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सेंसर : दुधारी राजनीति

फिल्म सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष और ज्यादातर सदस्यों ने इस्तीफे देकर बड़ी खबर बना दी है लेकिन सवाल यह है कि इस्तीफे क्यों दिए गए हैं? यदि ये इस्तीफे इसलिए दिए गए हैं कि ‘मैसेंजर आफ गाॅड’ फिल्म को अपीलीय बोर्ड ने पास कर दिया है तो इन इस्तीफों का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि अपीलीय अदालत या बोर्ड बनाया ही इसलिए जाता है कि वह बोर्ड या अदालत के फैसलों पर पुनर्विचार करे। सेंसर बोर्ड की अध्यक्षता और इस्तीफा देनेवालों को पहले इस सवाल का जवाब देना होगा कि वे अपीलीय बोर्ड को अपने से ऊपर मानते हैं या नहीं? यदि नहीं तो उन्हें पहले ही इस्तीफे दे देने चाहिए थे या ये पद स्वीेकार ही नहीं करने चाहिए थे। वे पूछते कि मालिक का मालिक कौन? हम ही अंतिम सत्य के ठेकेदार हैं। एक बार उन्होंने जब अपीलीय बोर्ड को मान लिया तो उसके निर्णय को लेकर इस्तीफा देने की तुक मेरी समझ में नहीं आती।

हां, ‘मेसेंजर आॅफ गाॅड’ फिल्म पर सेंसर बोर्ड को गहरी आपत्ति हो सकती है और वह आपत्ति बिल्कुल सही भी हो सकती है लेकिन उस पर इस्तीफा देने का कोई कारण नहीं है। वह फिल्म कैसी है, इस प्रश्न का उत्तर मैं तभी दे सकता हूं, जबकि मैं खुद उसे देख लूं। लेकिन उस फिल्म को बनानेवाले और उसके हीरो पर बलात्कार, व्यभिचार और हत्या के जो मुकदमे चल रहे हैं, उनसे ही हम अंदाज लगा सकते हैं कि वह फिल्म कैसी होगी और क्यों बनाई गई होगी? उस फिल्म को पास करने वाले लोगों ने भी उसे आपत्तिजनक पाया है, इसलिए उसके कुछ आपत्तिजनक अंश हटवाए जा रहे हैं और फिल्म के आंरभ और अंत में मुनादी करवाई जा रही है कि दर्शकों को यह गलतफहमी न हो जाए कि यह ‘सच्चा सौदा’ ही है। हमारे देश में पाखंड और अंधविश्वास की आंधी आई हुई है। इस आंधी को हमारे राजनेता रोकने में असमर्थ हैं, क्योकि वे तो वोटों के भिखारी हैं। वे नेता नहीं हैं, जनता के अस्थायी नौकर हैं। यदि किसी फिल्म से, किसी नाटक से, किसी बाबा से या किसी बाॅबी से उन्हें नौकरी मिलने की आस बंध जाए तो वे कुछ भी कर सकते हैं। इस फिल्म के बाबा के चरणों में भाजपा के नेता जिस तरह मत्थे और घुटने टेकते रहे हैं, उससे यह संदेह पुष्ट होता है कि अपीलीय बोर्ड का फैसला शु़द्ध राजनीतिक है। इसीलिए सेंसर बोर्ड के इस्तीफे भी शुद्ध राजनीतिक हैं। यों भी बोर्ड के सदस्यों की अवधि पूरी हो रही थी। सरकारी हस्तक्षेप का कोई प्रमाण भी वे अभी तक नहीं दे सके हैं। लेकिन इस सरकार को अब ऐसा सेंसर बोर्ड बनाना चाहिए, जिसके सदस्य सचमुच स्वायत्त हों, जिन्हें दिशा-निर्देश देने के पहले प्रधानमंत्रियों के भी छक्के छूट जाएं।

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