वाणी और व्यवहार का, मन होता आधार

बिखरे मोती-भाग 216

गतांक से आगे….
गतिशील रहता है सातवें प्रश्न का उत्तर इसे सत्व गुण की प्रधानता से काबू किया जा सकता है।
प्रश्न का उत्तर-मन के सहयोग के बिना कोई भी ज्ञानेन्द्रीय अथवा कर्मेेन्दीय अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होती है। शरीर का सभी ज्ञान-व्यापार अथवा कर्म -व्यापार मन के सहयोग से ही चलता है।
नौवें प्रश्न का उत्तर-विषय मात्र के ज्ञान का क्षणांश में आदान प्रदान कराने वाला, सब इन्द्रियों से कार्य लेने वाला, इन्द्रियों का जो स्वामी है, वह ‘मनस्तत्व’ है।
प्रसंगवश यहां यह बताना भी आवश्यक है कि मन के तीन गुण होते हैं-सतोगुण, तमोगुण और रजोगुण। मन में जिस वक्त जिस गुण की प्रधानता होती है, हमारे व्यक्तित्व पर उस समय उसी तत्व की अमिट छाप परिलक्षित होती है। मन में जैैसा चिन्तन चल रहा होता है, हमारी क्रियाएं वैसी ही होती हैं। ये क्रियाएं ही हमारी आदतों का निर्माण करती हैं और आदतों के समूह से मनुष्य का स्वभाव बनता है। यह स्वभाव ही हमारे व्यक्तित्व का दर्पण है।
हमारा मन अनन्त शक्ति का भण्डार है। मन एक सीढ़ी की तरह है जो हमें सफलता के शिखर पर पहुंचा सकता है और पतन के गर्त में भी पहुंचा सकती है। मन की शक्तियों को किसी एक अभीष्ट लक्ष्य पर लगाया जाए तो सफलता अवश्य मिलती है। इसलिए आवश्यकता मन को एकाग्र करने की है। मन की तन्मयता में वह शक्ति है जो इस लोक का ही नहीं परलोक का भी कल्याण कर सकती है, मोक्ष प्राप्त करा सकती है। ऐसे अनेक सन्त, ऋषि, महात्मा, सिद्घ पुरूष हुए हैं जो ध्यानस्थ हुए और मोक्ष को प्राप्त हो गये। उदाहरण के लिए महात्मा गौतमबुद्घ और भगवान महावीर स्वामी को ले लीजिए-महात्मा गौतम बुद्घ ने अपने मन की सारी शक्तियों को-‘करूणा’ पर केन्द्रित कर दिया, जबकि भगवान महावीर स्वामी ने अपने मन की सारी शक्तियों को-अहिंसा पर केन्द्रित कर दिया। दोनों महात्माओं ने करूणा और अहिंसा को विस्तार दिया तथा इनका ही जीवन पर्यन्त प्रचार-प्रसार किया और मोक्ष को प्राप्त हो गये। ध्यान रहे, मन की एकाग्रता में भी पवित्रता का होना नितान्त आवश्यक है क्योंकि एकाग्र तो बगुला भी होता है,- किंतु उसके मन में पवित्रता नहीं होती है वह मछली को निगलने की ताक में रहता है। एकाग्रता और पवित्रता का उदाहरण देखना है तो पपीहे की देखिये, जो स्वाति नक्षत्र की बूंद के लिए ध्यानस्थ रहता है।
सारा जग सापेक्ष है,
सम्यक कर व्यवहार।
वाणी और व्यवहार का,
मन होता आधार ।। 1150 ।।
व्याख्या-परमाणु बम के जनक आइनस्टाइन विश्व विख्यात वैज्ञानिक थे उन्होंने विश्व को समय सापेक्षता का सिद्घान्त दिया था। उन्होंने कहा था-दोलन को आप जिस स्थान से छोड़ोगे दोलन लौटकर उसी स्थान पर आता है-यही दशा मानवीय व्यवहार की है अर्थात हम जैसा व्यवहार संसार के साथ करेंगे लौटकर वही व्यवहार हमारे पास आता है। यूरोप के प्रसिद्घ दार्शनिक ‘हीगल’ और ‘कान्ट’ ने भी ‘क्रिया से प्रतिक्रिया’ का सिद्घान्त दिया था। उपरोक्त विचारकों का मूल अभिप्राय यह है कि ‘जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे।’ हमेशा याद रखो, मानवीय व्यवहार का आधार वाणी है और वाणी का आधार मन है। मन में उठने वाले विचारों को शब्दों का कलेवर वाणी ही देती है, उनकी अभिव्यक्ति करती है। वाणी का मूत्र्त रूप ही हमारा व्यवहार बनता है। भाव यह है कि जैसा मन होगा, वैसी वाणी होगी, और जैसी वाणी होगी, व्यवहार वैसा ही परिलक्षित होगा। क्रमश:

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