ही नेहरू जी कुछ सीख लेते तो अच्छा रहता। अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति मलिक काफूर भी कपूर चंद्र सैनी के नाम से पूर्व में हिंदू ही रहा था, जिसने मुस्लिम बनने के पश्चात लाखों हिंदुओं की हत्या की थी। इतना ही नहीं, जब मोहम्मद अली जिन्ना के पिता और दादा हिंदू से मुसलमान बन गए तो उसने भी देश का बंटवारा करवा दिया। ऐसे अन्य अनेक उदाहरण हैं, जिन्होंने विदेशी मजहब स्वीकार करने के पश्चात भारत के धर्म की बहुत बड़ी हानि की। अतः नेहरू जी के इस मत से हमें कभी भी सहमत नहीं होना चाहिए। कलम चढ़ी मान्यताएं उधारी होती हैं, जिन पर कभी भी ध्यान नहीं देना चाहिए।

हिंदुस्तान जब हमारे लिए एक राष्ट्र बन जाता है तो थोड़ी देर के लिए नेहरू जी के इस विचार से सहमत हुआ जा सकता है कि “हिंदुस्तानी ईसाई चाहे जहां जाए, हिंदुस्तानी ही समझा जाता है और हिंदुस्तानी मुसलमान चाहे तुर्की में हो, चाहे ईरान और अरब में सभी मुसलमानी मुल्कों में वह हिंदुस्तानी ही समझा जाता है।” यद्यपि भारत का ईसाई और भारत का मुसलमान भारत की एकता और अखंडता के प्रति कितना समर्पित है, देखने वाली बात यह होती है?

कोएनराड एल्स्ट (Koenraad Elst) का यह कथन नेहरू जी की धारणाओं की धज्जियां उड़ा देता है कि-

“बलात मुस्लिम विजयें हिंदुओं के लिए 16वीं शताब्दी तक जीवन मरण के संघर्ष का ही प्रश्न बनी रहीं। संपूर्ण शहर जला दिए गए थे। संपूर्ण जनसंख्या का वध कर दिया गया था। प्रत्येक आक्रामक संघर्ष में हजारों का वध कर दिया जाता था और उतनी ही संख्या को बंदी बना लिया जाता था और देश से बाहर निकाल दिया जाता था। प्रत्येक आक्रांता ने वध किए हुए हिंदुओं के सिरों के वस्तुतः पहाड़ खड़े किए थे। 1000 ई. में अफगानिस्तान की बलात विजय के बाद हिंदुओं का वध कर पूर्ण सफाया कर दिया गया था। उस स्थान को अभी भी हिंदू कुश यानी कि हिंदुओं के कत्ल ए आम का स्थान कहा जाता है।”

1937 के आम चुनाव के बारे में जानकारी देते हुए नेहरू जी पृष्ठ संख्या 75 पर हमें बताते हैं कि उस समय जब वह भारत के लोगों से मिल रहे थे तो उन्होंने देखा कि लोग अपने इतिहास पुराण और कल्पित कथाओं से बड़ी गहराई से जुड़े हुए थे। उन्होंने कुछ लोगों को बिल्कुल अनपढ़ और अशिक्षित कहा। परंतु इस बात पर प्रसन्नता भी व्यक्त की कि वह अपने पुरातन से गहराई से जुड़े हुए थे। नेहरू जी ने लिखा है कि भारत के अधिकांश लोग अपने पुराने महाकाव्य रामायण और महाभारत से गहराई से जुड़े हुए थे। उनके उपदेश उनके मन में टंगे हुए थे। अनपढ़ देहातियों को भी सैकड़ों पद्य जबानी याद थे और उनकी बातचीत में या उनके या किसी प्राचीन कथा या उपदेश के हवाले आते रहते थे। मुझे इस बात पर अचरज होता था कि गांव के लोग आजकल की साधारण बातों को साहित्यिक लिबास दे देते थे। मैंने अनुभव किया कि अनपढ़ किसान के दिमाग में भी एक चित्र शाला थी। इसका आधार परंपरा, पुराण की कथाएं और महाकाव्य के नायकों और नायकों के चरित्र थे। इसमें इतिहास कम था, फिर भी चित्र काफी सजीव थे।

नेहरू जी यहां भी भारत को समझने में चूक कर गए। वास्तव में वह “भारत की खोज” नहीं कर पाए। पहली बात तो यह है कि वह रामायण और महाभारत को महाकाव्य कहते हैं। इनमें इतिहास नहीं देखते। दूसरे, वह यह नहीं जानते कि भारत के लोग अनपढ़ और अशिक्षित कभी नहीं रहे। जिस देश के लोगों ने करोड़ों वर्ष तक अपने वेदों को श्रुति परंपरा से कंठस्थ करने का अभ्यास किया हो, उनके अंतर्मन में कितने गहरे और पवित्र संस्कार रहे होंगे या आज भी रहते हैं? उन्हें समझना हर किसी के लिए संभव नहीं है। लिखे हुए को पढ़ना शिक्षित होना नहीं होता है। भारतीय परंपरा में अंतर्मन की पवित्रता ही शिक्षा संस्कार का निश्चायक प्रमाण माना जाता है। लिखे हुए को पढ़ाकर अर्थात ए, बी, सी, डी के माध्यम से विदेशी संस्कारों को भारतीय मन में उतार कर हमने शिक्षितों को अशिक्षित बनाया है. जिसे विद्या नाश का नाम भी दिया जा सकता है। नेहरू जी विद्या नाश की परंपरा को बढ़ाने वाले लेखक माने जाने चाहिए। वे अंग्रेजी को पढ़ना ही किसी व्यक्ति का पढ़ा लिखा होना मानते थे। कम से कम भारतीय संदर्भ में तो इसे कभी भी उचित नहीं कहा जा सकता। उन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए भी शिक्षा नाश या विद्या नाश की इसी परंपरा को आगे बढ़ाया। दुर्भाग्य से यही परंपरा हमारा आज तक हमारा पीछा कर रही है। जिसके चलते “भारत की खोज” भी अधूरी रह गई है और भारत की सोच भी अधूरी रह गई है।
क्रमशः

डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)

Comment: