आम आदमी को लेकर हो रही राजनीति

बाल मुकुंद ओझा
आम आदमी आजकल सर्वत्र चर्चा में है। राजनीतिक दलों के लिए आम आदमी शब्द की अपनी व्याख्या है। नेता लोग गाहे-बगाहे आम आदमी पर भाषण झाड़ते रहते हैं। चुनाव के दिनों में आम आदमी सबका प्रिय हो जाता है, सबको उसकी फिक्र सताने लगती है! सत्तारूढ़ दल जहां आम आदमी के विकास की चर्चा करते हैं, उसकी भलाई के नए वादे करते हैं, वहीं विपक्षी पार्टियां आम आदमी की दुर्दशा बयान करने में कोई कसर नहीं छोड़तीं।
रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए जूझ रहे इस आम आदमी को तरह-तरह के सब्जबाग दिखाने में हर कोई आगे है। सबसे ताजा प्रकरण नोटबंदी का है। सत्तापक्ष का कहना है कि नोटबंदी से देश का अवाम खुशहाल होगा और जल्दी ही इसके अच्छे परिणाम देखने को मिलेंगे। वहीं विपक्ष का आरोप है कि नोटबंदी ने देश के आम आदमी को बर्बाद कर दिया। खैर, राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप तो चलते ही रहते हैं, मगर एक बात आईने की तरह साफ है कि नोटबंदी का शिकार भी आम आदमी ही हुआ है। पूरा देश रोज-रोज कतार में खड़ा होने को विवश हो गया। यह कतार वास्तविक और कृत्रिम दोनों ही है। सक्षम लोगों ने जमकर आम आदमी की धुलाई की है। नोटबंदी ने एक-एक पैसे के लिए तरसा दिया तो सक्षम लोगों ने गरीबों के बैंक खातों का अपहरण कर उनका चीर हरण कर लिया। मजदूर, कामगार और किसान बरबाद हो गए।
अब तो पचास दिन भी पूरे हो गए। भ्रष्टाचारियों ने नियम-कायदों को धता बता कर नए रास्ते खोज लिये और काली कमाई को सफेद करा लिया। जिस कमीज के उजली होने का हम भ्रम पाले हुए थे वह काली निकली। जिन कंधों पर भ्रष्टाचार के विरुद्ध जंग की जिम्मेदारी थी, वही किनारे हो लिये। यह पूरा नहीं तो आंशिक सत्य अवश्य है कि अमीरों के साथ-साथ नौकरशाही और बैंकिंग व्यवस्था के भ्रष्ट तत्त्वों ने काले धन के खिलाफ इस शानदार मुहिम को पलीता लगा दिया। और सबसे बड़ी बात यह कि इसका शिकार एक बार फिर आम आदमी ही हुआ है। जिस आम आदमी की बहबूदी की हम बात कर रहे हैं उसकी चीरफाड़ करने में हमारे राजनीतिक ही सबसे आगे रहे।
आम आदमी को आज सियासी भ्रष्टाचार ने निगल लिया है। भ्रष्टाचार समाज में शिष्टाचार के रूप में प्रतिस्थापित हो गया है। बाड़ खेत को खाने लगी है। सेवा के घोषित मकसद से आने वाले लोग रावण और कुंभकरण जैसे दिखाई देने लगे हैं। अनियमितता, भ्रष्टाचार और लाल फीताशाही हमारे सिस्टम का एक अंग बन गई है। देश के राजनीतिकों और कर्णधारों ने भ्रष्टाचार को पनपाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। आम आदमी आज भी रोजी-रोटी और कपड़े के लिए मोहताज है, वहीं हमारे प्रतिनिधि कहे जाने वाले कथित शूरमाओं के पास अकूत धन है। शासन के कर्णधार कई मंत्रियों और कई अफसरों को भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ रहा है।
आए दिन भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों के पकड़े जाने की खबर आती है। इनके पास से करोड़ों की बेहिसाब संपत्तियां और नकदी बरामद की जा रही है। आम आदमी की प्रताडऩा को नजरअंदाज किया जा रहा है। शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने वाले देश के मेहनतकश लोग प्रताडि़त किए जा रहे हैं। रक्षक ही भक्षक बन गए हैं। गांधी, पटेल, नेहरू, लोहिया और दीनदयाल के आदर्शों पर चलने की दुहाई देने वालों को आत्म-चिंतन करने की जरूरत है। दरअसल, यह आम आदमी है क्या, इस पर विस्तृत चर्चा की जरूरत है। आम आदमी से यहां हमारा मतलब उस नागरिक से है जो जी-तोड़ मेहनत कर अपना गुजारा करता है; दो जून रोटी के लिए अपना पसीना बहाता है। आम आदमी चाहे गांव का हो या शहर का, उसकी बुनियादी जरूरतें एक ही हैं। रोटी, कपड़ा और मकान की उसकी जरूरतें आसानी से पूरी हो जाएं, यही वह चाहता है। वह कड़ी मेहनत करता है। बुनियादी सुविधाएं हासिल करने के जी-तोड़ प्रयास करता है। वह चाहता है कि उसकी कड़ी मेहनत, ईमानदारी और निष्ठा का प्रतिफल उसे मिले। पानी, बिजली, सडक़, रोजगार, रसद आदि सुविधाओं में कोई अवरोध न आए और सरकार की जन-कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का उसे समय पर लाभ मिले। आम आदमी कोई निर्धन, नंगा या भूखा नहीं रहना चाहता। आम आदमी एक साधारण-सा दिखाई देने वाला इस देश का नागरिक है। महात्मा गांधी के शब्दों में आम आदमी देश की आत्मा है। देश के विकास और प्रगति में उसका बहुमूल्य योगदान है। उसकी कड़ी मेहनत से देश आगे बढ़ता है। आम आदमी हमारे खाने की जरूरतों को पूरा करने वाला किसान है तो बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ खड़ा करने वाला मजदूर है। वह रिक्शे वाला है, ऑटो वाला है। चाय की थड़ी वाला है तो सब्जी वाला है। वह विद्यार्थी है तो सरकारी सेवक भी। आम आदमी अपनी तिजोरी भरने की सोच नहीं रखता। वह चाहता है कि इतना कमा ले कि उसके परिवार का भलीभांति भरण-पोषण हो। उसका बच्चा पढ़-लिख कर अपनी जिंदगी संवारे। आज यही आम आदमी हर जगह चर्चा में है। अजीब नजारा है। राजनीतिक दलों के लिए एक खास कारण से वह आकर्षण का केंद्र है। नेता चाहते हैं कि आम आदमी उसकी पार्टी का वोट बैंक बने और उसे सत्ता की चाबी सौंपे। आजादी के बाद से ही आम आदमी के कल्याण और विकास की बातें होती रही हैं। गरीबी को लेकर हमारी सियासत हमेशा सरगर्म रहती है। गरीब किसे कहते हैं? सामान्य रूप से जो व्यक्ति अपनी भूख मिटाने में असमर्थ है अथवा अपनी आय से अपनी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति नहीं कर सकता वह गरीब है। अलग-अलग देशों में गरीबी की परिभाषा अलग-अलग है। आम आदमी और गरीबी का चोली दामन का साथ है। आम आदमी कड़ी मेहनत करने के बाद भी गरीबी की गिरफ्त से बाहर नहीं निकल पाता। पर यह कोई अनिवार्य नियति नहीं है, यह हमारे देश में प्रचलित नीतियों की विडंबना है।
इन नीतियों में श्रम को मामूली और पूंजी को बहुत ज्यादा महत्त्व दिया जाता है। फिर, गरीबी रेखा की परिभाषा इस तरह से तय की जाती है कि आंकड़ों में ही सही, गरीबी को लगातार और तेजी कम होते दिखाया जा सके। और इस तरह बराबर एक ऐसा माहौल बनाया जाता है जिससे लगे कि मौजूदा आर्थिक प्राथमिकताएं और नीतियां सही दिशा में चल रही हैं।
सरकारों के घोषित उद््देश्यों और नीतियों में जोअंतर्विरोध हैं उन्हीं का नतीजा है कि आजादी के सात दशक बाद भी आम आदमी गरीबी की गिरफ्त से बाहर नहीं निकल पाया है। अनेक लोक कल्याणकारी योजनाओं से लाभान्वित होने के बाद भी आम आदमी पूर्ववत वहीं खड़ा है। उसे इस अवधि में कल्याणकारी योजनाओं का कुछ लाभ अवश्य मिला है, मगर इतना नहीं कि निर्णायक साबित हो। बुनियादी सुविधाएं हासिल करने की उसकी जद््दोजहद आज भी जारी है। कहने को भारत दुनिया की बहुत तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था है और उसकी विकास दर भी पिछले बारह-तेरह वर्षों में, दो-तीन वर्षों को छोड़ कर ऊंची रही है। लेकिन इसका लाभ आम आदमी को कितना मिला है, यह देश के चालीस से पैंतालीस फीसद बच्चों के कुपोषित होने के आंकड़ों, किसानों की खुदकुशी की घटनाओं और हर साल आने वाली संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्टों से पता चल जाता है। जाहिर है, दावों और हकीकत के बीच बहुत चौड़ी खाई है।

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