वैदिक सम्पत्ति : इतिहास, पशुहिंसा और अश्लीलता

गतांक से आगे…..

हम लिख आये हैं कि रावणादि ने मांसयज्ञ प्रचलित कर दिया था और उसका, अनार्य म्लेच्छों में खूब प्रचार था । हेमाद्रि- रामायण में लिखा है कि पूर्वसमय में अनार्य म्लेच्छों के संसर्ग से पतित हुआ पर्वतक नामी ब्राह्मण मरुत् राजा के पुत्र वसु राजा का सहपाठी होकर अन्त में उसका उपाध्याय हो गया। उसकी दीर्घकालीन सङ्गति से वसु राजा भी आसुर प्रवृत्तिवाला हो गया और भीतर ही भीतर ऋषियों से द्वेष रखने लगा। परन्तु ऋषियों को यह बात ज्ञात न थी कि राजा वसु आसुर प्रवृत्तिवाला है और हम लोगों को पसन्द नहीं करता । मत्स्य- पुराण अध्याय 123 में, वायुपुराण में और महाभारत शांतिपर्व अध्याय 336 में लिखा है कि इसी समय देवताओं और ऋषियों के बीच ‘अज’ शब्द के अर्थ पर विवाद हुआ । देवता कहते थे कि अज शब्द का अर्थ बकरा है, इसलिए पशुमांस से यज्ञ करना चाहिए और ऋषि कहते थे कि अज शब्द का अर्थ बीज है, इसलिए केवल अन्न से ही यज्ञ करना चाहिये। दोनों ने निश्चय किया कि राजा वसु जो अर्थ निश्चित करें, वही हम लोगों को मानना चाहिए। तद्नुसार दोनों ने राजा वसु के पास जाकर कहा कि महाराज ! बताइये कि यज्ञों को पशुमांस से करना चाहिए या अन्न से । राजा बसु ने प्रश्न तो सुन लिया, पर केवल इतने ही प्रश्न से यह ज्ञात न कर सका कि दोनों दलों में से किसका क्या पक्ष है । अन्दर से तो राजा वसु ऋषियों को हराना चाहता था, इसलिए उसने पूछा कि ‘कस्थ वै को मतः पक्षो ब्रत सत्यं द्विजोत्तमाः । (महाभारत शांतिपर्व 337/12) अर्थात् हे देवर्षियो ! आप सत्य सत्य बतलाइये कि, किसका क्या पक्ष है ? इस प्रश्न को सुनकर ऋषियों ने कहा कि –

धान्यैर्यष्टव्र्यामत्येव पक्षोऽस्माकं नराधिप ।

देवानां तु पशुपक्षो नतो राजम्वदस्व नः ।। (महा० शां० 337/13)

अर्थात् हमारा यह पक्ष है कि धान्य ही से यज्ञ करना चाहिये और देवताओं का यह पक्ष है कि पशुमांस से ही यज्ञ करना चाहिए, इसलिए हे राजन् ! इस विषय में आप अपना मत प्रकट कीजिये। इसके आगे लिखा है कि-

देवानां तु मतं ज्ञात्वा वसूनां पक्षसंश्रयात् ।
छागेनाजेन यष्टव्यमेवमुक्त’ वचस्तदा ।। (महा० शां० 337/14)

अर्थात् देवताओं का मत मालूम करके राजा वसु ने कहा कि अज-छाग-ही से यज्ञ करना चाहिये। राजा वसु के इस फैसले से ऋषियों का पक्ष गिर गया और उसी दिन से पशुयज्ञ होने लगे और यज्ञों में मांस का होम होने लगा। परन्तु इस फैसले के पहिले पशुमांस से यज्ञ नहीं होते थे। इसके पहिले खुद राजा वसु ने ही यज्ञ किया था, किन्तु उस यज्ञ में पशुवध नहीं हुआ था। इसी कथा में लिखा है कि, ‘न तत्र पशुवातोऽभूत् स राजेरास्थितोऽभवत् (महा० शां०336/10 ) अर्थात् उस यज्ञ में पशुघात नहीं हुआ था। इस वर्णन से पाया जाता है कि एक समय था, जब पशुमांस से यज्ञ नहीं होते थे। हमारी यह बात इसी कथा के अगले भाग से अच्छी तरह पुष्ट होती है। महा० शां० अध्याय 340, श्लोक 82 से 94 तक के लेख का सार यह है कि-

इदं कृतयुगं नाम कालः श्रेष्ठः प्रवर्तित |
अहिस्या यज्ञपशवो युगेऽस्मि तदन्यथा ।।
चतुष्पात्सकलो धर्मो भविष्यत्यत्र वै सुराः ।
ततस्त्रेतायुगं नाम त्रयी यत्र भविष्यति ।।
प्रोक्षिता यज्ञपशवो वधं प्राप्स्यन्ति वै मखे ।
यत्र पादश्चतुर्थो वै धर्मस्य न भविष्यति ।।

अर्थात् यह सत्ययुग है- श्रेष्ठ काल है-इसमें यज्ञ के लिये पशुहिंसा करनेयोग्य नहीं है, क्योंकि धर्म चारों कलाओं से परिपूर्ण है । परन्तु इसके आगे त्रेतायुग होगा, उसमें धर्म के तीन ही पाद होंगे, इसलिए उसमें यज्ञों में पशुवध होगा । इस वर्णन से ज्ञात होता है कि पूर्वयुग में आदिम काल में – संहिताकाल में — पशुवध नहीं होता था, प्रत्युत उसके बाद उत्तरयुग में जब धर्म में ह्रास हुआ तब पशुवध होने लगा ।

इस पूर्वयुग और उत्तरयुग की बात पर यज्ञ की पूर्ववेदी ओर उत्तरवेदी स्पष्ट रूप से प्रकाश डालती हैं। क्योंकि जिन यज्ञों में पशुवध होता है, उनमें पूर्ववेदी और उत्तरवेदी बनाई जाती हैं और पशुवध उत्तरवेदी ही में होता है। पूना कॉलेज के भूतपूर्व प्रिंसिपल डॉक्टर मार्टिन हाग ने ऐतरेय ब्राह्मण के भाष्य में अग्निष्टोमयज्ञ का एक बहुत ही उत्तम चित्र दिया है। उसमें वेदी मण्डप और ऋत्विजों के स्थान आदि का विस्तृत चित्रण है। उस चित्रपट के देखने से पता लगता है कि उत्तरवेदी, पूर्ववेदी से बहुत दूर है और उत्तरवेदी ही के पास बलि पशु के बाँधने का यूप है । चित्रपट में दिखलाया गया है कि होम करने के लिए अग्नि पूर्ववेदी से तीन द्वारों में घुमाकर उत्तरवेदी में लाई जाती है और उसी वेदी में पशुमांस का होम होता है। इस प्रमाण से स्पष्ट हो रहा है कि पूर्ववेदी में अर्थात् आदिम कालीन यज्ञवेदी में पशुमांस का होम नहीं होता था, किन्तु उत्तरवेदी अर्थात् पश्चात् कालीन वेदी में ही होता है । अतः पशु- यज्ञ संहिताकालिक नहीं है । यह बात बिलकुल ही स्पष्ट हो जाती है, जब हम देखते हैं कि उत्तरवेदी शब्द चारों वेदों में नहीं है । उत्तरवेदी शब्द यजुर्वेद 19/16 में एकबार आता है, परन्तु हम कात्यायनकृत सर्वानुक्रमरणी के प्रमाण से लिख आये हैं कि वह भाग ब्राह्मण है, संहिता नहीं। इससे मालूम हुआ कि उत्तरवेदी जिसमें पशुवध होता है, वह संहिताकालीन नहीं है, प्रत्युत ब्राह्मणकालीन है, अतः वेदों में पशुयज्ञ का वर्णन और विधान नहीं है ।
क्रमशः

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