3269 (फेसबुक के मित्र) मुर्दों के बीच रहता हूं मैं* / *मुर्दे में तब्दील होती फेसबुक* *खंडहर में मनुष्य और सूखे पेड़ पर तो पक्षियां भी घोंसला नही बनाते

खंडहर में मनुष्य और सूखे पेड़ पर पंक्षियां भी घोषला बनाती नहीं

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आचार्य श्री विष्णुगुप्त

3269 मूर्दो के बीच रहता हूं मैं। यह शीर्षक आपको आश्चर्य में डालेगा। पर मेरी प्रतिक्रिया,पड़ताड और विश्लेषण पढ़कर आप चकित भी होंगे तथा सहमत भी होंगे। कभी फेसबुक समृद्ध थी, फेसबुक पर आजादी भी थी। हर फेसबुक आईडी अपने-अपने विचारों को लेकर काफी सक्रिय और गंभीर होती थी। इसलिए कि उसे स्वच्छंद विचरण करने की स्वतंत्रता हासिल थी। उस काल में मेरे जैसे लोग अपने विचारों को लेकर ज्यादा गंभीर और सामाजिक होते थे। मित्र सूची में शामिल अधिकतर के विषय में कुछ न कुछ जानकारियां हासिल होती थी और वाद-विवाद से आचरण और सक्रियता की भी जानकारी मिल जाती थी। उस काल में एफबी पर विद्वान और एक्टिविस्ट लोग ही ज्यादा होते थे। पोस्ट भी अच्छी होती थी और टिप्पणियां भी चमत्कृत करती थी।
धीरे-धीरे एफबी का चरित्र बदलना शुरू हुआ, स्वच्छंद विचरण पर पाबंदियां लगी, सच बोलने पर पाबंदियां लगी, कड़वा बोल पर पाबंदियां लगी। इसका दुष्प्रभाव क्या हुआ? दुष्प्रभाव यह हुआ कि फेसबुक से राजनीतिक, सामाजिक और साहित्य चिंतकों के साथ ही साथ एक्टिविस्टों का भी मोहभंग होना शुरू हो गया। सोशल मीडिया का एफबी अकेला तो बौस है नहीं, अकेला मंच तो है नहीं। सोशल मीडिया का आज हजारों मंच है। इसके अलावा भी आभाषी दुनिया में कई अन्य मंच है। इंटरनेट पर लोग अपनी दुनिया खुद भी बसा सकते हैं। ह्वाटसप और मेल की कई श्रृंखलाएं भी विकल्प में शामिल हैं।
खाली जगह और अवैध कब्जा दोनों दोस्त होते हैं, मौसेरे भाई होते हैं।खाली जगह होगी तो फिर अवैध कब्जा का भी डर रहता है। खाली जगह पर झाड पनपने का भी डर रहता है। अगर विरान जगह होगी तो फिर झाड़ियां पनपेगी ही, घास-पतवार का ढेर लगेगा ही। घास-पतवार जब सड़ने लगेगा तो उसमें बदबू आयेगी ही। ऐसा ही एफबी के साथ हुआ है। राजनीतिक, सामाजिक, साहित्य चिंतकों के दूर जाने या फिर असक्रिय होने के कारण अनपढ़, बदतमीज और दलाल संस्कृति के लोगों का कब्जा साफ दिख रहा है। सभ्य और शील पोस्ट पर भी अश्लील और हिंसक टिप्पणियां सामने आती हैं। प्रमाण ढुढने की जगह प्रमाण मांगते हैं। हद तो तब होती है जब प्रमाण देने के बाद भी प्रमाण को स्वीकार नहीं करते हैं और गालियां बकने लगते हैं। विचारवान की पोस्ट चोरी कर लेने के अलावा उस पर अपना नाम भी डाल देते हैं।
मैं अपना ही उदाहरण देता हूं। मेरी मित्र सूची में 3404 लोग शामिल हैं। लेकिन जानकर आपको हैरानी होगी कि इसमें 3269 लोग मूर्दे हैं। मैंने यह तय कैसे किया कि मेरी एफबी आईडी में 3269 लोग मूर्दे हैं। मेरे जन्म दिन पर बधाई देने वाले सिर्फ 135 लोग ही सामने आये, जिन्होंने मेरे टाइम लाइन पर बधाइयों के शब्द लिखे और मैसेज बॉक्स में मैसेज दिया। शेष सब मृत और सोये हुए नजर आये।एफबी पर आम तौर पर यह माना जाता है कि वैचारिक पोस्ट और अन्य पोस्टों पर कोई टिप्पणी करे या नहीं पर जन्म दिन पर बधाई देने की परमपरा जरूर रही है। बधाई देकर लोग मित्र होने का प्रमाण देते हैं और साथ होने का अहसास भी देते हैं। ऐसी परमपरा अब एफबी पर लगभग विदा हो गयी है। आखिर क्यों? इसलिए कि अधिकतर लोग गर्ल फ्रेंड मिलने और रातोरात सेलेब्रिटी बन जाने के चक्कर में तो अपनी एफबी आईडी बना ली पर महीनों कोशिश करने के बाद न तो कोई गर्ल फ्रेंड मिली और न ही सेलेब्रिटी बन पाये तो फिर शिथिल हो गये, निष्क्रिय हो गये। अंगूर खट्टे हो गये का शिकार बन गये।
हम जैसों का विकल्प क्या है? विकल्प है। इंटरनेट पर खुद की दुनिया बना सकते हैं। फेसबुक पर मूर्दो का दाहसंस्कार करना अनिवार्य है। सिर्फ जीवंत और सक्रिय, गंभीर चिंतकों को ही मित्र सूची में जगह देने की जरूरत है। फेसबुक भी अनावश्यक अपनी पाबंदियां हटायें और स्वच्छंद विचरण का मंच पहले की तरह गुलजार करे। फेसबुक ऐसा नहीं करेगी तो फिर एक दिन वह खूद खंडहर और सूखे हुए पेड़ों में तब्दील हो जायेगी। खंडहर में कौन आदमी रहना पंसद करेगा, सूखे पेड पर पंक्षियां भी घोषला नहीं बनाती हैं। अब तय करना फेस बुक को है।

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आचार्य श्री विष्णुगुप्त
नई दिल्ली

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