इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू – अध्याय 19

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इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू (पुस्तक से … )

भारत के सम्राट और महात्मा बुद्ध

  • डॉ राकेश कुमार आर्य

नेहरू जी भारत के आर्य हिंदू शासकों को साम्राज्यवादी देखते हैं। इसलिए उनके विशाल राज्यों को वह साम्राज्य के रूप में ही प्रत्तुत करते हैं। अपने आर्य-हिंदू राजाओं को साम्राज्यवादी कहना भी शब्दों का ऐसा घालमेल है जो हमारे हिंदू राजाओं की श्रेष्ठता और महानता को भंग करता है या उन्हें साम्राज्यवादी सोच के मुगलों या विदेशी सम्राटों के बराबर लाकर बैठा देता है। वास्तव में साम्राज्यवादी और सामंतवादी- ये दोनों ही शब्द राजनीतिक क्षेत्र में किसी भी इतिहासनायक के लिए किसी अपशब्द से कम नहीं हैं। जैसे भारतवर्ष में कांग्रेसी मानसिकता के सेकुलर राजनीतिक दल देश के किसी भी कोने में किसी समय विशेष पर होने वाले सांप्रदायिक दंगों में मुसलमानों के साथ-साथ हिंदुओं को भी एक पक्ष बना लेते हैं और कह देते हैं कि सांप्रदायिक दंगों के समय में दोनों पक्षों की ही गलती रही है। जबकि ऐसा होता नहीं है। अक्सर गलती मुस्लिम पक्ष की होती है। इसी प्रकार भारत के जनहितैषी राजाओं को भी तानाशाही प्रवृत्ति के साम्राज्यवादी और को बराबर कर देने के समान है। जिसे उचित नहीं कहा जा सामंतवादी राजाओं या सम्राटों या सुल्तानों के साथ बैठाना दोनों सकता। परंतु इतिहास में ऐसा ही होता है। इसलिए हम कह रहे हैं कि शब्दों के इस प्रकार के घालमेल पर विचार करते हुए हमें आंखें खोलकर पढ़ना चाहिए।

इसी संदर्भ में यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि साम्राज्य किसे कहते हैं? साम्राज्य वह होता है, जिसमें कोई एक तानाशाह राजतंत्रीय ढंग से या सीधे तानाशाही दिखाते हुए अपनी गुंडागर्दी के आधार पर जनता के अधिकारों का शोषण और दमन करते हुए उन पर अपनी गुंडाशाही स्थापित करता है। ऐसे राजा को प्रजा के अधिकारों की चिंता नहीं होती और अपने कर्तव्य के प्रति भी वह पूर्णतया असावधान रहता है। ऐसे राजा के विरुद्ध प्रजा विद्रोही हो जाती है। भारत में जितने भर भी मुसलमान शासक हुए या उनके पश्चात अंग्रेज शासक रहे, उन सबके विरुद्ध जनता इसीलिए विद्रोही हुई क्योंकि वे जनता के अधिकारों का शोषण और दमन करने वाले ऐसे शासक थे जिन्होंने अपनी गुंडाशाही दिखाते हुए प्रजा पर अपना बलात शासन थोपा था। इनमें अकबर भी सम्मिलित है। हम जानते हैं कि अकबर और जहांगीर के शासनकाल में भारतवर्ष में 5-6 लाख हिंदुओं की हत्या की गई थी। अतः अकबर के शासन को भी साम्राज्यवादी गुंडाशाही कहा जा सकता है।

हिंदुस्तान की कहानी के लेखक पंडित नेहरू मौर्य वंश और गुप्त वंश के शासकों को भी ‘साम्राज्यवादी’ कहते हैं। मौर्य वंश के राज्य विस्तार के बारे में उल्लेख करते हुए वह पृष्ठ 142 पर कहते हैं कि-

“यह नया राज्य, जो 321 ईसा पूर्व में कायम हुआ और हिंदुस्तान के ज्यादातर हिस्से पर और उत्तर में ठीक काबुल तक फैला, आखिर था कैसा राज्य? यह था एकछत्र शासन और ऊपर के सिरे पर हम इसमें एकाधिपत्य पाते हैं, जैसा कि अधिकतर साम्राज्यों में रहा है और अब भी है।”

भारत के आर्य/हिंदू शासकों की चारित्रिक विशेषताओं को नेहरू जी पहचान नहीं पाए। हमारे राजाओं ने जनता के कल्याण को अथवा प्रजाहितचिंतन को राजा का सर्वोपरि कर्तव्य धर्म स्वीकार किया और इसी से प्रेरित होकर उन्होंने चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए प्रयास किया।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजधर्म की चर्चा इस प्रकार की गई है-

प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् ।
नात्मप्रियं प्रियं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं प्रियम् ॥ (अर्थशास्त्र 1/19)

अर्थात् प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में उसका हित है। राजा का अपना प्रिय (स्वार्थ) कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है।

तस्मात् स्वधर्म भूतानां राजा न व्यभिचारयेत् ।
स्वधर्म सन्दधानो हि, प्रेत्य चेह न नन्दति ॥ (अर्थशास्त्र 1/3)

अर्थात् राजा प्रजा को अपने धर्म से च्युत न होने दे। राजा भी अपने धर्म का आचरण करे। जो राजा अपने धर्म का इस भांति आचरण करता है, वह इस लोक और परलोक में सुखी रहता है। एक राजा का धर्म युद्धभूमि में अपने शत्रुओं का विनाश करना ही नहीं होता अपितु अपनी प्रजा की रक्षा करना भी होता है।

भारतवर्ष के आर्य राजाओं ने इसी उद्देश्य की प्राप्ति करने हेतु संपूर्ण भूमंडल के प्रजा हितचिंतक राजाओं अर्थात ऐसे राजाओं को अपने झंडे तले लाने का उन्होंने प्रयास किया जो मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाते थे। जिनकी सोच में दानवता थी, उनके विरुद्ध इनकी चतुरंगिणी सेनाएं निकलीं। मौर्य वंश और गुप्त वंश के राजाओं ने भी इसी प्रकार की राजा की चारित्रिक विशेषताओं का परिचय दिया। यही कारण था कि उनके विरुद्ध कभी जन विद्रोह नहीं भड़का। जब तक भारत के आर्य राजा अपने इस राजधर्म का निर्वाह करते रहे, तब तक संसार में कहीं पर भी राक्षसी शक्तियों ने सिर उठाने का साहस नहीं किया। परंतु जब अशोक नाम के सम्राट ने अपनी तलवार को खूंटी पर टांग दिया तो स्थिति में भारी परिवर्तन आया।

नेहरू जी ने अपनी हिंदुस्तान की कहानी में बहुत कुछ बहुत सारे विषयों पर लिखा है, परंतु अधिकांशतः ऐसा हुआ है कि वह कहना क्या चाहते हैं? उसे वह स्पष्ट नहीं कर पाए। कोई भी गंभीर पाठक उन्हें पढ़ते समय यह नहीं कह सकता कि वह उनके आशय को समझ गया है। इसी कड़ी में यदि महात्मा बुद्ध को लिया जाए तो महात्मा बुद्ध पर वह जितना भी लिखते हैं, उसमें बुद्ध की वास्तविकता को बताने में कुछ सीमा तक सफल रहे हैं। नेहरू महात्मा बुद्ध को एक विद्वान सनातनी ऋषि के रूप में तो नहीं मानते परंतु एक सुधारक के रूप में अवश्य मानते हैं। उनकी मान्यता है कि भारत के पुराने धर्म में जो कुरीतियां व्याप्त हो गई थीं, उनके सुधार करने के लिए महात्मा बुद्ध ने महत्वपूर्ण कार्य किया।

मिसेज रीज डेविड्स (Mrs. Rhys Davids) के माध्यम से नेहरू जी लिखते हैं कि-

“गौतम का जन्म और पालन हिंदू की भांति हुआ था और वह हिंदू की तरह रहे और मरे। गौतम के अध्यात्मवाद और सिद्धांतों में ज्यादा बातें ऐसी न मिलेंगी जो प्राचीन पद्धतियों में न मिल जाएं और उनकी नीति से मिलती हुई शिक्षाएं शुरू या बाद की हिंदू पुस्तकों में मिल जाएंगी। गौतम की जो कुछ मौलिकता है, वह इस बाल में है कि जो अच्छी बातें और लोग कह गए थे, उन्हें उन्होंने नए रूप में ढाला, उनका विस्तार किया। उन्हें प्रतिष्ठित और कर्मबद्ध किया और यह कि जिन न्याय और बराबरी के सिद्धांतों को पहले ही खास-खास हिंदू विचारकों ने माना था, उनको उन्होंने तर्क के आधार पर अंतिम परिणाम तक पहुंचाया। इनमें और दूसरे उपदेशकों में फर्क यह था कि इनमें ज्यादा गहरी लगन और लोकहित की विशाल भावना थी।”

इस तथ्य को नेहरू जी ने डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की इंडियन फिलासफी नामक पुस्तक से लिया था।

महात्मा बुद्ध के बारे में नेहरू जी लिखते हैं कि-

“बुद्ध ने अपने अनुयायियों को आधिभौतिक विषयों को लेकर पंडिताऊ बहस मुबाहसे में पड़ने के खिलाफ आगाह कर दिया था। कहा जाता है कि उन्होंने कहा था- “जिस विषय पर आदमी को बोलना जरूरी ना हो, उस पर चुप रहना चाहिए। सत्य तो जीवन में ही पाया जाता है। जीवन की परिधि से बाहर की बातों पर तर्क वितर्क करने से नहीं। उन्होंने जिंदगी के आध्यात्मिक पहलू पर जोर दिया और स्पष्ट रूप से यह महसूस किया कि लोग जब आधिभौतिक बारीकियों में पड़ जाते हैं तो इसे नजरअंदाज कर दिया जाता है। शुरू के बौद्ध धर्म में हमें बुद्ध के इस दार्शनिक और बुद्धिवादी भाव की झलक मिलती है। उसकी जिज्ञासा की बुनियाद अनुभव पर है। अनुभव की दुनिया में विशुद्ध आत्मा की कल्पना ठीक-ठीक नहीं ग्रहण की जा सकती थी। इसलिए उसे अलग कर दिया गया। इस तरह सृष्टिकर्ता ईश्वर का विचार जिसका दलील के साथ सबूत नहीं दिया जा सकता था, अलग रखा गया।”

नेहरू जी महात्मा बुद्ध को वैदिक विद्वान घोषित नहीं कर पाए, बस यही एक थोड़ी सी चूक कर गए। इसका कारण यह था कि नेहरू जी की वेदों के बारे में बहुत अच्छी धारण नहीं थी। सच यही था कि महात्मा बुद्ध एक वैदिक विद्वान थे, जो वेद की मानव कल्याणकारी नीतियों और उपदेशों में विश्वास रखते थे।

महात्मा बुद्ध का चिंतन पूर्णतया वेद संगत था। उन्होंने वैदिक आदर्श, वैदिक संस्कृति और वैदिक चिंतन से भटक गए सनातन समाज को फिर से वेद का मार्ग बताया।

भारत के महान ऋषि वैज्ञानिक नामक पुस्तक में लेखक ने लिखा है कि “किसी भी प्रकार की ऊंच नीच, भेदभाव और छुआछूत की वेद स्पष्ट शब्दों में निंदा करता है।” ऋग्वेद में बड़ा स्पष्ट कहा गया है कि-

अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावधुः सौभगाय ।
युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुधा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यः

(ऋग्वेद 5/60/5)

इस वेद-मन्त्र में यही उपदेश किया गया है कि सब मुनष्य परस्पर भाई हैं। किसी भी मनुष्य को जन्म के आधार पर बड़ा व छोटा, ऊंचा या नीचा नहीं कहा जा सकता है। सृष्टि के सभी प्राणियों का परमपिता परमेश्वर ही एक पिता है और प्रकृति व भूमि सबकी एक माता है। संसार में जो लोग ऐसा मानकर जीवन व्यवहार करते हैं और अपने कर्मों पर नजर रखते हुए कार्य संपादन करते हैं, उन सबको सौभाग्य की प्राप्ति और वृद्धि होती है।

बौद्ध साहित्य के ग्रन्थ सुत्त निपात में वर्णन है कि-

“मनुष्यों के शरीर में ऐसा कोई भी पृथक् चिन्ह (लिंग भेदक चिह्न) कहीं देखने में नहीं आता जिससे उनकी अलग-अलग जातियों की पहचान की जा सके। प्रत्येक मनुष्य के केश, सिर, आंख, नाक, मुख, गर्दन, कंधा पेट, पीठ, हथेली, पैर, नाखून आदि एक जैसी ही होती हैं। किसी के भी किसी भी अंग में कोई विशिष्ट विभिन्नता नहीं होती। कहने का अभिप्राय है कि महात्मा बुद्ध एक ऐसे सामाजिक ऋषि वैज्ञानिक थे, जिन्होंने सामाजिक समरसता को पुनस्र्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने समाज विज्ञान पर वैदिक ऋषियों के अनुकूल चिंतन किया। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि जो मनुष्य गाय चराता है उसे हम चरवाहा कहेंगे, ब्राह्मण नहीं। जो व्यापार करता है वह व्यापारी ही कहलाएगा और शिल्प करनेवाले को हम शिल्पी ही कहेंगे, ब्राह्मण नहीं। दूसरों की परिचर्या करके जो अपनी जीविका चलाता है वह परिचर ही कहा जाएगा, ब्राह्मण नहीं। अस्त्रों-शस्त्रों से अपना निर्वाह करनेवाला मनुष्य सैनिक ही कहा जाएगा, ब्राह्मण नहीं। अपने कर्म से कोई किसान है तो कोई शिल्पकार, कोई व्यापारी है तो कोई अनुचर। कर्म पर ही जगत् स्थित है।”

क्रमशः

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