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धर्म-अध्यात्म

विष्णु के पंचम व त्रेता युग के पहले अवतार वामन

पौराणिक मान्यतानुसार सृष्टि पालक भगवान विष्णु अब तक अधर्म के नाश के लिए नौ बार यथा मत्स्य, कुर्म (कच्छप), वाराह, नृसिंह (नरसिम्हा), वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध के रूप में धरती पर अवतरित हो चुके हैं और दसवीं बार भविष्य में कलियुग की समाप्ति पर कल्कि अवतार के रूप में अवतरित होंगे। इन सभी अवतारों की कथायें पुराणों में वृहत रूप से अंकित हैं। पुरातन धर्मग्रंथों में राजा बलि से तीन पग में सम्पूर्ण सृष्टि दान में ग्रहण करने वाले वामन को भगवान विष्णु का अवतार माना गया है, जिन्होंने देवमाता अदिति के गर्भ से भाद्रपद शुक्ल द्वादशी के दिन वामनवतार के रूप में जन्म लिया था । भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि के दिन वामन जयंती मनाये जाने के कारण ही इसे वामन द्वादशी’ भी कहा जाता है । पुरातन ग्रंथों के अनुसार इसी शुभ तिथि को श्रवण नक्षत्र के अभिजित मुहूर्त में भगवान श्रीविष्णु के एक रूप भगवान वामन का अवतार हुआ था। इस तिथि पर मध्याह्न के समय भगवान का वामन अवतार हुआ था, उस समय श्रवण नक्षत्र था। भागवत पुराण 8, अध्याय 17-23 अध्याय 18 श्लोक 5-6 के अनुसारवामन श्रावण मास की द्वादशी पर प्रकट हुए थे, जबकि श्रवण नक्षत्र था, मुहूर्त अभिजित था तथा वह तिथि विजय द्वादशी कही जाती है। 
वामन विष्णु के पाँचवे तथा त्रेता युग के पहले अवतार थे। यद्यपि वामन अवतार बौने ब्राह्मण के रूप में हुआ था तथापि यह विष्णु के पहले ऐसे अवतार थे जो मानव रूप में प्रकट हुए । वामन ॠषि कश्यप तथा उनकी पत्नी अदिति के पुत्र थे । वह आदित्यों में बारहवें थे। ऐसी मान्यता है कि वह इन्द्र के छोटे भाई थे। पुरातन ग्रंथों में तीन पग सम्पूर्ण पृथ्वी में माप लेने के कारण वामन को तीन पैरों वाला दर्शाया गया है। त्रिविक्रम रूप में एक पैर धरती पर, दूसरा आकाश अर्थात् देवलोक पर तथा तीसरा बली के सिर पर। इनको दक्षिण भारत में उपेन्द्र के नाम से भी जाना जाता है । अवतारवाद के समर्थक पौराणिक ग्रंथों में अंकित कथाओं के अनुसार प्रह्लाद को पूर्वजन्म के संस्कारों के अधीन जन्म-मरण,कर्म फल की मीमांसा का ज्ञान हो गया । हिरण्यकशिपु के मरने के बाद वह राजा भी बना, परन्तु प्रेरणा का स्रोत अर्थात वेद के विद्वानों को वह अपने देश में ला नहीं सका। दैत्यों का पुरोहित शुक्राचार्य कहलाता था। शुक्राचार्य एक पद का नाम है, यह किसी व्यक्ति का नाम नहीं। जो कर्म की महिमा को तो जानता है, परन्तु कर्म-अकर्म में भेद करने के लिए बुद्धि का प्रयोग नहीं कर सकता अथवा परमात्मा और उसके ज्ञान की प्रेरणा की अवहेलना करता है, ऐसा आचार्य मिथ्या पथ-प्रदर्शन ही करता है। ऐसे ही थे दैत्यों के आचार्य शुक्राचार्य ।
प्रह्लाद ने पिता के विरूद्ध विद्रोह तो किया परन्तु पिता को मिथ्या प्ररेणा देने वाले शुक्राचार्य को अपना पुरोहित बनाए रखा।इसका परिणाम यह हुआ कि प्रह्लाद का पुत्र विरोचन पुन: अनीश्वरवादी हो गयाद्यविरोचन का पुत्र बलि हुआ। बलि का पुत्र बाण हुआ । बाण महान असुर थाद्य महाभारत में कहा है-
बलेश्च प्रथित: पुत्रो बानो नाम महासुर: ।
– महाभारत आदि पर्व 65-20
इसका कारण उनके संस्कार ही थे। कश्यप-दिति वंश को शुक्राचार्य गुरु मिल गये । शुक्राचार्य भौतिकवादी था, वह सब कुछ प्रकृति से ही, स्वभाववश उत्पन्न हुआ मानता था । हिरण्यकशिपु शुक्राचार्य का शिष्य था जो नास्तिक और साथ ही दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति हुआ। अनीश्वरवादी अथवा वे ईश्वरवादी, जो दिखावे के लिए ही परमात्मा को मानते हैं, वे ही प्रकृति से दुष्ट हो सकते हैं । फिर भी यह आवश्यक नहीं कि अनीश्वरवादी अधर्माचरण करने वाला ही हो । यद्यपि परमात्मा को स्वीकार न करने वाले जब वैभव सम्पन्न होते हैं तो कर्तव्याकर्तव्य में भेद भूल जाते हैं । कारण यह है कि कर्तव्य कापालन करने में कुछ उद्देश्य नहीं रह जाता । जब तक मनुष्य हीन और दीन रहता है तब तक वह अपने से बलशाली सांसारिक जीवों से भयभीत दूसरों के साथ धर्मयुक्त व्यवहार रखता है परन्तु जब वह सांसारिक वैभव से युक्त हो स्वयं बलवान बन जाता है तब उसका अनीश्वरवादी होना उसे उलटे मार्ग पर ले जाने में सफल हो जाता है । ठीक यही बात हिरण्यकशिपु के साथ हुई थी । वह शक्ति से युक्त होकर जब प्रचण्ड बल का स्वामी हुआ तो फिर उसे कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध कराने वाला कोई नहीं था। परमात्मा नहीं, तो वेद भी नहीं, वेद नहीं तो उसमे वर्णित श्रेष्ठ व्यवहार भी नहीं।बलशाली होने पर परमात्मा तथा कर्मफल और पुनर्जन्म के ही विचार हैं, जो मनुष्य को सन्मार्ग पर आरूढ़ रख सकते हैं अर्थात आस्तिक्य (आस्तिकता) शक्तिशाली मनुष्यों को धर्मयुक्त मार्ग पर आरूढ़ रहने में सहायक होता है ।
यही बात प्रह्लाद के सन्तान के साथ हुई थी । प्रहलाद अपने पूर्वजन्म के कर्मफलों से तथा गर्भावस्था में माँ से सुने नारद मुनि के उपदेशों से, परमात्मा पर अगाध विश्वास रखने वाला हो गया था । प्रह्लाद की सन्तान विरोचन और बलि तो कुछ ठीक मार्गों पर चलते रहे परन्तु बाण पुन: नास्तिक हो गया । विरोचन ने आदित्यो के राजा इन्द्र पर आक्रमण कर दिया था । इन्द्र ने विरोचन को अपने प्रासाद में घुसने तक नहीं दिया।विरोचन के आक्रमण का कारण यही था कि लक्ष्मी जो दैत्यों की कन्या थी, दैत्यों का देश छोडक़र आदित्यों के पास चली गई थी ।वहाँ उसका विवाह विष्णु से हो गया । इससे चिढकर विरोचन ने आदित्यों पर आक्रमण कर दिया।विरोचन पराजित हुआ तो शुक्राचार्य ने विरोचन और उसके पुत्र बलि को शक्ति-संचय करने की राय दी। बलि ने शक्ति-संचय कर देवलोक पर आक्रमण कर दिया। तब तक आदित्य आलस्य एवं प्रमादवश दुर्बल हो चुके थे ।इस कारण बलि के देवलोक पर आक्रमण करने के कारण इन्द्रादि आदित्यों को अपना देश छोडक़र भागना पड़ा। कहा जाता है कि बलि ने तीनों लोकों में राज्य स्थापित करउन लोगों का दोहन आरम्भ कर दिया था। इसका अभिप्राय यह हुआ कि समाज में ब्राह्मण,क्षत्रिय तथा वैश्य ही उपजाऊ कार्य करते हैं और बलि ने समाज के इन तीनों अंगों पर अपना आधिपत्य कर लिया था । इनका अर्जित पूर्ण धन लेकर वह यज्ञों में दान कर देता था द्यआदित्यों में एक अति ओजस्वी और चतुर कुमार था वामन । उसने आदित्यों का राज्य बलि से वापस लेने के लिए एक योजना बनायी और बलि के यज्ञ में जा पहुँचा ।उसके ओजस्वी स्वरुप को देख बलि अत्यन्त प्रभावित हुआ। बलि यज्ञ में वामन को दक्षिणा देने लगा तो वामन ने कहा कि वह धन-दौलत, रजत, स्वर्ण इत्यादि नहीं लेना चाहता । ये वस्तुएँ उसके उपयोग की नहीं हैंद्य वह तो तीन पग भूमि माँगता है। यज्ञ में दान देने को वचनबद्ध जब बलि तैयार हुआ वामन ने तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) की मुक्ति माँग ली । इसे ही पुराणों में तीन पग भूमि कहा है ।जैसे भूमि सब सम्पति का उद्गम स्थान है, इसी प्रकार समाज का पूर्ण धन इन तीनों वर्णों की उपज ही है ।बलि इस दान के देने में हिचकिचाहट करने लगा परन्तु दिए वचन का उसने पालन किया और भूमण्डल के तीनों वर्ण स्वतंत्र हो अपने कर्मों का स्वयं भोग करने लगे । यह भारतीय परम्परा में लिखी इतिहास है और आज के इतिहास की भाषा में यह आदि वैदिक काल की कथा है ।कारण यह है कि कश्यप इत्यादि अमैथुनीय सृष्टि के जीव थे और बलि कश्यप की चौथी पीढ़ी में ही हुआ था।उस समय तक लगभग दो सौ वर्ष ही सृष्टि को हुए व्यतीत हुए होंगे। अत: तब तक वैदिक काल ही चल रहा था। फिर भी सब के सब व्यक्ति वेद विचार को स्वीकार नहीं करते थे । वामन ने भी दान माँगने में चतुराई का प्रयोग किया था।सामान्य भाषा में इसे छलना कहा जा सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि वैदिक काल में भी मनुष्य वैदिक शिक्षा को अस्वीकार करने वाले हुए थे ।

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