अखिलेश राजधर्म निभायें:जनता उनके साथ है
स्वामी रामदेव के विषय में एक कांग्रेसी कुछ लोगों के बीच बैठकर अपनी भड़ास निकाल रहे थे और कह रहे थे कि साधुओं का भला राजनीति से क्या मतलब है? ये लोग राजनीति से दूर रहें और अपने हवन भजन में ध्यान दें।
मैं सोच रहा था कि ऐसा दृष्टिïकोण इन लोगों का भारत के हिंदू संतों व समाज सुधारकों के प्रति ही है। ईसाई और मुस्लिम धर्म गुरूओं के प्रति इनका दृष्टिïकोण एकदम बदल जाता है। वहां इनकी धर्मनिरपेक्षता की तीसरी आंख खुलती है और ये लोग तब हमको उपदेश देने लगते हैं कि भारत में लोगों की भलाई के लिए किसी भी व्यक्ति को बोलने का पूरा पूरा हक है। अब यदि बाबा रामदेव जनहित में ये कहते हैं कि देश का काला धन वापस लाओ, देश की राजनीति को बेईमानों के चंगुल से मुक्त करो, स्वामी असीमानंद कहीं अपने आंदोलन से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं तो और स्वामी नित्यानंद देश में हो रहे धर्मांतरण के विरूद्घ आवाज उठाते हैं तो इसमें गलत क्या है? क्या अन्य धर्म गुरूओं की मांगों के अनुरूप इन हिंदू संतों या धर्म गुरूओं की मांगों से या आंदोलनों से देश का भला नहीं होता है? इन बातों में कैसी साम्प्रदायिकता है? कुछ समझ में नहीं आता है। अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनके पिता मुलायम सिंह यादव को अल्टीमेटम देते हुए जामियात उलेमाए हिंद के राष्टï्रीय अध्यक्ष मौलाना सईद अरशद मदनी ने कहा है कि या तो मुस्लिमों के हितों की रक्षा करें अन्यथा मायावती की तरह बाहर का रास्ता देखने के लिए तैयार रहें। इसी बात को सपा व कांग्रेस यदि लोकतांत्रिक मानती है तो किसी हिंदू संत की ऐसी ही धमकी को लोकतांत्रिक कहने का उन्हें अधिकार नहीं है। बात बाबा रामदेव के द्वारा या किसी अन्य हिंदू संत या अन्ना हजारे के द्वारा भ्रष्टïाचार के विरूद्घ जनजागरण करने की नहीं है, अपितु बात महत्वपूर्ण यह है कि राजनीतिक दिशाविहीनता क्यों आ गयी और राजनीतिज्ञ अपना धर्म क्यों भूल गये? यदि इस पर चिंतन कर लिया जाऐ तो बाबा रामदेव जैसे लोगों की बोलती अपने आप बंद हो जाएगी। राजनीति और राजनीतिज्ञों की दिशाविहीनता ही तो ऐसे लोगों को बोलने का मौका दे रही है। यदि इस दिशाविहीनता को ठीक कर लिया जाए तो सारी व्यवस्था ही ठीक हो जाएगी और मैं समझता हूं कि व्यवस्था को ठीक करने के लिए ही आज देश के अधिकांश लोग चिन्तित हंै। पर मौलाना सईद अरशद मदनी जैसे लोग व्यवस्था पर भारी पडऩे का काम कर रहे हैं। उनका मानना है कि हमारे पास वोट का संख्या बल है इसलिए सरकार हमारी है और यही कारण है कि सरकार को अब केवल हमारी मांगों पर और हमारी समस्याओं पर ही ध्यान देना चाहिए। उनकी नजरों में तंग दिली है और वह नहीं चाहते कि अब प्रदेश में रहने वाले बहुसंख्यकों के हितों की रक्षा भी कहीं की जाए। कश्मीर में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा इसलिए नहीं हो सकती कि वे अल्पसंख्यक हैं और उत्तर प्रदेश में बहुसंख्यकों के हितों की रक्षा इसलिए नहीं हो सकती कि वे बहुसंख्यक और उनका वोट बैंक कई जगह बंटा हुआ है और प्रदेश में जो सरकार बनी वह मुस्लिम वोटों से बनी है। इसलिए अब प्रदेश के खजाने पर मुस्लिमों का हक पैदा हो गया है। मुस्लिम धार्मिक नेताओं को अपने हितों की रक्षा का मुद्दा उठाना चाहिए। यह उनका संवैधानिक हक है लेकिन यह हक तभी मिलता है जब हकों का अतिक्रमण कहीं हो रहा हो। किसी दूसरे के हकों का अतिक्रमण कराने अपने लिए अधिक अधिकार मांगना अलोकतांत्रिक भी है और प्रदेश में अन्य लोगों के साथ अपनी संख्या बल के आधार पर किया जाने वाला एक अत्याचार भी है। हमें अभी ऐसी स्थितियों से बचने के लिए काफी कुछ करना है। अखिलेश यादव अपने पिता की तरह अपनी मजबूरियों में फंसते जा रहे हैं। वो मुस्लिम वोटों की कीमत चुकता करने की स्थिति में नहीं होकर भी उनका मूल्य देते जा रहे हैं। लेकिन हम देख रहे हैं कि मुस्लिम वोटों की कीमत निरंतर बढ़ती जा रही है। ऐसी स्थिति सूबे में अपनी सरकार लाने के लिए कुछ मुस्लिमों की सोची समझी चाल है ताकि मुस्लिम मतों का धु्रवीकरण हो और सूबे का अगला चुनाव हिंदू मुस्लिम के नाम पर हो जाए, लेकिन ऐसी सोच ने यदि हिंदुओं में भी धु्रवीकरण की प्रक्रिया को जन्म दे दिया तो क्या होगा? हम नहंी चाहते कि सूबे की सरकारें हिंदू सरकार या मुस्लिम सरकार के नाम से जानी जायें। राजधर्म सर्वोपरि है और राजधर्म के निर्वाह के लिए ही हमें फिलहाल काम करनेकी जरूरत है। अखिलेश राजधर्म निभायें प्रदेश की जनता उनके साथ है। वह हौसले से आगे बढें और किसी भी कीमत पर अपने कदमों को लड़खड़ाने ना दें। इसमें दो राय नहीं कि उन्होंने अभी तक के शासनकाल में लोगों को निराश नहीं किया है, अपितु उन्होंने अपनी पूरी सूझ-बूझ और समझदारी का परिचय दिया है। प्रदेश की जनता उनसे किसी भी प्रकार का तुष्टिïकरण की अपेक्षा नहीं करती, बल्कि चाहती है कि वे एक न्यायशील मुख्यमंत्री सिद्घ हों।