गुरुकुलीय शिक्षा और स्वामी दयानंद, भाग- 2

वेद और संस्कृत भाषा

संस्कृत संसार की सबसे प्राचीन भाषा है। वेदों का वास्तविक लाभ वेदों की भाषा अर्थात संस्कृत का और संस्कृत व्याकरण का ज्ञान होने पर ही प्राप्त हो सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को लागू किया जाए । वेदों का अर्थ हिंदी में होने से उन्हें समझा जा सकता है, परंतु वेद की वास्तविक चिंतन शैली का रसास्वादन तो संस्कृत जानकर ही प्राप्त किया जा सकता है । अनेक लोगों ने वेदों का अंग्रेज़ी अनुवाद करके भी परिश्रम साध्य कार्य किया है, परंतु यह भी बहुत अधिक उत्तम नहीं माना जा सकता। स्वामी जी द्वारा इंगित की गई गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के माध्यम से  लोगों ने संस्कृत शिक्षा प्राप्त की और योग , समाधि व साधना की दिशा में बड़ी महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त की। स्वामी दयानंद जी महाराज द्वारा स्थापित आर्य समाज और उसके द्वारा किए गए महान क्रांतिकारी कार्य इस बात का प्रमाण हैं कि संस्कृत भाषा से ही भारत की उन्नति संभव है। संस्कृत भाषा और प्राचीन वैदिक साहित्य में सर्वत्र क्रांति के बीज बिखरे पड़े हैं। आर्य समाज ने उन बीजों का जितना ही संग्रह किया, उतना ही भारत अपनी आजादी के निकट पहुंचता गया।

स्वामी जी महाराज ने यह स्पष्ट किया कि शिक्षा अथवा विद्याध्ययन करना एक साधना है। इस साधना में मन को सब ओर से रोकना होता है। मन के वेग को रोकने के लिए उसे विषय विकारों से भी दूर रखना होता है। विषयों की आंधी न चले, इसके लिए शांत और एकांत स्थान में परमपिता परमेश्वर के साथ योग की स्थिति को प्राप्त करना भी साधक विद्यार्थी के लिए आवश्यक होता है। इसी प्रकार की साधना में मनुष्य की जागतिक और राष्ट्रीय उन्नति समाहित होती है।

नेताजी ने कहा था – ‘आर्य समाज मेरी मां है’

 स्वामी दयानंद जी के बाद आर्य समाज की अगली पीढ़ियों में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के माध्यम से वेद का प्रचार स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, स्वामी दर्शनानन्द, ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, मेहता जैमिनी, पं. युधिष्ठिर मीमांसक या पं. विजयपाल आदि ने किया था। इन सब महापुरुषों का और इन जैसी अन्य दिव्य विभूतियों का इस प्रकार का कार्य नमनीय, वंदनीय और अभिनंदनीय रहा। गुरुकुल कांगड़ी ने भारत के क्रांतिकारी स्वाधीनता आंदोलन में बढ़ – चढ़कर भाग लिया और अपने अनेक ब्रह्मचारियों को देश सेवा के लिए राष्ट्र की बलिवेदी पर ऐसे समर्पित कर दिया जैसे कोई देवता पर फूल चढ़ा रहा हो।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस 22 जून 1940 को सावरकर जी से मिलते हैं। दोनों की सावरकर सदन मुंबई में बैठकर बातचीत होती है। सावरकर जी ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को परामर्श दिया कि वह देश छोड़कर जर्मनी चले जाएं और वहां पर रासबिहारी घोष द्वारा निर्मित की गई आजाद हिंद फौज की कमान संभालने का काम करें। नेताजी ने सावरकर जी के परामर्श को बहुत ही विनम्रता के साथ शिरोधार्य किया। सावरकर जी से विचार – विमर्श के पश्चात आर्य समाज लाहौर पहुंचे।
आर्य समाज लाहौर का उस समय सम्मेलन चल रहा था। गुरुकुल कांगड़ी के कुलपति महाशय कृष्ण जी ‘प्रताप’ नाम के अखबार के संपादक भी थे। उस समय वे वहीं पर थे । महाशय कृष्ण और नेताजी सुभाष चंद्र बोस का आपस में वार्तालाप हुआ। महाशय कृष्ण जी ने कहा कि ‘सुना है, वीर सावरकर ने आपको देश से बाहर जाकर सेना बनाने का सुझाव दिया है। इस पर नेताजी ने कहा – ‘जी।’ तब महाशय कृष्ण बोले कि ‘आर्य समाज इसके लिए आपको ₹10000 की थैली तत्काल भेंट करता है।’
नेताजी ने इस पर संक्षिप्त सा जवाब दिया – ‘धन्यवाद।’
तब महाशय जी कहा कि ‘धन्यवाद किस बात का? नेताजी जब भी आप आवाहन करेंगे गुरुकुल कांगड़ी के सभी ब्रह्मचारी आपकी सेना में भर्ती होने के लिए पहुंच जाएंगे ।’
इस पर नेताजी ने कहा था कि ‘आर्य समाज तो मेरी मां है। आजादी के जंग में जो भी भाग ले रहा है उसका किसी न किसी रूप में आर्य समाज से संबंध अवश्य है । भले ही वह किसी भी मत या पंथ से संबंध रखता हो, परंतु दयानंद जी के स्वदेशी के आवाहन का उस पर प्रभाव है। क्योंकि स्वामी जी ने ही सबसे पहले कहा था कि स्वदेशी राज्य ही सर्वोपरि उत्तम होता है।
( इस बात का उल्लेख जीवन प्रकाशक राजपाल एंड संस लाहौर द्वारा किया गया है। जिसे ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आर्य समाज का विशेष ( 80% ) योगदान’ नामक पुस्तक में विद्वान लेखकों द्वारा पृष्ठ संख्या 195 पर दिया गया है।)
इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि आर्य समाज के गुरुकुलों द्वारा स्वाधीनता आंदोलन में किस प्रकार बढ़-चढ़कर अपना योगदान दिया गया था ? और उनके योगदान ने किस प्रकार संपूर्ण भारतवर्ष में क्रांति का बिगुल फूंक कर राष्ट्र , राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता की धूम मचा दी थी ?

लिए हाथ में झंडा ,चले जो धर्म निभाने को।
भगाना है फिरंगी को वतन आजाद कराने को।।
वतन की चिंता में जलकर जो खुद को खाक कर देता,
बनता है वही चंदन कि माथा नित्य सजाने को।।

आज के गुरुकुल किरठल की अवस्था

पर आज क्या हो रहा है ? कई गुरुकुल जहां ऋषि सिद्धांतों के अनुकूल अपना कार्य पूर्ण निष्ठा के साथ संपादित कर रहे हैं, वहीं कई ऐसे गुरुकुल भी लोगों की दृष्टि में आ चुके हैं , जिन्होंने अपने इतिहास पर अपने आप ही कालिख पोत ली है।
ऐसा ही एक गुरुकुल किरठल ( हरियाणा ) में बड़ी प्रमुख जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए अपना एक स्वर्णिम और शानदार इतिहास रखता है । प्रसिद्ध क्रांतिकारी आर्य नेता जगदेव सिंह सिद्धांती जी का इस गुरुकुल के साथ गहरा आत्मीय सम्बन्ध रहा है। उनके कुशल मार्गदर्शन और नेतृत्व में इस गुरुकुल ने बहुत प्रसिद्धि भी प्राप्त की।
पर आज यह गुरुकुल अपने दुर्भाग्य पर रो रहा है। मुझे आर्य समाज बरेली में उदय मुनि जी के द्वारा जानकारी हुई कि यह गुरुकुल इस समय अपने दुर्दिनों का शिकार है। उन्होंने बताया कि यहां पर विद्यार्थियों की संख्या बहुत कम रह गई है। जिसका कारण है कि यहां के प्रबंधन तंत्र ने खुली लूट मचा रखी है। बच्चों को उचित भोजन नहीं दिया जाता। उनकी शिक्षा की ओर भी कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। एक प्रकार से गरीब माता – पिता के बच्चों को लाकर के यहां पर कैदखाने में डाल दिया जाता है । जिन माता-पिताओं को सच्चाई की जानकारी हो जाती है वह शीघ्र ही अपने बच्चों को यहां से निकाल लेते हैं । अध्यापक केवल मटरगश्ती करते हैं और कई कई दिन के अवकाश पर चले जाते हैं। छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ करते इस गुरुकुल के प्रबंधन तंत्र और अध्यापक वर्ग को तनिक भी लज्जा नहीं आती। जिससे बच्चों का भविष्य चौपट हो रहा है ऋषि का मिशन यहां पर बड़ी दयनीय अवस्था में है। यदि इस और कोई ध्यान दिलाता है तो उसे धमकाकर चुप कर दिया जाता है। उदय मुनि जी ने भी इस ओर ध्यान दिलाने का प्रयास किया, परंतु उनके साथ भी अभद्रता का व्यवहार करते हुए उन्हें खामोश रहने के लिए कह दिया गया।
जिन नन्हें – मुन्हें नौनिहालों की प्रतिभा को निखारकर उसे राष्ट्र के लिए उपयोगी बनाने के लिए गुरुकुल पूर्ण निष्ठा के साथ अपना काम करते थे और जिसके लिए इस गुरुकुल की विशेष पहचान भी बनी, वही गुरुकुल अपने निकम्मे और कर्तव्यविमुख अध्यापकों और प्रबंधन तंत्र के कारण बच्चों की प्रतिभाओं को मारने का काम कर रहा है। बच्चों की हो रही इस दुर्दशा पर कोई भी सुनने के लिए तैयार नहीं है।
शिक्षा के केंद्र गुरुकुल इतनी शीघ्रता से लूट के केंद्र बन जाएंगे, उपेक्षा और उत्पीड़न का पर्याय बन जाएंगे, मानसिक अत्याचार और गरीबों की गरीबी का उपहास उड़ाने वाले हो जाएंगे, ऐसा तो किसी ने भी नहीं सोचा था। जब इन गुरुकुलों की स्थापना हो रही थी तो उस समय यही अपेक्षा की गई थी कि ये गुरुकुल दीर्घकाल तक शिक्षा के केंद्र के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाह करेंगे और जब तक सूरज चांद हैं तब तक यह इसी प्रकार प्रकाश को फैलाने का काम करते रहेंगे। पर लोगों की अपेक्षाओं और आशाओं पर इतना शीघ्र तुषारापात हो जाएगा ,यह तो किसी ने भी नहीं सोचा था।

दुष्टता का खेल रचकर, हक मारते संसार का,
घोंटते गला न्याय का, करें कर्म अत्याचार का।
नीच जन शिक्षा में आकर भरते हैं निज कोष को,
जानिए पापी उन्हें , और शत्रु सब संसार का।।

जिन बच्चों को तराशने का कार्य आर्य समाज ने अपने हाथों में लिया था और जिनके बारे में संपूर्ण मानव समाज को यह विश्वास दिलाया था कि उन्हें मानव समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी बनाकर वह देगा , उनके साथ गुरुकुल के ये लोग क्या कर रहे हैं? आर्य समाज जैसी पवित्र संस्था तो उन अत्याचारी, नालायक और निकम्मे लोगों को पाठ पढ़ाने के लिए स्थापित की गई थी जो बच्चों के और गरीबों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते हैं। इस बात के लिए तो इस संस्था को स्थापित नहीं किया गया था कि यहां भी दूसरों की नकल करते हुए कार्य आरंभ हो जाएगा?
भारत में वैदिक संस्कृति का पतन क्यों हुआ था? यदि इस बात पर विचार किया जाए तो एक ही निष्कर्ष निकलता है कि जब अध्यापक वर्ग ने अथवा ब्राह्मण वर्ग ने अपने धर्म से अलग हटकर कार्य करना आरंभ किया तो पतन की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ी । इस संबंध में स्वामी दयानंद जी का क्या विचार था ? यदि इस पर विचार करें तो स्वामी जी ने एक ही बात सोची थी कि देश का अध्यापक या ब्राह्मण वर्ग अपने धर्म पर अडिग रहना चाहिए । उसके हाथ में समाज और राष्ट्र निर्माण का महत्वपूर्ण दायित्व होता है। इसलिए गुरुकुलों में शिक्षा देने वाले शिक्षक अपने धर्म के प्रति सदा जागरूक रहें।

डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक की “आर्य समाज एक क्रांतिकारी संगठन” नामक पुस्तक से )

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