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सिब्बल नेट युग से बीस-पच्चीस साल पीछे चल रहे हैं

-बालेन्दु शर्मा दाधीच

इंटरनेट के मुद्दे पर भारत गलत कारणों से चर्चा में है। दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने फेसबुक, गूगल और एमएसएन जैसे इंटरनेट दिग्गजों को यह निर्देश देने की (नाकाम) कोशिश की है कि उनकी साइटों पर जाने-माने लोगों (राजनेताओं), समुदायों (धार्मिक गुटों) आदि के बारे में कोई ‘आपत्तिजनक सामग्री’ दिखाई नहीं देनी चाहिए। वे चाहते हैं कि ये और तमाम दूसरी वेबसाइटें ऐसी किसी भी सामग्री को डाले जाने से पहले ही उसकी जाँच करें। वे यह भी चाहते हैं कि यह जांच किसी स्वचालित तकनीकी प्रणाली के जरिए नहीं बलिक खुद इंसानों द्वारा की जानी चाहिए।
अगर हर कमेन्ट, हर लेख, हर वीडियो, हर चित्र संपादित और नियंत्रित होने लगता तो इंटरनेट इंटरनेट नहीं होता। तब मिस्र और टयूनीशिया जैसी लोकतांत्रिक क्रांतियां भी नहीं होतीं। जो लोग इंटरनेटीय मंचों पर नियंत्रण की वकालत करते हैं, उनमें इस माध्यम की अंडरस्टैंडिंग बहुत सीमित है। यह तो अथाह समंदर है जिसमें हर कोई आकर कूद पड़ने के लिए आज़ाद है।
जी हां, इंटरनेट पर तमाम लोगों के बारे में अच्छी और बुरी सामग्री मौजूद है। यह माध्यम ही ऐसा है जिसमें कोई भी यहां नहीं तो वहां कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह की टिप्पणी करने के लिए स्वतंत्र है। किसी भी मुद्दे पर। वर्जनाओं और नियंत्रणों से मुä कि यह एकमात्र माध्यम है। हालांकि श्री सिब्बल जैसे सैंकड़ों नेताओं और अधिकारियों के प्रयासों से उसकी स्वतंत्रता का क्षरण हो रहा है। इंटरनेट पर सच्चाइयों के खुलेआम प्रसारण से नाराज चीन सरकार कई बार गूगल और फेसबुक पर कई तरह की पाबंदियां लगाती रहती है। ईरान, टयूनीशिया, मिस्र, बहरीन, सीरिया, यमन और तानाशाही ताकतों के हाथों संचालित बहुत से देशों में सोशियल नेटवर्किंग और आम आदमी की अभिव्यä सिे जुड़ी दूसरी साइटें (ब्लाग, यू-टयूब, टिवटर आदि) गहन नियंत्रणों के घेरे में हैं। लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, जहां अभिव्यक्ति की आज़ादी एक संवैधानिक अधिकार (धारा 19-1-अ) है, ऐसे देशों की सूची में आने को इतना बेताब क्यों है, इसका जवाब शायद श्री सिब्बल ही दे सकें जो कानून के विशेषज्ञ होने के साथ-साथ सरकार में तकनीकी विभाग के प्रमुख भी हैं।
श्री सिब्बल इस मुद्दे पर कश्मीरी अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी और पाकिस्तान में जमात उद-दावा के मुखिया हाफिज़ मोहम्मद सईद जैसे लोगों की श्रेणी में देखे जा रहे हैं, जो फेसबुक पर नियंत्रण, यहां तक कि पाबंदी लगाने की मांग कर रहे हैं। उनकी आपत्ति पैगम्बर मोहम्मद के बारे में फेसबुक और दूसरी इंटरनेट साइटों पर आने वाली सामग्री और चित्रों के खिलाफ है, तो श्री सिब्बल सोनिया गांधी तथा मनमोहन सिंह से जुड़ी आपत्तिजनक सामग्री को लेकर आग-बबूला हैं। दोनों की चिंताएं जायज हैं, लेकिन बीमारी के इलाज का नुस्खा गलत है। बल्कि यह कहा जाना चाहिए कि व्यावहारिक रूप से असंभव है। गिलानी इसे जम्मू कश्मीर में प्रतिबंधित करना चाहते हैं जबकि हाफिज़ और उनके दूसरे कत्तरपंथी साथी संयुक्त राष्ट्र से मांग कर रहे हैं कि वह ऐसे मामलों में सजा-ए-मौत का वैशिवक प्रावधान करे। श्री सिब्बल चाहते हैं कि रोजाना करोड़ों वेब पेजों की प्रोसेसिंग करने वाले गूगल, फेसबुक, एमएसएन आदि ऐसे संपादकों को नियुक्त करें जो दर्जनों किस्म के (वीडियो, आडियो, लेख, टिप्पणियां, ब्लाग, चित्र, एनीमेशन वगैरह) इन करोड़ों पेजों को एक-एक कर खुद देखें और जब उनके सुरक्षित होने को लेकर संतुष्ट हो जाएं तब ही उन्हें इंटरनेट पर आने दें। शायद वे इंटरनेट को किसी साप्ताहिक अखबार की तरह ले रहे हैं, जिसके बीस-पच्चीस लेखों-कथाओं-कविताओं का संपादन संभव है। माफ कीजिए, सिब्बल साहब आप मौजूदा नेट युग से यही कोई बीस-पच्चीस साल पीछे चल रहे हैं।
अगर हर कमेन्ट, हर लेख, हर वीडियो, हर चित्र संपादित और नियंत्रित होने लगता तो इंटरनेट इंटरनेट नहीं होता। तब मिस्र और टयूनीशिया जैसी लोकतांत्रिक क्रांतियां भी नहीं होतीं। जो लोग इंटरनेटीय मंचों पर नियंत्रण की वकालत करते हैं, उनमें इस माधयम की अंडरस्टैंडिंग बहुत सीमित है। यह तो अथाह समंदर है जिसमें हर कोई आकर कूद पड़ने के लिए आज़ाद है। फिर चाहे उसे ढंग से तैरना आता हो या नहीं, चाहे वह अच्छा सिवम-सूट पहनकर आया हो या नहीं। हम जिन लोकतांत्रिक समाजों के धर्म-जाति-संप्रदाय-भाषा-रंग आदि सीमाओं से मुक्त होने का दावा करते हंब उनका जीता-जागता उदाहरण है इंटरनेट। लगभग वैसे ही जैसे टेलीफोन है, जिस पर आप कुछ भी बोलने के लिए स्वतंत्र हैं।
आपके बोले हुए शब्दों का बाद में विश्लेषण संभव है, आप किस किस्म की आपराधिक, अनैतिक या राजनीतिक गतिविधि में लगे हुए हैं उसका आकलन संभव है, लेकिन बोले जाने से पहले आपके शब्दों को रोकना असंभव है। यहाँ हर कोई हर किस्म की बात कह सकता है। पढ़ने वालों को अपने विवेक का इस्तेमाल करना है। जिसे वे गलत समझते हैं, उसे छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। सही बात को पढ़ने-सराहने वालों की कतार लग जाती है। यहां कहने की आज़ादी है तो पढ़ने की भी, और हर इंटरनेट प्रयोक्ता का व्यक्तिगत विवेक ही वह एकमात्र व्यावहारिक सेंसरशिप है, जो इस माध्यम पर लग सकती है।
दूसरे, हम भारतीयों को थोड़ा सेंस आफ हूमर विकसित करने की जरूरत है। अपने बारे में होने वाली मजेदार, मजाकिया टिप्पणियों और आलोचनाओं को मानहानिकारक मानने की प्रवृत्ति बहुत संकीर्ण है। इन्हें इतनी गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं। हां, आप भी चाहें तो अपनी बात कह सकते हैं। अगर उसमें वज़न है तो लोग खुद ब खुद उसे मानेंगे। लेकिन अगर आप किसी चीज़ को रोकने की कोशिश करेंगे तो याद रखिए, इंटरनेट पर उसका विपरीत असर होगा।
वह टिप्पणी, वह लेख, वह वीडियो रातोंरात चर्चित होकर वायरल रूप ले लेगा और करोड़ों लोगों तक पहुंच जाएगा। यही श्री सिब्बल द्वारा आपत्तियां पेश करने के लिए दिए गए उदाहरणों के साथ हो रहा है। सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, खुद श्री सिब्बल, धार्मिक कटाक्षों, पोर्नोग्राफिक साइटस आदि से जुड़े जिन लिंक्स का जिक्र उन्होंने किया, उन्हें आजकल नेट पर हर कोई ढूंढने में लगा है। अमां, यह नए किस्म का माध्यम जो है। इसके नियम कुछ और हैं और हमारी सरकारें तथा प्रशासक उन्हें समझने में जितनी देर करेंगे, उतने ही पीछे छूटते चले जाएंगे।

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