बालक मूल शंकर सच्चे शिव और मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के संकल्प से ऋषि बने

ओ३म्

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महाभारत युद्ध से पूर्व व महाभारत तक हमारे देश में वेद के ज्ञानी ऋषियों की परम्परा रही है। ऋषि उसे कहते हैं जो वेदों का ज्ञानी, योगी तथा समाधि को प्राप्त कर ईश्वर का साक्षात्कार किया हुआ हो। वेद परमात्मा का ज्ञान है जो सभी प्रकार की अविद्या एवं अन्धविश्वासों से मुक्त है। ऋषि सभी विषयों में निभ्र्रान्त ज्ञान वाला होता है। इस कोटि का महाभारत के बाद एक ही मनीषी उत्पन्न हुआ जिसे हम ऋषि दयानन्द के नाम से जानते हैं। हमारे ऋषि दयानन्द गुजरात के सौराष्ट्र में मोरवी के निकट टंकारा नामक एक कस्बे में जन्में थे। इनका नाम मूलशंकर था। अपनी आयु के 14वे वर्ष में इन्होंने शिवरात्रि का व्रत किया था जहां चूहों द्वारा शिव लिंग पर उछल कूद को देखकर उनको मूर्ति की शक्तियों में सन्देह हो गया था। इसके परिणामस्वरूप उन्होंने मूर्तिपूजा करना छोड़ दिया और सच्चे शिव की खोज का संकल्प लिया। कालान्तर में उनकी एक बहिन और चाचा की मृत्यु होने पर उनको वैराग्य हो गया और मृत्यु पर विजय पाने के उपायों को जानने व प्राप्त करने के लिये उन्होंने तप व पुरुषार्थ किया। उनके पिता उनके इस कार्य में सहयोगी नहीं थे अतः आयु के 22वे वर्ष में उन्होंने गृह त्याग कर दिया और धार्मिक विद्वानों व योगियों की शरण में जाकर उनसे शंका समाधान एवं उपदेश प्राप्त करते रहे। उनको अपनी इस यात्रा में जहां कोई धर्म संबंधी ग्रन्थ मिलता, उसका भी वह अध्ययन करते थे।

बचपन से ही बालक मूलशंकर कुशाग्र बुद्धि के थे। घर पर रहकर उन्होंने संस्कृत एवं वेदादि ग्रन्थों का अध्ययन किया था। घर से जाने के बाद वह विद्वानों से परामर्श तथा उपदेश प्राप्त करने सहित योग व ध्यान पर चर्चा करते और ईश्वर व धर्म विषयक ग्रन्थों को प्राप्त कर उनका अध्ययन करते थे। इस प्रकार उन्होंने अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया और योग विद्या में भी वह निपुण हुए। मथुरा में दण्डी स्वामी प्रज्ञाचक्षु गुरु विरजानन्द सरस्वती जी से उन्होंने वेदार्थ की अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति का अध्ययन किया। गुरु जी के उपदेशों से उनकी सभी भ्रान्तियां दूर हो गयी थी। लगभग तीन वर्ष 1860-1863 में गुरु के सान्निध्य में रहकर उन्होंने अपना अध्ययन पूरा कर लिया था। उन्हें सत्य व असत्य का निर्णय करने की कसौटी भी प्राप्त हुई थी। विद्या पूर्ण कर गुरु से विदा के समय गुरुजी ने उन्हें अपना जीवन देश से अज्ञान तिमिर को दूर करने तथा वेद विद्या के प्रचार व प्रसार में लगाने का परामर्श दिया। ऋषि दयानन्द ने अपने शेष जीवन में अपने गुरु की आज्ञा के अनुरूप ही कार्य व व्यवहार किया। भविष्य के उनके सभी कार्य गुरु की भावनाओं के अनुसार पुरुषार्थ व तप पूर्वक वेद प्रचार करते हुए व्यतीत हुए।

ऋषि दयानन्द ने गृह त्याग के बाद योगियों व ज्ञानियों की जो खोज की, उसके बाद स्वामी विरजानन्द जी, मथुरा को प्राप्त होकर अध्ययन किया तथा इसके बाद गुरु की प्रेरणा वा आज्ञा के अनुसार देश भर में घूम कर वेदों का प्रचार किया वह सब उनके उस संकल्प को बताता है जो उन्होंने अपनी आयु के 14वें वर्ष में शिवरात्रि के दिन लिया था। स्वामी दयानन्द ऋषि बने तो यह भी उनके संकल्पों तथा उसके लिये किये गये पुरुषार्थ का ही परिणाम था। गुरु विरजानन्द जी की पाठशाला में अध्ययन और यहां से उनकी विदाई तक का समय उनके भावी जीवन में वेदज्ञान के प्रचार तथा समाज सुधार कार्यों की भूमिका रूप में था। योग एवं समाधि में वह सिद्ध हो चुके थे। प्रातः व रात्रि वह समाधिस्थ होकर ईश्वर का ध्यान करते और उससे प्रेरणा एवं शक्ति प्राप्त करते थे। स्वामी दयानन्द जी ने गुरु से विदा लेने के बाद जो प्रमुख कार्य किये उसमें वेद प्रचार सहित काशी में लगभग 30 शीर्ष विद्वानों से दिनांक 16-9-1869 को किया मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ था। सन् 1875 तक वह देश भर में घूम कर प्रचार करते रहे। दिनांक 10 अप्रैल, 1875 को उन्होंने लोगों के अनुरोध पर मुम्बई में वेद प्रचारक संगठन वा आन्दोलन आर्यसमाज की स्थापना की। इससे पूर्व वह राजा जयकृष्ण दास की प्रेरणा से वैदिक मान्यताओं व मत-मतान्तरों की समीक्षा का ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ लिख चुके थे जो प्रकाशित हो गया था। उनका लिखा पंचमहायज्ञ विधि लघु ग्रन्थ भी प्रकाशित हो गया था। इसके बाद के वर्षों ने ऋषि दयानन्द ने वेद प्रचार कार्यों व आर्यसमाज की स्थापनाओं को करते हुए अनेक ग्रन्थों की रचना की। इन ग्रन्थों में संस्कारविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय सहित यजुर्वेद एवं ऋग्वेद का भाष्य सम्मिलित है।

ऋषि दयानन्द ने जिन दिनों देश भर में जा जाकर प्रचार किया उन दिनों आजकल के समान यातायात एवं वाहनों सहित रेलगाड़ियों की सुविधा नहीं थी। ऐसा होने पर भी स्वामी जी ने पूरे पंजाब सहित महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि में सघन प्रचार किया जिसके शुभ परिणाम आज भी अनुभव किये जा सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने प्रचार से देश में अज्ञान पर आधारित सभी अन्धविश्वासों को दूर किया। सभी अज्ञान पर आधारित परम्पराओं का भी सुधार किया। सत्यार्थप्रकाश में उन्होंने देश देशान्तर के सभी मत-सम्प्रदायों की मिथ्या व अन्धविश्वासों से युक्त मान्यताओं की समीक्षा व असत्य एवं अज्ञान का खण्डन किया है। ऋषि दयानन्द ने मिथ्या जड़ पूजा को दूर करने के कार्य सहित वेद व योग पर आधारित सन्ध्या को प्रचलित किया। दैनिक अग्निहोत्र को भी उन्होंने देश में प्रवृत्त किया है। शिक्षा जगत में उनके और उनके अनुयायियों के कार्य देश को ज्ञान विज्ञान में आगे बढ़ाने वाले सिद्ध हुए हैं।

ऋषि दयानन्द के प्रयासों से ही देश में बाल विवाह तथा विधवा विवाह विषयक भ्रम व अज्ञान दूर हुआ। बाल विवाह बन्द हुए तथा कम आयु की विधवाओं का पुनर्विवाह प्रचलित हुआ। लोग जन्मना जाति छोड़कर गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर अपनी सन्तानों के विवाह करने लगे जिसमें अब विशेष गति आयी है। देश की आजादी को भी ऋषि दयानन्द की सर्वाधिक देन है। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश एवं आर्याभिविनय आदि अपने ग्रन्थों में देशवासियों को देश को स्वतन्त्र कराने की प्रेरणा की है। उनकी मृत्यु के षडयन्त्रों में यह भी एक कारण हो सकता है। उनके अनेक शिष्यों पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा, स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय, भाई परमान्द, रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद भगत सिंह आदि उनके सच्चे अनुयायी थे। ऋषि दयानन्द ऋषि परम्परा के प्रशंसक तथा राम व कृष्ण के कार्यों के प्रशंसक थे। वह वैदिक मान्यताओं को जानकर विवेकपूर्वक रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थों के अध्ययन के भी पक्षधर थे तथा इन इतिहास ग्रन्थों की अच्छी बातों से प्रेरणा ग्रहण करने को उन्होंने प्रेरित किया। स्वामी दयानन्द ने सदियों से बन्द पड़े वेदाध्ययन को प्रवृत्त कर एक महत्वपूर्ण कार्य किया। उनके अनुयायियों ने देश में न केवल गुरुकुल एवं डी0ए0वी0 स्कूल व कालेज आदि खोले अपितु लोगों को ईश्वर के आदेश ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” अर्थात् विश्व के सब मनुष्यों को वैदिक गुणों से युक्त श्रेष्ठ मनुष्य बनाओं के घोष से भी परिचित कराया। ऋषि दयानन्द ने जो यह सब कार्य किये उनसे पूर्व किसी ऋषि ने ऐसे कार्य नहीं किये। उन्होंने अपने समय की सभी चुनौतियों को स्वीकार किया था और वैदिक आर्य हिन्दू जाति की रक्षा व उनको संगठित करने के यथासम्भव प्रशंसनीय उपाय किये थे।

ऋषि दयानन्द ने जो महनीय कार्य वह उन्होंने ऋषि बनकर ही किये। यदि वह ऋषि न होते तो वह न तो सत्यार्थप्रकाश, संस्कारविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थ ही लिख पाते और न वेदभाष्य का कार्य कर पाते जो उन्होंने किया व जो वह कर रहे थे। उन्होंने आर्यसमाज जैसी वेदप्रचारक संस्था की स्थापना की, देश के अनेक भागों में आर्यसमाजों को स्थापित किया, पौराणिक मत व विधर्मियों से शास्त्रार्थ किये तथा वैदिक समाज बनाने सहित देश के लोगों को देश को स्वतन्त्र कराने की प्रेरणा की अपितु उन्होंने अन्धविश्वास व सामाजिक बुराईयों सहित अनुचित सामाजिक मिथ्या परम्पराओं को दूर करने का कार्य किया। वह बिना ऋषि बने यह सब कार्य नहीं कर सकते थे। हम कुछ विद्वानों को देखते हैं जो विधर्मी नास्तिक मतों के आचार्यों को भी ईश्वर मानते हैं, मांसाहार भी करते हैं। ऐसे लोग अपने विचारों को बदलते रहते हैं और उनके विचारों में विरोधाभाष पाया जाता है। ऋषि दयानन्द ने जीवन में न तो मान-सम्मान की परवाह की और न ही वह मृत्यु के भय से आतुर हुए, वह अपने प्राणों को बलिदान के लिए समर्पित कर कर्तव्य व वेद रक्षा के मार्ग पर आगे बढ़े और देश व विश्व के लोगों को सद्धर्म एवं सत्य के ग्रहण तथा असत्य के त्याग करने का सन्देश दिया। ऋषि दयानन्द ने महाभारत के बाद इस देश का तथा मानवजाति का जो उपकार किया है वह उनसे पूर्व व पश्चात किसी ने नहीं किया। उनका जीवन उनके शिवरात्रि पर बोध और मृत्यु पर विजय के संकल्पों से बना, पल्लवित व पुष्पित हुआ तथा ईश्वर उनकी अभिलाषाओं को पूर्ण करने में सहयोगी बने। हम यद्यपि ऋषि बोधोत्सव बनाते हैं परन्तु हम ऋषि दयानन्द की तरह सत्य को मानने व मनवाने तथा असत्य को छोड़ने व छुड़वाने में प्राणपण से संघर्ष नहीं करते। ऋषि दयानन्द को हम कोटिशः प्रणाम करते हैं। ईश्वर हमें शक्ति दे कि हम उनके बताये मार्ग का अनुकरण व अनुसरण कर सकें। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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