चित्त की वृत्तियां और उनका निरोध

हमारे शरीर में स्थित अंतःकरण में चित्त स्थित होकर अपना कार्य करता है। उसका बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। चित् से वृत्तियां उठा करती हैं। चित्त से उठने वाली ये वृत्तियां दो प्रकार की होती हैं – प्रथम बहुमुखी और द्वितीय अंतर्मुखी।

मनुष्य को सफल जीवन जीने के लिए चित्त की वृत्तियों को एकाग्र करना चाहिए । क्योंकि इनके एकाग्र हो जाने से मनुष्य के लिए संसार अधिक से अधिक सुखदायी हो जाता है। सांसारिक

सुख यदि प्राप्त करना है तो चित् की एकाग्रता बहुत आवश्यक है । सांसारिक सुख न तो अच्छे स्वादिष्ट भोजन में हैं , ना ही कीमती पोशाकों के पहनने में है , तथा ना ही अन्य विषयों में हैं । वह केवल एक प्रतीति मात्र है। इसीलिए कवि ने बहुत सुंदर कहा है :–

मगन ईश्वर की भक्ति में

अरे मन क्यों नहीं होता ।

दमन कर चित्त की वृत्ति

लगा ले योग में गोता।।

जब तक चित्त एकाग्र रहता है, तब तक चित्त की वृत्तियां अपने काम में लगी हुई और तत्परता के साथ अपना काम कर रही होती हैं । यहाँ तक कि आत्मा की बहिर्मुखी वृत्ति ही काम करती है । चित्त की एकाग्रता बहिर्मुखी वृत्ति का जागृत करना है । उसको जगाना जिसके जागृत करने में या काम में लाने में या व्यवहार में लाने में साक्षात साधन ज्ञात नहीं हैं । चित्त की वृत्तियों को रोकने के लिए अर्थात उनका निरोध करने के लिए योग बहुत आवश्यक है।

चित्त को यदि एक सरोवर मानें तो सरोवर में उठी हुई लहरों को चित्त की वृत्तियां मानना पड़ेगा । इस चित्त के सरोवर का एक किनारा बुद्धि से मिला हुआ आत्म रूपी गंगा की ओर है और उसका दूसरा विरोधी किनारा इंद्रियों से मिला हुआ जगत की ओर है। चित्त के सरोवर में उठने वाली वृत्ति रूपी लहरें पांच प्रकार की होती हैं :–

१ — प्रमाण अर्थात प्रत्यक्ष , अनुमान और आगम

२ — विपर्यय अर्थात नक्शा ज्ञान

३– विकल्प अर्थात वस्तु कल्पित नाम

४ — निद्रा अर्थात सोना

५ — स्मृति अर्थात पूर्व श्रुत और दृष्ट पदार्थ का स्मरण।

उपरोक्त पांचों व्रतियों के अलावा और कोई वृत्ति नहीं हो सकती। वृत्ति अच्छी हो या बुरी सभी इन पांचों में समाहित होती हैं। वृत्तियों को समस्त रूप से अच्छा या बुरा भी नहीं कह सकते । इनमें दोनों प्रकार की बातें समाहित हैं , परन्तु ये सबकी सब इंद्रियों के माध्यम से जगत की ओर जाने वाली हैं।

चित्त को एकाग्र किए बिना निरोध नहीं कर सकते ।इस प्रकार चित्त को निरोध करने के लिए एकाग्र करना जरूरी है , तो चित्त को एकाग्र कैसे किया जा सकता है ? चित्त को एकाग्र करने के पश्चात निरुद्ध करने के लिए योग एकमात्र साधन है , जो मनुष्य की आत्मिक उन्नति में सर्वोत्तम साधन होता है ।

योग के आठ अंग होते हैं :–

१- यम , २ – नियम, ३ – आसन , ४ – प्राणायाम , ५ – प्रत्याहार , ६ – धारणा , ७ – ध्यान , ८ – समाधि ।

इनमें यम सर्वप्रथम है । एक मनुष्य को सुख – दुख दो प्रकार से मिलते हैं । एक मनुष्य के अपने स्वयं के कर्म फल और दूसरे अन्य के कर्म से सुख-दुख मिल सकता है , इसलिए मनुष्य को चाहिए कि स्वयं अच्छा बनने के साथ-साथ अपने पड़ोसियों को भी अच्छा बनाएं । क्योंकि यदि मनुष्य अपने को अच्छा बना ले और पड़ोसी अच्छे न हों तो भी उसको सुख नहीं मिलेगा , बल्कि उसे हमेशा पड़ोसियों के दुष्ट कर्मों से दुखी होता रहना पड़ेगा और चारों ओर शांति का वातावरण उत्पन्न नहीं हो पाएगा । जबकि योग के लिए चारों ओर शांति का वातावरण होना आवश्यक है ,अन्यथा व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता । चारों तरफ शांति उत्पन्न करने के लिए वातावरण को शांतिपूर्ण बनाने के लिए यम के भी ५ उपांग हैं , जो निम्न प्रकार है :–

अहिंसा, सत्य ,अस्तेय, ब्रह्मचर्य ,अपरिग्रह।

मनसा -वाचा – कर्मणा अर्थात मन , वचन और कर्म से मनुष्य को शुद्ध होना चाहिए । जब ऐसा हो जाता है तो सभी आसपास के प्राणी ऐसे मनुष्य के प्रति शत्रुता का भाव त्याग देते हैं। प्राचीन काल के चित्रों में जो भी हमको दिखाए जाते हैं किसी ऋषि या योगी के आश्रम जो जंगल में होने दिखाए जाते हैं और वहीं पर हिंसक शेरा आदि पशु भी घूमते हुए दिखाई जाते हैं । वे सारे हिंसक पशु अहिंसक हो जाते हैं। हिंसक पशु अपनी हिंसा प्रवृत्ति को त्याग देते हैं और इस प्रकार रहते हैं जैसे कि वे उनके पालतू हों।

संसार में किसी भी मनुष्य को अपनी उन्नति में संतुष्ट न रहकर सबकी उन्नति करनी चाहिए और सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए । इस भाव को महर्षि स्वामी दयानंद ने आर्य समाज के नियम संख्या 9 में इसीलिए संपादित किया । यह भाव पूरे परिवार के लिए यदि पूरे विश्व के लिए सृष्टि और समष्टि के लिए आ जाए तो मनुष्य की पूजा होने लगती है । सिर्फ एक ही भाव के कारण संसार के सब लोग उसको प्रेम करने लगते हैं । अतः सब उसके सहयोगी हो जाते हैं और सब उसके साथ जुड़ने में अपना सौभाग्य समझते हैं।

दूसरा उपांग सत्य है । प्रथम स्थिति में अहिंसा को प्राप्त करने के पश्चात एक मनुष्य जब कुछ बोलता है तो उसकी वाणी से बोला हुआ प्रत्येक शब्द सत्य हो जाता है । कहने का अभिप्राय है कि अपने मन में,अपनी वाणी में ,अपने कर्म में सत्य का अवलंबन अवश्य करना चाहिए ।

तीसरा अवयव अस्तेय है अर्थात मन , वचन और कर्म से किसी की चोरी न करना, चोरी की भावना ही ना हो उसको अस्तेय कहा जाता है।

इसी एक गुण के कारण पूरे विश्व में ‘रामराज्य’ आ सकता है । जिसकी हम केवल कल्पना करते हैं वह क्रियात्मक रूप में आ जाएगा। चाहे किसी की कितनी भी बहुमूल्य वस्तु कहीं रखी हो , पड़ी हो , जब हम उसको लेंगे नहीं, चोरी करेंगे नहीं तो उस समय ‘रामराज्य’ स्थापित हो जाएगा। रामचंद्र जी महाराज के शासनकाल में प्रजा ऐसे ही दिव्य भावों से भरी हुई थी , इसीलिए विश्व समाज में उनके उस दिव्य ‘रामराज्य’ की कल्पना की गई है। चोरी न करने का एक दिव्य गुण यदि समाज में लोगों के भीतर आ जाए तो संसार के अनेकों झगड़े , दंगे व फसाद समाप्त हो सकते हैं।

चौथा उपांग ब्रह्मचर्य है । जिसका अर्थ है कि शरीर में उत्पन्न हुए रज वीर्य की रक्षा करते हुए लोकोपकारक विद्याओं का अध्ययन करना । मनुष्य के भीतर ब्रह्मचर्य से ‘मातृवत परदारेषु’ – की भावना उत्पन्न होकर उसे संसार के लिए निर्दोष बना देती है। इस भावना का अर्थ है कि दूसरे की पत्नी मातृ समान समझनी चाहिए । इस पर भी यदि गंभीरतापूर्वक विचार करें तो विश्व के झगड़े बहुत हद तक समाप्त हो जाएंगे और चारों तरफ शांति का वातावरण स्थापित हो जाएगा । महाभारत और रामायण जैसे युद्ध नहीं होंगे – जिनमें महिला के लिए युद्ध किया गया है ,

जितने बलात्कार और अपहरण के केस होते हैं वह सब नगण्य हो जाएंगे।

ब्रह्मचर्य का अर्थ विद्वानों के मतानुसार यह भी होता है कि इस अवधि में व्यक्ति को केवल ब्रह्म में विचरण करना चाहिए । इसको भी ब्रह्मचर्य कहा गया है। इस मत के अनुसार भी जो ब्रह्म में विचरण करता हुआ होगा , उसके अंदर पाप भावना होगी ही नहीं । जहां पाप भावना नहीं होती , वहां किसी प्रकार का संताप नहीं होता और जहां संताप नहीं होता वहीं स्वर्ग होता है।

पांचवा उपांग अपरिग्रह होता है । धन संग्रह करने,रखने और खो जाने की तीनों अवस्थाओं को बताता है । धन का संग्रह करने ,रखने और खो जाने की तीनों अवस्थाओं में दु:ख ही उत्पन्न होता है ।मनुष्य को जीवन यात्रा पूरी करने के लिए जितनी आवश्यकता है , उतना धन चाहिए ।अधिक धन की इच्छा न करना ही अपरिग्रह कहा जाता है।

एक दृष्टांत के अनुसार एक ऋषि हैं , उनको कोई राजा प्रसन्न होकर के दान देना चाहता है । वह ऋषि अपनी पत्नी से पूछने के लिए आश्रम के अंदर जाते हैं। पत्नी से पूछते हैं कि सुबह का राशन है , पत्नी ने कहा कि ‘ है’। ऋषि ने आकर के राजा से क्षमा मांगते हुए कहा – ‘राजन सुबह के लिए तो है । इससे अधिक की आवश्यकता नहीं ।’ कितना उच्च कोटि का आदर्श है – इस दृष्टांत में । यदि इसे हम सभी अपने जीवन में अंगीकार करने लगें तो कल्पना करो, संसार स्वर्ग बन जाएगा ।

उपरोक्त पांचों अभ्यासों के करने से मनुष्य अपने चारों तरफ ऐसा वातावरण उत्पन्न करने में सफल हो जाता है जिसमें उसको किसी दूसरे के कर्मों से दु:खी नहीं होना पड़ता।

२- नियम

नियम योग का वह अंग है जिसमें व्यक्ति को अपने कर्मों से अथवा अपने कर्म फल से दुखी न होना पड़े। इसलिए मनुष्य को नियम का पालन करना चाहिए। नियम के भी पांच ही उपांग होते हैं । जो निम्न प्रकार है :-

शौच :- बाह्य और अंतः करणों को शुद्ध रखना ही शौच है , शुचिता है। पवित्रता है।

संतोष :– अपने पुरुषार्थ से जो कुछ प्राप्त हो जाए उससे अधिक की इच्छा नहीं करना और दूसरों के धन आदि को अपने लिए लोहे के समान समझना ही संतोष है। सत्व के प्रकाश में चित्त की प्रसन्नता का नाम संतोष बताया गया है।

तप :– द्वंद्वों को सहन करने की शक्ति का नाम तप है। शीतोष्ण, सुख-दुख आदि को एक जैसा समझते हुए नियमित और संयमित जीवन व्यतीत करना तप कहलाता है।

स्वाध्याय :– ओमकार का श्रद्धापूर्वक जप करना और वेद , उपनिषद् आदि उद्देश्य सदग्रंथों का निरंतर अध्ययन करना स्वाध्याय है। दूसरे मत के अनुसार अपने आपको स्वयं को पढ़ना कि मैं कहां से आया हूं ? मैं कौन हूं ? मुझे कहां जाना है ? मेरा इस जीवन में आने का क्या उद्देश्य है ? – का अध्ययन करना भी स्वाध्याय कहा जाता है।

ईश्वर प्रणिधान :- ईश्वर का प्रेम हृदय में रखते हुए और उसको अत्यंत प्रिय और परम गुरु समझते हुए अपने समस्त कर्मों को उसके अर्पण करना।

इन 5 उपनियमों के पालन करने से मनुष्य अपने को इस योग्य बना लेता है कि अधर्म और पाप से संपर्क न रख सके ।इन पांच उपांगों के पालन करने से मनुष्य नियमों के पालन करने में भी समर्थ हो जाता है , और नियमों के पालन करने से यमों के अनुकूल आचरण रखने में उसकी अभिरुचि बढ़ जाती है।

3 – आसन

सुखपूर्वक बैठने को आसन कहते हैं ।यद्यपि आसनों की संख्या 84 कही जाती है और उनमें से प्रत्येक की उपयोगिता भी है , परंतु राजयोग में आसन सुख पूर्वक बैठने का ही नाम है । जिससे वह किसी आने वाली परेशानी से बच सके और बिना किसी विघ्न के आराम से सुखपूर्वक बैठकर ईश्वर का ध्यान लगा सके।

आसन की अवस्था से व्यक्ति का विभिन्न प्रकार के दु:ख – द्वंद्वों पर नियंत्रण स्थापित होता है । यहां तक कि भूख भी नियंत्रित हो जाती है और उसे किसी प्रकार के कष्ट क्लेश नहीं सताते । मन धीरे -धीरे अपनी चंचलता छोड़कर एकाग्रता को प्राप्त करने लगता है और प्रभु भजन में उसका टिकना संभव होने लगता है।

देवेंद्र सिंह आर्य

चेयरमैन : उगता भारत

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