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समाज को दिशा देती हैं हिंसा मुक्त फिल्में

सुरेश हिन्दुस्थानी

कहते हैं भारतीय फिल्मों का समाज जीवन पर गहरा असर होता है, आज कई युवा तो केवल फिल्मों से आकर्षित होकर उसकी तरफ कदम बढ़ाने को आतुर दिखाई देते हैं। केवल चमक दमक और हिंसा मुक्त फिल्में ही आज समाज के सामने दिखाई जा रही हैं, जो समाजानुकूल नहीं कही जा सकतीं। वर्तमान में कई फिल्मों में अश्लील भाषा तक प्रयोग में लाई जा रही है। इसके अलावा सबसे असहनीय बात तो यह है कि कई फिल्में भारतीय संस्कृति से अलग एक नई राह का ताना बाना खड़ा करने में ही अपना ध्यान लगा रही हैं। वास्तव में भारतीय फिल्मों में आज भारत कहीं भी दिखाई नहीं देता, इसके विपरीत पश्चिमी आवरण में लिपटी हुई यह फिल्में कैसे भारत का निर्माण कर रही हैं। यह अब दिखने लगा है। यह बात सही है कि फिल्मों में आतंकी गतिविधियों का फिल्मांकन भी किया जा रहा है, और नए नए तरीके अपनाकर युवतियों को दिखाया जा रहा है, इस कारण समाज में आतंक और युवतियों के प्रति सहज लगाव की भावना विकसित हो रही है। मुझे याद आता है कि भारत की कुछ फिल्मों में तो लड़कियों के पटाने के तरीके बताए गए हैं।

एक बार की बात है कि मैंने एक पत्रिका में पढ़ा था कि एक चोर ने बिलकुल फिल्मी अंदाज में लूट को अंजाम दिया, साथ ही पत्रिका में एक अंगे्रजी फिल्म की संक्षिप्त पटकथा भी प्रकाशित की थी। बिलकुल वही तरीका था, जैसा चोर ने अपनाया था। इस प्रकार की फिल्में निश्चित रूप से समाज को गलत राह पर ले जाने का कार्य ही करतीं हैं। एक प्रकार से दिशाहीन समाज बनाने वाली यह फिल्में किसी भी प्रकार से समाज हितैषी नहीं कही जा सकतीं। वास्तव में फिल्मों का निर्माण समाज की भलाई के लिए ही होना चाहिए। इसे लेकर केन्द्रीय फिल्म निर्माणन बोर्ड के नए अध्यक्ष पहलाज निहलानी ने गंभीर चिन्ता व्यक्त की है। उन्होंने कहा कि बोर्ड में कई ऐसे लोग शामिल हो जाते थे जिन्हें पता ही नहीं रहता था कि नियमावली क्या है। इसके अलावा सौ में से केवल दस या बारह लोग ही फिल्म लाइन से संबंध रखते थे। बाकी सभी अपनी राजनीतिक पहुंच के चलते जगह प्राप्त करने में सफल हो जाते थे। ऐसे में सेंसर बोर्ड के सदस्यों से क्या अपेक्षा की जा सकती है।

केन्द्रीय फिल्म निर्माणन बोर्ड के नए अध्यक्ष पहलाज निहलानी ने कहा कि फिल्मों को साफ सुथरा बनाने के लिए वे दृढ़ प्रतिज्ञ हैं। ऐसा कहने से यह तो लगने लगा है कि केन्द्रीय फिल्म निर्माणन बोर्ड से देश को जो आशा और सुधार की अपेक्षा है, वह अब पूरी हो सकेगी। हम जानते हैं कि वर्तमान में देश की युवा पीढ़ी पर फिल्मों का गहरा असर है, इसी कारण से युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित सी होती हुई सी दिखाई देती है। संस्कारों के नाम पर फिल्मों में नंगापन दिखाया जा रहा है। लेकिन यह संस्कार नहीं है, यह तो भारत को विनाश के कगार पर ले जाने का एक कुसंस्कार ही कहा जाएगा। वास्तव फिल्म निर्माताओं को सबसे पहले इस बात का आभास होना चाहिए कि भारत क्या है, और भारतीयता क्या है? लेकिन आज की फिल्मों को देखकर सहसा यह सवाल मन में उभरता दिखाई देता है कि क्या आज की फिल्मों में जो दिखाया जा रहा है वह भारत का दर्शन कराने वाला है या फिर भारत को समाप्त करने वाला कदम है? मुझे इस बात पर एक बार की घटना स्मरण में आती है ‘एक बार मैं एक परिवार में गया, वहां दीवार पर कुछ फिल्मी चित्रों को देखा, साथ ही दो धार्मिक चित्र भी लगे थे। उस परिवार का सात या आठ वर्ष का बालक मेरे पास आया, मैंने अचानक ही उस बालक से पूछ लिया कि बताओ यह किसका चित्र है, तो बालक ने उत्तर दिया ‘अंकल जी यह माधुरी दीक्षित, यह गोविन्दा और यह दिव्या भारती का है, जैसे ही राम और कृष्ण के चित्रों की बारी आई तो वह चुप रह गया। मैंने फिर भी पूछ ही लिया कि यह चित्र किसके हैं तो बालक ने उत्तर दिया कि अंकल जी इसके बारे में मुझे नहीं पता। वास्तव में यही सत्यता है आज हमारे समाज की। फिल्मों के कारण ही आज की पीढ़ी हमारे आदर्शों से दूर होती जा रही है। आधुनिकता के नाम पर समाज में जो बुराई पनप रही है, वह भारतीयता के नाम पर कलंक ही है। इसके अलावा आजकल एक और बुराई देखने में आ रही है कि फिल्मों के माध्यम से कई लोग हिंसक गतिविधियों में संलिप्त होते जा रहे हैं। कई फिल्मों में देखा गया है कि हिंसा करने के नए नए तरीके प्रयोग में लाए जा रहे हैं, गालियों और बंदूकों का प्रयोग किया जा रहा है। इस सबके लिए नए नए प्रयोगों का सहारा लिया जा रहा है।  प्राय: देखने में आता है कि फिल्मों में जो बुराई है उसको समाज बहुत जल्दी ही अपने जीवन का हिस्सा बना लेता है, लेकिन कुछ फिल्में जो अच्छी भी कही जा सकती हैं, समाज उनसे कुछ भी सीखने का प्रयास करता दिखाई नहीं देता। हालांकि अच्छी फिल्में गिनी चुनी ही हैं। इसमें जितना दोष फिल्म बनाने वालों का है, उतना ही दोष हमारे समाज का भी है। समाज के जागरुक नागरिकों को ऐसी फिल्मों को सिरे से खारिज करना चाहिए। कहा जाता है कि फिल्म निर्माता वैसी ही फिल्म बनाता है जैसी समाज चाहता है। सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी ने जिस प्रकार के संकेत दिए हैं, वह प्रशंसनीय हैं। उन्होंने कहा है कि अब फिल्मों में न तो गालियां सुनने को मिलेंगी और नहीं बंदूकों की आवाज। साफ सुथरी फिल्मों का निर्माण किया जाएगा। जिससे समाज कुछ सीख सके।

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