सत्यार्थ प्रकाश ‘एक अनुपम ग्रन्थ’ भाग-2

राकेश आर्य (बागपत)
    देवियों और सज्जऩों ! आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ‘सत्यार्थप्रकाश’ नामक ग्रन्थ की रचना करके मानव जाति का अवर्णनीय उपकार किया है। सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करना ही इस ग्रन्थ का मुख्य उद्देश्य है। जिसने भी इस ग्रन्थ को पूरा पढ़ा उसी का जीवन बदल गया मैं इस पुस्तक को सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ उसका कारण है कि महर्षि ने लगभग सभी धर्मो का निचौड़ इसमे दिया है जो आम आदमी के लिए अन्यथा सम्भव ही नहीं है मैनें इस ग्रन्थ को थोड़ा-थोड़ा करके प्रस्तुत करने का निर्णय लिया है जिससे प्रत्येक पाठक इसे पढक़र समझ सके। आशा है कि पाठको को यह पसन्द आएगा। प्रस्तुत है भाग-2
  महर्षि के ग्रन्थों की महिमा का पूर्ण परिज्ञान तो उनके बार-बार अध्ययन, मनन एवम् उसके अनुसार आचरण करने से ही हो सकता है। यहां तो केवल उस के विषय में यथासम्भव दिग्दर्शन मात्र ही कराया गया है।
      आर्ष साहित्य में भाषा सरल एवं भाव गम्भीर होते हैं। उन के गम्भीर भावों को जानने के लिए उनका बार-बार अध्ययन करना चाहिए। श्री पं0 गुरुदत्त विद्मार्थी ने जो अत्यन्त मेधावी थे, सत्यार्थप्रकाश को चौदह बार पढक़र यह लिखा था कि जब-जब मैं इस ग्रन्थ को पढ़ता हूं तब-तब नई-नई बातें ही मुझ को मिलती हैं। इस में कुछ भी सन्देह नहीं कि इस आर्ष ग्रन्थ के अध्ययन से पाठकों को पं0 गुरुदत्त जी के समान अमूल्य रत्न मिलेंगे।
        ऋषि ने अपने समय में वर्तमान किसी भी अनार्ष साहित्य को पठन-पाठन में नहीं रखा। उन की इस पद्धति का अनुसरण किये बिना सत्य ज्ञान की प्राप्ति दुर्लभ है। महर्षि की मान्यताओं पर श्रद्धा रखने वाले भी ‘लेकिन शब्द का सहारा लेकर तदनुसार नहीं चलते। अत: वे अनार्ष ग्रन्थों से बहुत सी भ्रान्त धारणाएं प्राप्त कर सन्देहयुक्त ही रहते हैं। भ्रान्त संस्कार सत्यज्ञान की प्राप्ति में बराबर बाधक बने रहते हैं। गुरुवर विरजानन्द जी का यह कहना सर्वथा यथार्थ था कि ‘पहले अनार्ष ग्रन्थों को यमुना में डाल आओ फिर मेरे पास पढऩे के लिए आना।’
      ऋषि ने आर्ष ग्रन्थों के गुणों का अध्ययन एवम् अपने समय में विद्ममान बहुत से अनार्ष ग्रन्थों को नाम निर्देश पूर्वक दोषयुक्त बताया तथा कतिपय वेदविरुद्ध ग्रन्थों के वचनों की अपने ग्रन्थों में समिक्षा भी की। उन्होंने जिन दोषों का कथन किया है वे दोष आज तक के समस्त अनार्ष साहित्य में भी विद्ममान हैं।
       ऋषि का यह वचन भी ध्यान देने योग्य है कि जितना ज्ञान आवश्यक है वह वेदादि सच्छास्त्रों में उपलब्ध हैं। उनके ग्रहण में सब सत्य का ग्रहण हो जाता है। उन के अतिरिक्त विचार तो तदनुकूल होने से ही प्रामाणिक हैं। प्रथम आर्ष साहित्य पढ़े बिना तदनुकूलता का ज्ञान कैसे हो सकता है? अत: सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रथम आर्ष ग्रन्थ ही पढऩे चाहिए।
क्रमश:

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