संस्थानों को नये स्वरूप में गढ़ सकते हैं व्यक्ति

एक सामान्य सी अपेक्षा रहती है कि हर संवैधानिक एवं अन्य संस्थान स्वतंत्र व पारदर्शी रूप से कार्य करे। बेशक किसी भी संगठन की ढांचागत व्यवस्था उसमें निष्पक्ष प्रदर्शन की नींव डालती है, लेकिन न्याय के लक्ष्य को हासिल करने में उस संगठन में कार्यरत व्यक्तियों की भी अहम भूमिका रहती है। जब कोई नाकारा या निष्क्रिय व्यक्ति किसी महत्त्वपूर्ण पद पर बैठा दिया जाता है, तो वहां से पारदर्शिता के साथ उच्च प्रदर्शन का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता.
इस विषय पर अब तक एक विस्तृत चर्चा हो चुकी है कि विभिन्न संस्थानों की स्वायत्तता कैसे सुनिश्चित की जा सकती है। आम तौर पर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में शक्तियों के विभाजन को स्वायत्तता का एक प्रभावशाली संवैधानिक तरीका माना जाता है। एक सामान्य सी अपेक्षा रहती है कि हर संवैधानिक एवं अन्य संस्थान स्वतंत्र व पारदर्शी रूप से कार्य करे। बेशक किसी भी संगठन की ढांचागत व्यवस्था उसमें निष्पक्ष प्रदर्शन की नींव डालती है, लेकिन न्याय के लक्ष्य को हासिल करने में उस संगठन में कार्यरत व्यक्तियों की भी अहम भूमिका रहती है। जब कोई नाकारा या निष्क्रिय व्यक्ति किसी महत्त्वपूर्ण पद पर बैठा दिया जाता है, तो वहां से पारदर्शिता के साथ उच्च प्रदर्शन का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। तमाम तरह की सुविधाओं के बावजूद ऐसे व्यक्ति कत्र्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहते हैं। इसके बारे में तो काफी कुछ लिखा जा चुका है कि विभिन्न व्यक्तियों ने बड़े कार्यकारी ओहदों को संभाला या सरकार की विभिन्न संस्थाओं में सेवाएं दीं, लेकिन ऐसे विरले ही उदाहरण देखने को मिलते हैं, जिन्होंने अपने अथक परिश्रम की खूबी के दम पर समूचे संस्थान की तहजीब ही बदल कर रख दी।
मेरे जहन में ऐसा पहला उदाहरण पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन का आता है। उन्होंने जब चुनाव आयोग को संभाला, तो उनके व्यक्तित्व और उनकी कार्यशैली को देखते हुए वह नौकरशाही के बीच लड़ाकू बैल की तरह जाने जाते थे। मैं उन्हें अच्छे से जानता हूं। चुनावी प्रक्रिया को भ्रष्टाचार से मुक्त बनाने, लक्ष्यों को हासिल करने और चुनाव आयोग की कार्यपद्धति को पक्षपात रहित बनाने के लिए टीएन शेषन का उल्लेख करना जरूरी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि चुनाव आयोग राजनीतिक दृष्टि से सभी की नजरों में हमेशा बना रहता है, क्योंकि सभी चुनाव लडऩा चाहते हैं और उसमें विजयी होने की इच्छा भी रखते हैं। वह निहित स्वार्थों के खिलाफ हमेशा चट्टान के समान खड़े रहे और कमोबेश चुनाव आयोग को भी इसी तरह की संस्था बना दिया। अपने कार्यकाल में उन्होंने कई ऐसे कदम उठाए, जिन्होंने चुनावी प्रक्रिया को साफ-सुथरा बना दिया। टीएन शेषन के आयोग में आने से पहले न तो कोई चुनाव आयोग को इस रूप में जानता था और न ही इसकी कोई परवाह करता था। उन्होंने मतदान के लिए मतदाता पहचान पत्र की शुरुआत की थी। यह पहचान पत्र आज के संदर्भों में मतदान का लाइसेंस बन चुका है और इसके बिना कोई भी मतदान नहीं कर सकता।
इन मूल दस्तावेजों के मार्फत जाली मतदान को एक बड़ा झटका लगा। इतना ही नहीं, चुनाव के दौरान शराब वितरण, प्रचार के लिए लाउडस्पीकरों के उपयोग और चुनाव से ऐन पहले होने वाले दुष्प्रचार पर पाबंदियां लगवा दीं। चुनावों को निष्पक्ष रूप से आयोजित करवाने के लिए उन्होंने राज्य सरकारों के अधिकारियों को तैयार करवाया।  दायित्वपूर्ण दृढ़ता तथा कत्र्तव्यनिष्ठा के लिए उन्हें राजकीय सेवा श्रेणी में 1996 का मेग्सेसे पुरस्कार प्रदान किया गया। मैंने उन्हें सम्मानार्थ प्रोफेसर की भूमिका में आकर विद्यार्थियों को पढ़ाने को प्रस्ताव दिया और उन्होंने सहर्ष बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ अपने जीवन के कई महत्त्वपूर्ण अनुभव साझा किए। मैं भी टीएन शेषन के उन कुछेक समर्थकों में था, जो उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए प्रबल दोवेदार मानते थे। लेकिन जैसा कि अपेक्षा भी थी, वह चुनाव फिर पार्टी की लाइन पर चला गया। पद के मान और अपमान की यह अवधारणा उस वक्त मेरे ख्याल में आई, जब पूर्व सीबीआई निदेशक जोगिंद्र सिंह का निधन हो गया। वह एक खुशमिजाज इनसान थे और मुस्कान कभी भी उनके चेहरे से दूर नहीं होती थी। उन्होंने बाफोर्स, चारा घोटाला और दूरसंचार सरीखे कई संवेदनशील मामलों को सुलझा दिया था। उनके एक चाहने वाले ने श्रद्धांजलि स्वरूप कहा था कि निदेशक के तौर पर सेवाएं देते हुए उन्होंने बिना किसी डर के कई संवेदनशील मामलों को सुलझाया और उन्होंने एक आदर्श की तरह कार्य किया। उन्होंने 25 महत्त्वपूर्ण किताबें लिखीं और नियमित तौर पर अखबारों के लिए भी लेख लिखते रहे। कत्र्तव्य परायणता के साथ-साथ वह एक ईमानदार आदमी थे, जिन्होंने कभी अपने मित्रों का नाजायज फायदा नहीं उठाया।
एक दिन जब एमबीए के लिए साक्षात्कार लिए जा रहे थे, तो मैंने पाया कि एक लडक़ी ने अपने फार्म में जो पता लिखा है, वह मेरी जान-पहचान का ही है। यह कैसे हो सकता है, यह तो मेरे मित्र जोगिंद्र सिंह के घर का पता है। उसने मुझे बताया कि वह जोगिंद्र सिंह की ही बेटी है। यह जानकर मुझे गुस्सा भी आया और मैंने जोगिंद्र सिंह से पूछ ही लिया कि आपने मुझे इसके बारे में बताया क्यों नहीं? वह मेरी बात पर हंस पड़े और मुझे जवाब दिया कि मैं अपने किसी भी व्यक्तिगत काम के लिए अपनी दोस्ती का फायदा नहीं उठाना चाहता था। मैं आज तक ऐसे किसी मां-बाप से नहीं मिला, जो इतनी उच्च श्रेणी की कत्र्तव्यनिष्ठा रखता हो। उसने कभी शराब को हाथ भी नहीं लगाया और यह उन लोगों के लिए एक प्रताडऩा के समान था, जो रात्रि भोज पर आध्यात्मिक चर्चाओं के बजाय शराब पीना पसंद करते थे। एक बार जब नार्कोटिक्स नियंत्रण ब्यूरो के महानिदेशक रहते हुए हमें रात्रि भोज के लिए आमंत्रित किया, तो हमारी खुशी का कोई ठिकाना न रहा कि अब तो कुछ मादक द्रव्य जरूर परोसे जाएंगे। हालांकि हमारी खुशी ज्यादा वक्त के लिए नहीं टिक पाई और जब हम खाने पर पहुंचे, तो भोज हमेशा की तरह रूखा-सूखा ही था।मैं पाठकों के समक्ष अपने विचार रखने की कोशिश कर रहा हूं कि किस तरह से संविधान प्रदत्त शक्तियों से इतर भी व्यक्ति बदलाव ला सकता है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति अपने पेशे को कैसे लेता है और कैसे उसे नई दिशा देता है। आज हमारे देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर हमें प्रधानमंत्री के रूप में ऐसा व्यक्ति मिला हुआ है, जिसने इस पद की भूमिका में विशाल परिवर्तन ला दिया है। उनकी कार्यपद्धति उनके पूर्ववर्तियों से कई मायनों मंआ अलग दिखती है। साहस और गहन प्रतिबद्धता को देखकर पूर्व में कार्य कर चुके कुछ लोग हो सकता है उनसे कुढ़ते भी हों। कोई भी संरचना शक्तियों के खाली पिटारे की तरह होती है, जिसे व्यक्ति अपनी योग्यता और दूरदृष्टि से भरता है।

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