ऋषि दयानन्द के गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द का ऋषिकेश (देहरादून) प्रवास”

ओ३म्

-स्व. श्री यशपाल आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द की दो यात्राएं देहरादून नगर में हुईं। देहरादून जिला भी भाग्यशाली है कि ऋषिराज की पद्-रज से पवित्र हुआ है। महर्षि ने स्व-कथित जीवन-चरित्रों में इसकी पुष्टि इस प्रकार की है—“सब यात्री चले गए और (कुम्भ, हरिद्वार) मेला हो चुका तो वहां से ऋषिकेश को गया। वहां बड़े-बड़े महात्मा संन्यासियों और योगियों से योग की रीतियां सीखता और सत्संग करता रहा। तत्पश्चात् कुछ समय तक अकेला ऋषिकेश में रहा। इसी समय एक ब्रह्मचारी और दो पहाड़ी साधु मुझसे आन मिले और हम, सबके साथ मिल कर, टिहरी चले गए।“ (पृष्ठ 31 हिन्दी जीवन चरित्र) महर्षि सन् 1853 में कुम्भ-मेले की समाप्ति पर, अप्रैल के बाद ऋषिकेश पधारे थे।

केवल ऋषिराज ही ऋषिकेश पहुंचे थे ऐसा भी नहीं है। पं. लेखराम जी ने महर्षि के जीवन-चरित्र में लिखा है कि महाराज रणजीत सिंह के शासन काल में एक नारायणदत्त ब्राह्मण (करतारपुर नगर के पास एक छोटे से ग्राम गंगापुर के निवासी) का एक अभागा पुत्र शैशव में ही शीतला रोग से ग्रस्त होकर अपनी दोनों आंखें खो बैठा। 12 वर्ष की आयु में माता-पिता का देहान्त हो जाने पर यह गरीब असहाय बालक अपने बड़े भाई और भावज के सहारे जीने लगा। परन्तु भाई-भावज के हृदय में उसके प्रति कोई स्थान न था, रोटियां मांगता तो गालियां मिलतीं, पानी मांगता तो पानी पी-पीकर कोसा जाता। भाई-भावज के दुर्व्यवहार से यह 15 वर्षीय अबोध असहाय बालक एक दिन ठोकरें खाता, घर छोड़कर निकल पड़ा। यदि ठोकरें ही खानी हैं, गालियां ही खानी हैं तो फिर यहां ही क्यों पड़ा रहूं? बड़ी कठिनाई से यह बालक ऋषिकेश पहुंच गया। इस समय उसकी आयु सम्भवतः 15 वर्ष होगी। ‘‘समय की दशा और अपने तथा परायों की प्रतिकूलता से निराश और उदास होकर जगत्पति की उपासना में संलग्न होकर अपने दग्ध हृदय को शान्ति देने लगा। और कहते हैं कि तीन वर्ष गंगा में खड़े होकर गायत्री का परम जाप उत्तम रीति से करते हुए उसने अपना मन और अन्तःकरण-रूपी चक्षु को ज्ञान-रूपी अंजन से प्रकाशित कर लिया।“

‘‘ऋषिकेश उस समय आजकल के समान बहुत बसा हुआ और निरापद स्थान नहीं था। वहां बस्ती के न होने के कारण मांस-भक्षी पशु चारों ओर रात को गरजते और शान्ति-भंग करते थे, परन्तु शूरवीर ईश्वर-आश्रित तो, ऐसे भयानक स्थान पर तपस्या द्वारा प्रज्ञा की आंखें प्राप्त करने का यत्न कर रहा था।“ पं. लेखराम जी ने आगे लिखा है कि ‘‘जब तीन वर्ष निरन्तर साधना और तपस्या करते हुए व्यतीत हो गए तो एक रात स्वप्न में उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि तुमको जो कुछ होना था, हो गया। अब यहां से चले जाओ। फलतः वह नवयुवक तपस्वी, वीरता से उस भयानक वन को पार करता हुआ 18 वर्ष की आयु में हरिद्वार आ पहुंचा। यहां उसकी एक विद्वान गौड़ स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से भेंट हुई और यहीं विरक्त वीर ने संन्यास ग्रहण किया और अपना नाम (स्वामी) विरजानन्द रखा।“

इतिहास साक्षी है कि यही विरजानन्द, महर्षि दयानन्द सरस्वती की ज्ञान-पिपासा शान्त करने में सफल हुए। इसलिए आर्य समाज के इतिहास में ऋषिकेश व जिला देहरादून का बड़ा ऊंचा स्थान रखता है।

श्रीधर पाठक ने देहरादून का वर्णन करते समय ठीक ही लिखा था–

चरु हिमाचल-आंचल में एक शाल विशालन को वन है।
मृदु मर्मर शीरीं बहें जल-स्रोत, पर्वत और निर्जन हैं।।

लिपटे हैं लताद्रुम गान में लीन प्रवीन विहंगम को गन हैं।
सुधि खोये फिरें जहां रावरो सो, मन बावर षो अलि को मन है।।

भारत में वन पावन तूहि, तपस्वियों का तप आश्रम था।
जग तत्व की खोज में मग्न जहां ऋषियों ने अथक किया श्रम था।।

(स्रोतः- आर्य समाज देहरादून शताब्दी स्मारिका 1980)

-प्रस्तुतकर्ता मनमोहन कुमार आर्य

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