क्रिया में कर्मत्त्व को, भरता है संकल्प

बिखरे मोती

मनुष्य का कायाकल्प कब होता है ? :-

क्रिया में कर्मत्त्व को,
भरता है संकल्प ।
साहस और विवेक से,
होता कायाकल्प॥2599॥

कर्मत्त्व अर्थात् अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निरन्तर कर्मरत रहना।

संकल्प – पक्का इरादा दूर-दृष्टि

कायाकल्प – विकासमान होना

विशेष :- परलोक सुधारना है तो कर्माशय सुधारों: –

जाग सके, तो जाग जा ,
मत सो चादर तान।
एक दिन तेरे कर्म का,
हरि लेय संज्ञान॥2600॥

विशेष – कौन कहता है ? तू खाली हाथ आया था, खाली हाथ जायेगा ? :-

मत रहना इस भूल में ,
खाली हाथ तू जाय ।
मुठ्‌ठी में प्रारब्ध था,
कर्माशय ले जाये॥2601॥

विशेष : परम पिता परमात्मा की महान् महिमा के संदर्भ में:-

तू ही सकल विश्व का,
पालक प्राणाधार।
तू ही ज्ञान-गुण शक्ति का,
है अतुलित भण्डार॥2602॥

विशेष:- प्रभु – भक्ति में मन कैसे लगे : –

हृदय में प्रभु-प्रेम हो,
मन हो वे एकाग्र ।
अन्तःकरण पवित्र हो,
बुध्दि होय कुशाग्र॥2603॥

विशेष :- आत्मोध्दार कैसे हो ?

कीर्ति छिपी है कर्म में ,
अपने कर्म सुधार ।
चौरासी से मुक्त हो,
होय आत्मोद्धार॥2604॥

विशेष: – ब्रह्म-रस अनन्त है : –

दुनियां का आनन्द तो,
मिले खत्म हो जाय।
ब्रह्म-रस का पान तो,
अनन्त ही होता जाय॥2605॥

तत्त्वार्थ :- सांसारिक – आनन्द तो इधर मिलता उधर समाप्त हो जाता है- जैसे रसगुल्ला खाया तो उसकी इस निष्पत्ति तभी तक स्वाद ले रहे है। उसके अगले दिन फिर उसे खाने की फिर इच्छा होती है। ठीक इसी प्रकार सांसारिक आनन्द चाहे किसी व्यक्ति, वस्तु, पदार्थ परिस्थिति हो वह क्षणिक है, जबकि प्रभु-भक्ति का आनन्द तो ब्रह्म-रस है, जो उस अनन्त की तरह अनन्त है। इसलिए ब्रह्म से जुड़िये उसकी रसानुभूति का आनन्द लीजिए।

विशेष: – योग- साधन से परम पिता परमात्मा की प्राप्ति सम्भव है: –

बिन मांगे मिलता रहे ,
जगती का आनन्द ।
साधना के बिन ना मिले ,
पूरन परमानन्द ॥2606॥

क्रमशः

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