मणिपुर मसले पर संसद को ठप करना कितना उचित ?

उमेश चतुर्वेदी

कुछ साल पहले की बात है। संसद सत्र के दौरान दिल्ली के कुछ स्कूली बच्चे संसद की कार्यवाही देखने पहुंचे। लेकिन उनके दौरे के वक्त संसदीय कार्यवाही हंगामे की भेंट चढ़ गई। वापस लौटते हुए बच्चों का कहना था कि इतना हंगामा तो हमारी स्कूली लड़ाइयों में भी नहीं होता।

दुनिया ने शासन के बेहतरीन मॉडल के तौर पर संसदीय लोकतंत्र को ही मान्यता दी है। इस व्यवस्था में संसद सर्वोच्च होती है, इसी वजह से उम्मीद की जाती है कि संसदीय चर्चाओं से देश को दिशा मिल सकती है। लेकिन हाल के वर्षों में तकरीबन हर संसदीय सत्र में विपक्षी खेमे ने एक तरह से हंगामा और कार्यवाही को बाधित करने की आदत बना ली है। विपक्षी तर्क हंगामा और बाधा को डंके की चोट पर लोकतंत्र की परिभाषा में फिट भी कर देता है। लेकिन सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी होती है कि संसद की बैठकें हों, कानून पारित हों, ताकि व्यवस्था में कोई रुकावट नहीं आए।

वैसे तो उम्मीद नहीं थी कि संसद का मॉनसून सत्र बहुत बेहतर रहेगा। मणिपुर में जारी हंगामा और कुछ महीनों बाद राज्य राज्यों में होने वाले चुनाव- इसके दो ठोस कारण थे। संसद का सत्र ऐसे सवालों को उठाने का बेहतरीन मौका होता है। सो, विपक्ष का हंगामा जारी है और यह संसदीय सत्र हंगामे की भेंट चढ़ता जा रहा है। किसी को इसकी चिंता नहीं कि हंगामे के चलते देश के करदाताओं की जेब पर कितनी चपत पड़ती है।

संसद की कार्यवाही पर हर घंटे औसतन डेढ़ करोड़ रुपये यानी हर मिनट करीब ढाई लाख रुपये खर्च होते हैं।
संसद के बजट सत्र के दूसरे हिस्से में 21 दिन हंगामा हुआ, शोर-शराबे के बीच सिर्फ छह बिल पास हुए और संसद की बैठक पर देश के करदाता का दो सौ करोड़ स्वाहा हो गया। दिलचस्प यह है कि यह सब लोकतंत्र के नाम पर हुआ।
बहरहाल, विपक्ष की मांग है कि मणिपुर में महिलाओं के साथ मई के पहले हफ्ते में हुई बदसलूकी की घटनाओं पर चर्चा हो। सरकार चर्चा के लिए तैयार भी है। लेकिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक विपक्ष चर्चा को तैयार नहीं दिख रहा। हालांकि उसका अब भी आरोप है कि सरकार ही नहीं चाहती कि मणिपुर पर चर्चा हो। इसी मांग को लेकर जारी हंगामे के चलते आप सांसद संजय सिंह राज्यसभा के पूरे सत्र के लिए निलंबित किए जा चुके हैं। समूचे विपक्ष की नजर में यह अलोकतांत्रिक कार्रवाई है।

लेकिन 24 जुलाई को राजस्थान विधानसभा में कांग्रेसी विधायकों ने अपने ही पूर्व मंत्री राजेंद्र गुढ़ा से धक्का-मुक्की की। गुढ़ा को निलंबित करके जबर्दस्ती विधानसभा से बाहर कर दिया गया।
गुढ़ा का गुनाह बस ये रहा कि उन्होंने मणिपुर के बजाय राजस्थान में इसी महीने हुए महिला अपराधों का सवाल उठा दिया। उन्हें विधानसभा से निलंबित तब किया गया, जब वह एक डायरी सदन में पेश करना चाहते थे। उनका दावा है कि उसमें अशोक गहलोत सरकार के काले कारनामों का चिट्ठा दर्ज है।
खैर, जब यह मसला किसी भी तरह सुलझता नहीं दिखा कि मणिपुर की घटनाओं पर बहस नियम 267 के तहत हो या 176 के तहत, तब विपक्ष ने मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का ऐलान कर दिया। अब स्पीकर अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का समय तय करेंगे। लेकिन सरकार की संसद में चर्चा की अपनी ही रणनीति है। वह मणिपुर पर चर्चा के बहाने राजस्थान और पश्चिम बंगाल में जारी महिला अपराधों से जुड़े तथ्य भी रखने की तैयारी में है।

राष्ट्रीय अपराध रेकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, महिला अपराध के मामले में राजस्थान तीन साल से पहले नंबर पर है। वहां जनवरी, 2020 से अप्रैल, 2022 तक दुष्कर्म के हिंसा हुई थी।
पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों के बाद भी हिंसा हुई थी। हाल ही में हुए पंचायत चुनाव के बाद फिर हिंसा हो रही है।
पिछले दिनों मालदा जिले में दो महिलाओं के साथ बदसलूकी हुई, जिसका विडियो वायरल हो रहा है।
संस्कृत सूक्त है, ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति’। इसी अंदाज में विपक्ष शासित राज्यों में जारी अनाचार को विपक्ष नजरंदाज कर रहा है। लेकिन अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान अनाचार की ये सारी कहानियां भी सामने आएंगी। तब विपक्ष पर भी सवाल उठेंगे। सरकार के तैयार होने के बावजूद विपक्ष की ओर से अविश्वास प्रस्ताव आने का संदेश साफ है। विपक्ष अपनी सरकारों के दामन पर लग रहे दाग नहीं दिखाना चाहता। चूंकि आम चुनाव नजदीक हैं, इसलिए वह बीजेपी की चादर को ज्यादा मैली दिखाना चाहता है, ताकि उसे सियासी फायदा मिल सके। जब चर्चा होगी तो मणिपुर से जुड़े अन्य तथ्य भी सामने आएंगे।

करीब 52 फीसदी आबादी वाला मैतेई समुदाय राज्य के सिर्फ दस फीसदी इलाके में रहने को मजबूर है। वह यहां की मूल आबादी है।
मैतेई समुदाय राज्य के नब्बे फीसदी पहाड़ी इलाके में जमीन भी नहीं खरीद सकता।
कुकी समुदाय की ज्यादातर आबादी घुसपैठिया है, जो म्यांमार से आईं है। कुकी इलाकों में अवैध अफीम की खेती खूब हो रही है।
बीजेपी की मौजूदा सरकार ने अफीम की खेती को नष्ट करना शुरू किया, जिससे कुकी समुदाय गुस्से से खदबदाने लगा। उसे सीमापार से आतंकी सहयोग भी मिलता रहा है।
मैतेई समुदाय को जब जनजातीय दर्जा देने की अदालती सिफारिश आई, यही गुस्सा सतह पर आ गया।
दुर्भाग्य ही है कि देशविरोधी तत्वों की इस कारगुजारी पर विपक्ष का ध्यान नहीं है। अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के वक्त ये तथ्य भी रेकॉर्ड पर आएंगे। तब विपक्षी खेमे के नैरेटिव की पोल खुलेगी। आखिर में एक तथ्य और, अविश्वास प्रस्ताव के जरिए विपक्ष ने एक बार फिर प्रधानमंत्री को बड़ा हथियार मुहैया करा दिया है। जब वे चर्चा का जवाब देंगे, तब तकरीबन पूरे देश की उन पर निगाह होगी। स्वाभाविक ही उनकी कोशिश अपनी बातों से देश को प्रभावित करने की होगी।

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