रक्षा_बन्धन का मूल नाम #श्रावणी_उपाकर्म, #ऋषि_तर्पण, #वेद_स्वाध्याय #यज्ञोपवीत_धारण_पर्व है।

#रक्षा_बन्धन का मूल नाम #श्रावणी_उपाकर्म, #ऋषि_तर्पण, #वेद_स्वाध्याय #यज्ञोपवीत_धारण_पर्व है।

१) #श्रावणी_उपाकर्म – “#श्रावण” शब्द का अर्थ सुनना और श्रावणी जिसका अर्थ होता है सुनाये जाने वाली। क्या सुनाये जाने वाली? जिसमें वेदों की वाणी को सुना जाये। वह “श्रावणी” कहाती है। अर्थात् जिसमें निरन्तर वेदों का श्रवण और स्वाध्याय और प्रवचन होता रहे। वह श्रावणी है।इस लिए इस महीने का नाम ही श्रवण मास / सावन मास है।

२) “#उपाकर्म” जिसमें ईश्वर और वेद के समीप ले जाने वाले यज्ञ कर्मादि श्रेष्ठ कार्य किये जायें वह “उपाकर्म” कहाता है। यह समय धर्म पुस्तकें पढ़ने का उपकरण था। जनता को ऋषि-मुनियों, समाज के विद्वानों के समीप ले आना।

३) #ऋषि_तर्पण – जिस कर्म के द्वारा ऋषि मुनियों का और आचार्य, पुरोहित, पंडित जो विशेषकर वेदों के विद्वान है उनका तर्पण किया जाता है उन्हें यथेष्ट दान देना अर्थात् उनके वचनों को सुनकर उनका सम्मान करना ही “ऋषि-तर्पण” कहाता है।

४) #वेद_स्वाध्याय_पर्व – स्वाध्याय (वेदों को पढ़ना )भारत की संस्कृति का प्रधान अंग है।

श्रावण माह में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासी, ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र सभी को वेदों का स्वाध्याय में लगने का आदेश है।

५) #यज्ञोपवीत_धारण_पर्व – इस समय जिन लोगों ने यज्ञोपवीत नहीं धारण किया हुआ है, उन्हें नया यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। अर्थात इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वे अज्ञान, अंधकार से बाहर निकलेंगे और और ज्ञानवान होकर परिवार, समाज, राष्ट्र को प्रकाशित करेंगे। जिन लोगों ने यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है, उन्हें पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया धारण करना चाहिए। अर्थात् इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वह अपने जीवन में स्वाध्याय और यज्ञ को कभी नहीं छोडेंगे। विशेषकर यज्ञोपवीत में तीन धागे होते है वे तीन ऋणों के प्रतीक है। ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण। मनुष्य को इन तीनों ऋणों का बोध हो और अपना कर्तव्य निभाता रहे यही उद्देश्य है।

६) #रक्षाबन्धन – रक्षाबंधन का पर्व भारत की संस्कृति से जुड़ा पर्व है। राजपूत काल में अबलाओं द्वारा अपनी रक्षा के लिए वीरों के हाथ में राखी बांधने की परिपाटी का प्रचार हुआ। जिस किसी वीर क्षत्रियों को कोई अबाला राखी भेजकर अपना राखी बंद भाई बना लेती थी वो उसकी रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता था। इतिहास में ऐसी बहुत सारी घटनाएं दर्ज है जहां पर भाइयों ने अपने प्राणों की आहुति दे कर बहनों की रक्षा की है। इस दृष्टि से यह त्यौहार भारत की संस्कृति के आध्यात्मिक पथ पर गहरा प्रकाश डालता है।

विशेष – अवश्य रुप से अपने घरों में यज्ञ करें। श्रावणी उपाकर्म के विशेष मंत्रों से आहुति प्रदान करें। घर के बालक जो दस बारह वर्ष से अधिक आयु के हो गए हैं या समझदार हैं। उनका यज्ञोपवीत संस्कार अवश्य रुप से करायें। यज्ञोपवीत का महत्व बताएं। जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है वह पुराना उतार कर नया यज्ञोपवीत धारण करें। वेद पढ़ने-पढ़ाने का संकल्प लें, स्वाध्याय करने का संकल्प लें, प्रतिदिन यज्ञ करने का संकल्प लें, अपने बहनों एवं मातृशक्ति के रक्षा करने का संकल्प लें, बस यही संदेश है श्रावणी पूर्णिमा। इस संदेश को घर-घर पहुंचाएं, ऐसे ही मनाएं श्रावणी पर्व।
श्रावणी-उपाकर्म, ऋषि-तर्पण, वेद-स्वाध्याय पर्व,
हाथ पर कलावा अथवा राखी बंधवाना , श्रावणी पर्व का बिगड़ा हुआ स्वरूप है
कंधे पर रक्षासूत्र पहनते हुए बहन ही नही समस्त धार्मिको की रक्षा का संकल्प लिया करते थे इस देश के श्री राम श्री कृष्ण आर्य व आर्य।

यह सिद्धांत सिर्फ आर्यो को ही पता है किंतु दुख यह कि श्रावणी के दिन खुद आर्य व आर्याये राखी बंधवाने व बांधने में अग्रणी रहेंगे।

मैं आज रक्षासूत्र बदलूंगा, मेरा राखी व कलावे से कोई सम्बन्ध नही। परमात्मा आप सभी को उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घायु, ऐश्वर्य, यश, कीर्ति प्रदान करें। और ऐसे ही व्यस्त रहें, स्वस्थ रहें, मस्त रहे!
ओ३म्

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