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मालदीव पर चुप रहना ठीक नहीं

मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद के बारे में मैं पहले भी लिख चुका हूं। भारतीय विदेश नीति का दब्बूपना अब जम कर उजागर हो गया है। भारत सरकार वर्तमान मालदीवी राष्ट्रपति अब्दुल यामीन से इतनी डरी हुई है कि जब नशीद के प्रतिनिधि भारत आए थे तो हमारे अफसरों ने उनसे मिलने से मना कर दिया और जब हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज मालदीव गई तो वे नशीद या उनके सहयोगियों से नहीं मिली, जबकि नशीद की मालदीवी डेमोक्रेटिक पार्टी मुख्य विपक्षी दल है। इसके अलावा नशीद भारत के अभिन्न मित्र हैं। इसका परिणाम क्या हुआ?

अब नशीद को 13 साल की जेल हो गई है। यह जेल क्यों हुई है? इसलिए कि मालदीव की अदालत ने नशीद को आतंकवाद का अपराधी घोषित कर दिया है। नशीद ने कैसा आतंकवाद किया था? क्या उसने संसद में बम फोड़ा था या किसी नेता की हत्या की थी या किसी मस्जिद को ढ़हा दिया था? नहीं, उन्होंने राष्ट्रपति रहते हुए एक जज को गिरफ्तार करवा दिया था। उस जज पर रिश्वत लेने का आरोप था। हो सकता है कि राष्ट्रपति से कोई कानूनी भूल हो गई हो लेकिन क्या इसे आंतकवाद कहा जा सकता है?

नशीद को पकड़  कर जेल में बंद करना यामीन सरकार ने पहले से तय कर रखा था, क्योंकि नशीद ने सरकार की नाक में दम कर रखा था। इस समय मालदीव में जोरदार आंदोलन चल रहा है। अब नशीद की गिरफ्तारी से वह और भी तेज हो जाएगा। क्या इन हालातों में भारत का चुप या उदासीन रहना उचित है? पहली बात तो यह कि मालदीव में गृहयुद्ध छिड़ गया तो भारत पर उसका सीधा असर पड़ेगा। दूसरा, मालदीव की राजनीतिक उपयोगिता काफी घट जाएगी। तीसरा, भारत का प्रभाव वहां घटेगा और चीन का बढ़ेगा। मालदीव भारत – विरोधी गतिविधियों का अड्डा बन जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मालदीव की यात्रा स्थगित की। यह ठीक नहीं किया। उन्हें वहां जाकर दोनों पक्षों को समझाना चाहिए था। अभी भी मौका है। भारत सरकार अपने अधिकारियों को वहां भेज सकती है या उच्चायुक्त या किसी अनौपचारिक संपर्क के द्वारा मालदीव की गुत्थी को सुलझा सकती है।

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