गणेश चतुर्थी की वास्तविकता
आज गणेश चतुर्थी है। मुझे नहीं पता कि इसको हम क्यों मनाते हैं।
मुझे यह भी नहीं पता कि गणेश आज के दिन पैदा हुए थे।
यदि किसी को जानकारी हो तो मेरा ज्ञानवर्धन करने की कृपा करें। मेरी अविद्या को दूर करने का कष्ट करें। मेरी अज्ञानता से पर्दा उठाएं।
यदि कुछ साथी ये कहें कि हां आज गणेश का जन्म हुआ था इसलिए गणेश चतुर्थी मना रहे हैं।
परंतु महर्षि दयानंद सरस्वती महाराज द्वारा कृत अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में ईश्वर के 100 नामों की व्याख्या की गई है और वहीं पर परमात्मा और जीव में अंतर भी बताया गया है।
उसके आधार पर यदि विश्लेषण करते हैं विवेचना करते हैं तो पाते हैं कि जिसका जन्म हुआ , वह मृत्यु को भी प्राप्त हुआ ।इसलिए वह जन्म और मृत्यु के बंधन में होने के कारण मात्र जीव हुआ ।वह ईश्वर अथवा परमात्मा नहीं हो सकता।
महर्षि दयानंद महाराज तैत्तिरीय उपनिषद के वचन के आधार पर लिखते हैं कि विराट, पुरुष, देव, आकाश, वायु ,अग्नि, जल, भूमि, आदि नाम लौकिक पदार्थों के भी होते हैं क्योंकि जहां-जहां उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, अल्पज्ञादि, जड़, दृश्य आदि विशेषण भी लिखे हों वहां-वहां परमेश्वर का ग्रहण नहीं होता। वह ( परमात्मा का ) उत्पत्ति आदि व्यवहारों से पृथक है और उपरोक्त मंत्रों में उत्पत्ति आदि व्यवहार हैं ।इसी से यहां विराट आदि नाम से परमात्मा का ग्रहण न होकर संसारी पदार्थ का ग्रहण होता है। किंतु जहां-जहां सर्वज्ञ आदि विशेषण हो वहां परमात्मा और जहां-जहां इच्छा, द्वेष, प्रयास ,सुख, दुख और अल्पज्ञ आदि विशेषण विशेषण हो वहां-वहां जीव का ग्रहण होता है। ऐसा सर्वत्र समझना चाहिए क्योंकि परमेश्वर का जन्म मरण कभी नहीं होता। इससे विराट आदि नाम और जन्म आदि विशेषणों से जगत के जड़ और जीव आदि पदार्थ का ग्रहण करना उचित है लेकिन परमेश्वर का नहीं।
तो यदि आप यह कहना चाहते हैं कि आज गणेश जी का जन्म हुआ तो इसका मतलब हुआ कि उनकी उत्पत्ति हुई थी, और वह शरीर की एक स्थिति में भी रहे , और प्रलय अर्थात मिट् भी गए ,वह अल्पज्ञ भी कहे जाएंगे, क्योंकि जीवात्मा तो अल्पज्ञ है। जीवात्मा सर्वज्ञ हो ही नहीं सकता।
जो अल्पज्ञ है सर्वज्ञ नहीं है तो वह परमात्मा कैसे?
उसकी उत्पत्ति होती है। इसलिए वह गणेश परमात्मा का स्थान नहीं ले सकता क्योंकि परमात्मा तो इन व्यवहारों उत्पत्ति स्थिति और प्रलय तीनों से अलग है। क्योंकि परमात्मा तो अजर ,अमर, सर्वांतर्यामी और सबको जानने वाला है। उसमें कोई इच्छा, द्वेष, प्रयत्न सुख-दुख ,अल्पज्ञता नहीं है। ये सब जीव में होती हैं। ये जीवात्मा के लक्षण है। ऐसा यदि संसार में हम सभी सही प्रकार से समझने लगें तो परमात्मा में और जीवात्मा में अंतर कर लेंगे।
यदि गणेश की उत्पत्ति हुई थी तो आज वह गणेश कहां पर है? उसको कोई सशरीर दिखा दे। यदि वह गणेश मर चुका है तो वह परमात्मा नहीं।
महर्षि दयानंद आगे लिखते हैं कि ‘गण संख्याने’ धातु से गण शब्द सिद्ध होता है। और इसके आगे ‘ईश ‘या ‘पति’ शब्द रखने से ‘गणेश ‘और ‘गणपति ‘शब्द सिद्ध होते हैं ।
“ये प्रकृत्यादि जड़ा जीवाश्च गणयन्ते संख्यायंते तेषामीश: स्वामी पति पालको वा”
जो प्रकृति आदि जड़ और सब जीव प्रख्यात पदार्थ का स्वामी व पालन करने वाला है ।इससे उस ईश्वर का नाम गणेश या गणपति है।
इसका तात्पर्य हुआ कि ईश्वर समस्त जगत का, पूरे गण का, पूरे समूह का ,पूरे समुदाय का ,पूरे ब्रह्मांड का , समस्त सृष्टि का स्वामी अथवा पति है। इसलिए उसके इस गुण के कारण उसको” गणेश” या “गणपति “कहा जाता है।
शिवजी के यहां पुत्र पैदा हुआ था हम उसको गणेश कह रहे हैं लेकिन वह तो सांसारिक है उसकी तो उत्पत्ति है , नियम के अनुसार जिसकी उत्पत्ति है तो उसका विनाश भी आवश्यक है। तो शिव जी के उस पुत्र गणेश का विनाश हो चुका है।
इस प्रकार की अविद्या जो हमारे अंदर फैली हुई है,का विनाश होना आवश्यक है। क्योंकि अविद्या से ही मनुष्य का पतन हुआ करता है।
शिवजी के पुत्र गणेश को ईश्वर मान लेना अविद्या ही तो है।
फिर गणेश की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करना भी अविद्या ही तो हुआ । इस प्रकार इन मूर्ति पूजकों का पतन नहीं तो और क्या होगा !
जो सारे समाज का भी पतन कर रहे हैं और स्वयं अपना पतन कर रहे हैं।
ईश्वर कभी जन्म नहीं लेता।
ईश्वर कभी साकार रूप में नहीं आता। ईश्वर का कोई उपादान कारण नहीं है। ईश्वर सबका कारण है। ईश्वर सबका कारण ही नहीं बल्कि सबका मूल कारण भी है। मूल का मूल नहीं होता अर्थात कारण का कोई कारण नहीं होता।
गणेश ने जो शरीर धारण किया उसका उपादान कारण प्रकृति है। वह शिवजी का पुत्र गणेश प्रकृति का उपादान कारण का कार्य शरीर रूप है।
वह गणेश( पुरुष) आत्मा है और वह गणेश सत, रज और तम प्रकृति के तीन उपादान कारण से बना हुआ शरीरधारी है।
अब प्रश्न उठता है कि यह सब संसार में क्यों होता है?
इसका उत्तर है कि यह सब अविवेक के कारण होता है। अविद्या के कारण होता है। क्योंकि अविवेक और विवेक दोनों में प्रतिद्वंदिता हैं। विवेक का होना मनुष्य के लिए पुण्य कार्य है। यही विवेक वैराग्य का कारण है ।वैराग्य समाधि का कारण है। समाधि मोक्ष का कारण है। विवेक कारण है वैराग्य का,और वैराग्य उसका कार्य है।
ऐसे ही समाधि कार्य है वैराग्य कारण है।
विवेक तीन प्रकार से प्राप्त होता है प्रत्यक्ष प्रमाण से ,अनुमान प्रमाण से और शब्द प्रमाण से। संसार में इसका सर्वाधिक कारण शब्द प्रमाण है। जैसे बहुत से ऋषियों ने वेदों का अध्ययन करके ही शब्दप्रमाण से वेदों के ज्ञान को प्राप्त किया और उनको प्रमाण मानकर पूर्ण श्रद्धा, निष्ठा और विश्वास के साथ कार्य करने से लक्ष्य को प्राप्त कर पाए थे ।ऐसे ही हमको अपने विवेक का अनुप्रयोग करना चाहिए तथा अविवेक तथा अविद्या से बचना चाहिए।
शिवजी भी एक जीवधारी थे शिव नाम परमात्मा का भी है और शिव एक जीवधारी का भी है ऐसा होता है आज भी बहुत सारे शिवकुमार ,शिवपाल, शिवदयाल ,शिवलाल, शिव, शिवा बहुत नाम है। लेकिन वह शिव जिनके पुत्र गणेश जी हुए थे वह स्वयं एक महायोगी और महापुरुष थे। वह एक राजा थे जिनका राज हिमालय की पहाड़ियों की तरफ था ।जो त्रेता काल में पैदा हुए थे जो रामचंद्र जी तथा रावण के समकालीन थे। वो भांग पीकर मस्त नहीं रहते थे । बल्कि वेदों की ऋचाओं में मस्त रहते थे। वेदों की ऋचाओं में मस्त रहने के कारण ईश्वर में ध्यान मग्न रहते थे। जिसको हम लोगों ने नशा में और वह भी भांग के नशा में बता दिया। लेकिन अज्ञानियों ने भांग पिलाकर शिवजी को मस्त रखना अविद्या और अविवेक हमारा है शिवजी का नहीं।
महर्षि दयानंद महाराज ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में शिव परमात्मा का नाम बताया है अर्थात जो सबका कल्याण करने वाला है उसको शिव कहते हैं लेकिन एक दूसरा जीवात्मा शरीर धारी है उसको भी शिव कहा जाता है जिसके लिए पूर्व में उल्लेख किया कि वह त्रेता काल में पैदा हुआ है लेकिन उससे पहले सतयुग और इसी प्रकार के 27 चतुर्युगी के बीतचुकी हैं ।यदि इस त्रेता काल में पैदा हुए शिवजी को ईश्वर मानते हैं तो उससे पहले सृष्टि को कौन चला रहा था इसका कोई उत्तर नहीं देता।
मेरा अपना उत्तरदायित्व सत्य को उद्घाटित, प्रकाशित और प्रस्तुत करना होता है।मेरा किसी से विशेष कोई द्वेष नहीं।
मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं।
क्योंकि इस संसार में आकर जो अविद्या और अविवेक में पड़े है उनके अपने कर्म होंगे और जो संसार को जागृत करना चाहता है उनके अपने कर्म होंगे और इन सबको परमात्मा ही देखता है। वही कर्मफल देता है। किसी संसार में वे लोग भी मिल जाएंगे जो पतन के गर्त में गणेश और शिवजी की मूर्ति बनाकर जनता को धकेल रहे हैं। दूसरी तरफ सत्य को प्रस्तुत करने वाले भी इसी संसार में मिलते हैं जो “वयं राष्ट्रे जाग्रयाम”की भावना से काम करते हैं।
समझ अपनी अपनी पर छोड़ता हूं।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट ,
ग्रेटर नोएडा।
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