Categories
धर्म-अध्यात्म

हम अग्निहोत्र किस उद्देश्य व लाभ प्राप्ति के लिये करते हैं?”

वेद ईश्वरीय ज्ञान है। वेदों का अध्ययन करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि ईश्वर ने मनुष्यों को अग्निहोत्र करने की आज्ञा दी है। वेदों में अग्निहोत्र करने के अनेक वचन व वाक्य हैं। ऐसा ही यजुर्वेद के तीसरे अध्याय का प्रथम मन्त्र है ‘समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्। आस्मिन् हव्या जुहोतन।।’ इसका अर्थ है समिधाओं को अग्नि से प्रदीप्त करो और उसमें घृत की आहुति देकर उसे बढ़ाओं। अग्नि का अतिथि के समान सेवन करो जैसे विद्वान संन्यासियों का बिना सूचना घर आने पर हम करते हैं व उनकी आवश्यकता के द्रव्य आदि प्रस्तुत कर उन्हें सन्तुष्ट करते हैं। उसी प्रकार अग्नि की भी घर आये हुए अतिथि के समान मानकर उसमें नित्यप्रति वायु एवं जल आदि के दोष निवारण करने वाले घृत, केसर, कस्तूरी आदि सुगन्धित, मिष्ट, गुड़, शक्कर आदि पुष्टिकारक तथा रोगों का नाश करने वाली सोमलता वा गडूची आदि अनेक ओषधियों से, इन चार प्रकार के साकल्यों से, अग्नि में हवन करना चाहिये। इसकी आज्ञा प्ररमात्मा ने इस मन्त्र में की है। प्रतिदिन सूर्योदय के समय व सूर्यास्त से पूर्व हवन करने से वायु व वर्षा जल की शुद्धि सहित यज्ञकर्ता को स्वास्थ्य लाभ होता है। इससे ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना भी होती है।

यज्ञ वा अग्निहोत्र की हम समस्त आहुतियों को ‘इदमग्नये, इदन्न मम’ कहकर ईश्वर को समर्पित करते हैं। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी सत्ता होने से हमारे बाहर भीतर ओतप्रोत हो रहा है। हमारी प्रार्थनाओं को वह स्पष्टतः सुनता है। हम मन में विचार भी करते हैं तो उसे भी वह यथावत् जानता है। ईश्वर से प्रार्थना करने पर वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर हमारी प्रार्थनाओं व हमारी पात्रता के अनुरूप हमें सुख लाभ कराता है। यज्ञ पर हमारे ऋषियों सहित आधुनिक समय के वैज्ञानिकों ने भी अनेक बार प्रयोग किये हैं जिसके परिणाम हितकारी वा लाभप्रद सिद्ध हुये हैं। कई शिक्षित लोग यज्ञ में समिधाओं के जलने से कार्बन डाई-आक्साइड गैस बनने की बात कह कर इसका निषेध करते हैं परन्तु उन्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि हमारे वृक्षों एवं सभी वनस्पतियों को कार्बन डाइ-आक्साईड गैस की आवश्यकता होती है। जितनी मात्रा में यज्ञ में कार्बन डाइ-आक्साइड गैस बनती है उससे हमारे स्वास्थ्य को हानि नहीं होती। हमारे यज्ञकर्ता ऋषि मुनि 100 वर्ष व उससे कहीं अधिक आयु का भोग करते थे। महाभारत युद्ध में अर्जुन 120 वर्ष के थे तथा भीष्म पितामह की आयु 160 वर्ष थी। शारीरिक शक्ति की दृष्टि से वह युवा थे। वेदों में तो मनुष्य की आयु को तीन सौ वर्ष व अधिक तक का करने की भी प्रेरणा है। वेदों में एक महत्वपूर्ण बात यह भी कही गई है कि हम अदीन रहकर ही जीवित रहें। जीवन भर अदीन रहें तथा कभी किसी पर बोझ व परावलम्बी न हों।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जन्म से मृत्यु तक यह समाज से जुड़ा रहता है। इसका कर्तव्य है कि जिस समाज से इसे अपनी आवश्यकता की वस्तुयें प्राप्त होती हैं, उससे उऋण होने के लिये यह भी अपनी सामथ्र्य के अनुरूप लोगों को अधिक से अधिक लाभ पहुंचायें। यज्ञ व अग्निहोत्र ऐसा ही कर्म व अनुष्ठान है जिससे न केवल हमें अपितु दूर दूर तक लोगों सहित प्राणीमात्र को लाभ पहुंचता है। वायु व जल के दोष दूर होते हैं। हमारे कृष्कों व उनके खेतों को शुद्ध पोषक अन्न का लाभ होता है। वायु में जो लाभप्रद प्राणी वा कीटाणु आदि होते हैं उनको भी घृत व साकल्य के अग्नि से सूक्ष्म होने पर श्वास आदि प्रक्रिया से लाभ पहुंचता है। यज्ञ का प्रत्यक्ष लाभ तो यज्ञ करने वाले मनुष्य को पहुंचता ही है। जिस घर में मनुष्य रहता है वहां का वायु अनेक कारणों से प्रतिक्षण दूषित होता रहता है। हम श्वास में दूषित वायु को छोड़ते है जिससे वायु प्रदुषण होता है। घर में जो भोजन पकता है उससे भी वायु दूषित होता है और वह घर के सभी स्थानों में फैल जाता है। अग्निहोत्र करने से घर के भीतर का दूषित वायु बाहर निकलता और बाहर का शुद्ध वायु घर के भीतर प्रवेश करता है। यज्ञ करने से घर के वायु और उसमें अग्निहोत्र में आहूत की गई गोघृत व साकल्य की आहुतियों से वायु में गुणात्मक सुधार होता है जो श्वास लेने से हमारे फेफड़ो व शरीर के भीतरी अंगों को पुष्ट करता है। यज्ञ करने वाला मनुष्य अन्यों की तुलना में अधिक स्वस्थ रहता है, यह भी हमारा अपना अनुभव भी है। सभी मनुष्यों को प्रतिदिन प्रातः व सायं यज्ञ करने का विधान है। जो बन्धु नहीं कर सकते उन्हें प्रतिदिन एक बार तो यज्ञ करना ही चाहिये। यदि किसी कारण दैनिक यज्ञ न कर सकें तो साप्ताहिक यज्ञ तो अवश्य ही करना चाहिये।

आध्यात्मिक यज्ञ तो हम सभी कर सकते हैं। इसके लिये हम सुखासन में बैठ कर यज्ञ के मन्त्रों को मौन व स्वर सहित उच्चारण कर अपनी आत्मा की आहुति परमात्मा रूपी अग्नि में दे सकते हैं। इससे भी मनुष्य को ईश्वर से उसके कर्म के अनुरूप आध्यात्मिक व भौतिक लाभ प्राप्त हो सकते हैं। यह लाभ उसी प्रकार के होते हैं जैसे लाभ स्तुति, प्रार्थना व उपासना के मन्त्रों के बताये जाते हैं। अतः अग्निहोत्रयज्ञ सब मनुष्यों को अवश्य ही करना चाहिये। इसका त्याग करने से हम यज्ञ के लाभों वे वंचित हो जाते हैं। मनुष्य जिन विचारों, व्यक्तियों की संगति अथवा सहित्य का अध्ययन करता है, वह वैसा ही वह बन जाता है। अतः सभी मनुष्यों को ईश्वर की संगति सन्ध्या के माध्यम से प्रातः व सायं अवश्यमेव करनी ही चाहिये। ईश्वर की संगति से हमारी आत्मा के सभी दोष, दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःख दूर होते हैं, ऐसा वेद मन्त्रों में स्पष्ट रूप से बताया गया है। यदि हमें इसका विश्वास नहीं है तो हम नास्तिक की कोटि में आ जाते हैं। ईश्वर की संगति व सन्ध्या से उसी प्रकार से लाभ होता है जिस प्रकार की जल में स्नान करने से जल की शीतलता का गुण हमारे शरीर में प्रविष्ट होता है। ईश्वर सद्गुणों व विद्याओं सहित बल का भी भण्डार है एवं सबको आरोग्य देने वाला है। अतः सन्ध्या व उपासना से जल के गुणों की तरह ईश्वर के सभी गुण मनुष्य की आत्मा में प्रविष्ट हो जाते हैं। हमारे महापुरुष राम, कृष्ण, दयानन्द तथा असंख्य ऋषि उसी की उपासना से प्राप्त गुणों के कारण विश्व व मानवता के शिरमौर थे।

मनुष्य को यज्ञ व अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिये। जो यज्ञ नहीं करता वह पापी होता है। इसका कारण यह है कि हमारे श्वास-प्रश्वास से जो वायु दूषित होते है, वस्त्रों के धाने, स्नान करने से जो जल दूषित होता है, पाकशाला के कार्यों से जो वायु दूषित होती है, मल-मूत्र के त्याग से भी जो वायु, जल और भूमि प्रदुषित होती है, उसका निराकरण नहीं करेंगे तो हम निश्चय ही पापी ठहरते हैं। यह संसार गिव एवं टेक के सिद्धान्त पर चल रहा है। यदि हम जितना किसी से लेते हैं, उतना लौटाते नहीं हैं, तो हमें मिलना बन्द हो जाता है। ईश्वर व प्रकृति से हम में जो मिला अथवा हमने जो लिया है उतना व उससे कुछ अधिक लौटाने का एक एक प्रयास यज्ञ के अनुष्ठान से किया जाता है। हम वायु व जल की शुद्धि के लिये यज्ञ अवश्य करें और अपने जीवन में स्वच्छता व शुद्धि रखने के स्वभाव को धारण कर अपने आसपास व कहीं भी अस्वच्छता को न फैलाएं। आधुनिक विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है। इसीलिये हम अस्पतालों में देखते हैं कि वहां पर रोगी के कमरे व वार्डो को दिन में कई बार जल आदि से फर्श को धोकर व भूमि को शुद्ध किया जाता है। जिस स्थान पर सरकारी सभायें आदि होती हैं उस स्थान पर सरकारी खर्चे से इत्र छिड़के जाते हैं। यह भी एक प्रकार का छोटा यज्ञ ही है। ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि इन इत्र छिड़कने आदि कार्यों से वह शुद्धि सम्पादित नहीं होती जो अग्निहोत्र यज्ञ करने से होती है। अग्निहोत्र में जो घृत आदि पदार्थ डाले जाते हैं उनकी भेदन सामथ्र्य अत्यधिक प्रबल हो जाती है। इसका उदाहरण मिर्च को अग्नि में जलाने से दिया जाता है। यदि अग्नि में एक सूखी मिर्च डाल दी जाये तो वहां व उस स्थान से काफी दूर तक उसकी महक व गन्ध से बैठा रहना दूभर व असम्भव सा हो जाता है। यह अग्नि द्वारा उस पदार्थ को सूक्ष्म कर उसकी भेदन क्षमता में वृद्धि के कारण होता है। अतः वायु को शुद्ध करने व उसे हानिकारक किटाणुओं के दुष्प्रभाव से बचाने के लिये प्रातः सायं उत्तम समधिाओं के द्वारा तीव्र अग्नि प्रदीप्त कर गो घृत तथा साकल्य से यज्ञ अवश्य करना चाहिये।

यज्ञ इसलिये भी हमें करना चाहिये क्योंकि इसकी आज्ञा परमेश्वर ने वेदों में की है। हमारे सभी पूर्वज वा ऋषि-मुनि-योगी अपने जीवन में यज्ञ करते रहे हैं। हमारे ऋषियों व विद्वानों ने विज्ञान की अपने समय में प्रशंसनीय सेवा की है। उनके पास अनेक प्रकार के शस्त्र थे जो आज भी विज्ञान निर्मित नहीं कर पाया है। हमारे देश में पुष्पक विमान एवं सुदर्शन चक्र जैसे शस्त्र भी थे। राम चन्द्र जी ने व उनके सहयोगियों ने उस वैदिक युग में रामेश्वर से लंका तक राम सेतु का निर्माण किया था। लंका के अन्यायी राजा रावण को उसके घर में जाकर उसके दोष बताकर राम ने उसका वध किया था जिससे उससे त्रस्त धर्मात्मा ऋषियों व अन्य लोगों को शान्ति मिली थी। बाल्मीकि रामायण में रामचन्द्र जी ने सुग्रीव को अपनी सामथ्र्य का अहसास कराने के लिये अपने धनुष से एक बाण चला कर एक सीध में खड़े कई वृक्षों को धराशायी कर दिया था। आज सोने के भाव देखकर लोग अचंभित हैं। राम चन्द्र जी के युग में सभी लोग स्वर्ण धारण करते थे। लंका को तो स्वर्ण की बनी हुई कहा जाता था। हमें आर्यसमाज के विद्वान पं0 रुद्रदत्त शास्त्री की 1970-1980 के दशक में सुनी बाल्मीकि रामायण की कथायें स्मरण आ रही हैं। वह स्वर्णमयी लंका का बहुत प्रभावशाली एवं रसमय वर्णन करते थे। वह बताते थे कि लंका के वृक्ष भी स्वर्ण से देदीप्यमान रहते थे। हम इतना तो स्वीकार कर ही सकते हैं कि लंका धन-धान्य से सुखी व समृद्ध थी। राम भी लक्ष्मण को एक स्थान पर प्रसंगानुसार कहते हैं कि यद्यपि लंका स्वर्ण की है परन्तु यह मुझे आकर्षित व लुभाती नहीं है। इसके आगे उन्होंने कहा कि लक्ष्मण! मां और मातृभूमि स्वर्ग व स्वर्ण से भी बढ़कर हैं। राम ने यह सन्देश दिया है कि हमारी मां और मातृभूमि से बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है। हमारे देश के जो क्रान्तिकारी व सैनिक देश की रक्षा व स्वतन्त्रता के लिये शहीद हुए हैं उन्होंने वास्तविक रूप में मातृभूमि का ऋण चुकाया है। राम ने भी मातृभूमि वा देश और धर्म सहित स्त्री जाति के सम्मान के लिये ही रावण के दम्भ व अहंकार को कुचल कर उसके धर्म पाराण्य छोटे भाई को लंका का राजा बनाया था।

यह भी बता दें कि हमारे समस्त ऋषि मुनि, राम व कृष्ण भी यज्ञ करते थे। उनकी सन्तान होने के कारण हमें भी उनकी परम्पराओं की रक्षा करनी है। यदि हम इस कार्य में प्रमाद करते हैं तो हम कृतघ्न कहला कहलायेंगे। विचार करने पर हमें यह भी अनुभव होता है कि मनुष्य का जीवन सुख-सुविधाओं हो ही भोगने के लिये नही है अपितु यह श्रेष्ठ कर्म करने के लिये परमात्मा से मिला है जिसमें ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र सहित परोपकार, दान, दीन- दुखियों की सेवा सहित वेद की सभी आज्ञाओं का पालन करना धर्म है। सुख भोग से तो मनुष्य की इन्द्रियां व शरीर कमजोर व रोगी बनती हैं। अतः अपनु मनुष्य जीवन को वेद की शिक्षाओं के अनुसार संतुलित रखना व चलाना आवश्यक है। यही हमें सुख, यश व मोक्ष की ओर ले जा सकते हैं। हम अग्निहोत्र यज्ञ विषयक विद्वानों के ग्रन्थों को पढ़े। डा0 रामनाथ वेदालंकार की यज्ञ-मीमांसा अग्निहोत्र विषयक पुस्तक एक अच्छा ग्रन्थ है। अनेक विद्वानों ने अनेक उत्तम ग्रन्थ लिखे हैं। इन्हें हमें पढ़ना, जानना व समझना है और इसका प्रयोगात्मक लाभ भी लेना है। इसी से हमारा कल्याण सम्भव है। ओ३म् शम्।
मनमोहन कुमार आर्य

Comment:Cancel reply

Exit mobile version