वीरेंद्र सिंह परिहार

8 दिसंबर को संपन्न हुए गुजरात एवं हिमाचल के विधानसभा के नतीजे एवं दिल्ली महानगरपालि के चुनाव नतीजे को लेकरसभी अपने अपने जीत के दावे कर सकते हैं. जहां भाजपा गुजरात विधानसभा में जीती, वहीं कांग्रेस पार्टी हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत प्राप्त की. दिल्ली महानगर पालिका के चुनाव में आप पार्टी ने परचम लहराया. लेकिन यह तो सिर्फ श्रेय लेने की प्रवृत्ति कही जाएगी. यह बात विशेष गौर करने की है कि जहां हिमाचल और दिल्ली में कड़ा मुकाबला था वही गुजरात के चुनाव पूरी तरह से एकतरफा थे. विधानसभा की 182 सीटों में भाजपा जहां 156 सीटों में जीती, वहीं कांग्रेस पार्टी को स्वतंत्र भारत के इतिहास में गुजरात में सबसे शर्मनाक पराजय झेलनी पड़ी. उसे मात्र 17 सीटें प्राप्त हुई और वह विधानसभा में मान्यता प्राप्त विपक्ष भी नहीं बन पाई. रहा सवाल आप पार्टी का तोयहां पर ऐसे ऐसे दावे किए थे जिसके चलते उसकी विश्वसनीयता पर बड़े सवाल खड़े हो गए हैं. बड़बोले केजरीवाल ने गुजरात में बहुमत का दावा किया था और यहां तक कहा था की आईबीरिपोर्ट ऐसा कहती है.इसी तरह से उन्होंने अपने कुछ नेताओं को लेकर लिखित में यह दावा किया था कि वह चुनाव जीत रहे हैं लेकिन वह सभी चुनाव हार गए और आम आदमी पार्टी मात्र 5 सीटें पाकर रह गई…अलबत्ता गुजरात में 12% से ज्यादा वोट पाकर आप पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी बनने का अवसर जरूर प्राप्त हो गया है.दूसरऔर दिल्ली नगर निगम में भाजपा से कांटे के मुकाबले में उसने बहुमत प्राप्त कर लिया है, निश्चित रूप से उसकी एक उपलब्धि कहा जा सकता है.. सवाल कांग्रेस पार्टी के हिमाचल में जीत का. वह एक परंपरागतजीतही कही जा सकती है जिसमें 5 साल में सत्ता परिवर्तनकी परंपरा है.. लेकिन गौर करने का विषय, जहां गुजरात में भाजपा सतत 2001 से चुनाव जीत रही वही हिमाचल जैसे राज्य में 5 साल में ही परिवर्तन क्यों? इसका मतलब स्पष्ट है कि वहां के मुख्यमंत्री और मंत्रियों ने पूरी ईमानदारी से काम नहीकिया. कुछ ऐसी ही स्थित दिल्ली नगर निगम के बारे में भी कही जा सकती है लेकिन वहां पर भाजपा सतत 3 बार से सत्ता में जीत रही थी इसलिए वहां की पराजय एक हद तक समझी जा सकती है. जहां तक हिमाचल में कांग्रेस की जीत का सवाल है,वहसत्ता विरोधी कारक के चलते हुई है, लेकिन भाजपा की गुजरात में महा विजय सुशासन के विजय है विकास की विजय है, निष्ठा एवं ईमानदारी की विजय है,ईमानदारी की विजय है.

यहां पर आप और कांग्रेस पार्टी के कोई लोकलुभावन वायदे काम नहीं आए. इसका एक बड़ा अर्थ है कि देश की अधिकांशजनता वोट के सौदागरों को समझने लगी है. यह भी एक चमत्कारिक तथ्य है कि गुजरात में सीधे-सीधे भाजपा को मतदाताओं का आधे से ज्यादा 52% से ज्यादा वोट मिले,वहीं कांग्रेस पार्टी पिछले चुनाव में 41% की तुलना में 27% के आसपास वोटों पर सिमट गई.कांग्रेस पार्टी और आप पार्टी चाहे जो दावे करें लेकिन इन चुनावों का जो सबसे बड़ा संदेश है, वह यही है कि भले हिमाचल में कांग्रेस पार्टी सत्ता में आ गई हो, लेकिन इन चुनावों से कांग्रेस मुक्त भारत की ओर देश कदम आगे और बढ़ चला है. स्पष्ट है कि वर्तमान दौर में कांग्रेस पार्टी किसी प्रदेश में सत्ता में आती है तो अपनी क्षमता के बल पर नहीं बल्कि भाजपा की कमियों के चलते आती है. जिसमें कर्जमाफी और पुरानी पेंशन बहाली जैसे लोकलुभावन नारों का एक हद तक योगदान हो सकता है. जहां तक आप पार्टी का सवाल है उसके लिए यह कहा जा सकता है कि देश में नई किस्म की राजनीति लाने का दावा करने वाल पार्टी की कलई खुल चुकी है और भाजपा से ज्यादा वह कांग्रेस पार्टी को नुकसान पहुंचा रही है. लेकिन इसके साथ कुछ राज्यों में जो उपचुनाव हुए, इस अवसर पर उनकी भी चर्चा करना अपेक्षित होगा. उत्तर प्रदेश में यद्यपि मैनपुरी लोकसभा और एक विधानसभा का चुनाव जीतने में सपा गठबंधन सफल रहा, लेकिन रामपुर की प्रतिष्ठित सीट पर भाजपा को पहली बार सफलता मिली.निसंदेह इसे योगी सरकार की बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है, क्योंकि 55% मुस्लिम मतदाताओं वाले रामपुर विधानसभा में सिर्फ भाजपा नहीं जीती है हिंदू उम्मीदवार भी जीता. इससे इतना तो कहा जा सकता है,पसमांदा मुसलमानों का मुद्दा जो हाथ में भाजपा ने लिया है, भविष्य में वह गुल खिला सकता है. उड़ीसा में नवीन पटनायकनेउपचुनाव जीतकर यह साबित कर दिया है कि भविष्य में विधानसभा चुनाव में उनका फिलहाल उनका कोई विकल्प नहीं है. बिहार का एकमात्र विधानसभा का उपचुनाव जीतकर और गत माह गोपालगंज का चुनाव जीतकर भाजपा ने यह साबित कर दिया है की लोकसभा का चुनाव तो अपनी जगह है, पर विधानसभा चुनाव में भी वह सत्ता की प्रबल दावेदार है.

इन चुनाव परिणामों ने इतना तो स्पष्ट कर ही दिया है के 2024 में लोकसभा के चुनाव में नरेंद्र मोदी फिर अजय रहने वाले हैं और भाजपा के केंद्र में पूर्ण बहुमत से सरकार बनेगी. चुनाव का सबसे बड़ा संदेश है हैकि भाजपा शासित राज्यों में यदि योगी जैसा मुख्यमंत्री नहीं दिया जा सके तोभी उसके आसपास का मुख्यमंत्री देने का प्रयास किया जाए. चुनावों का सबसे बड़ा अर्थ यह है कि भारतीय राजनीति में जो anti-incumbency की अवधारणा विकसित की गई, उसके कोई बहुत मायने नहीं है,असलियत मेंभारतीय राजनीतिज्ञों ने एंटीइनकंबेंसी के बहाने अपनी कमियों और कारनामों को छुपाने का प्रयास किया.सच्चाई यह है कि यदि पूरी ईमानदारी और निष्ठा से जनता की सेवा की जाए एंटीइनकंबेंसी के कोई मायने ही नहीं है. अलबत्ता pro-incumbency की बात सार्थक है. जब 27 सालों बाद भाजपा एक तरफा बहुमत के साथ गुजरात विधानसभा चुनाव जीती है तो इसके लिए अलग से प्रमाण देने की जरूरत नहीं है. यूं भी इस मोदी दौर में बहुत से चुनावों में प्रो इनकंबेंसी की सार्थकता देखने को मिली है. (युवराज)

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