लाल आतंक का निशाना बनते जवान

प्रमोद भार्गव

माओवादी नक्सलियों द्वारा छत्तीसगढ़ में जिस तरह से सीआरपीएफ के जवानों पर घात लगाकर हमले किए जा रहे हैं,यह स्थिति चिंताजनक है। इस बार लाल आतंकियों ने धुर नक्सल प्रभावित सुक्मा जिले के चिंतागुफा थाना क्षेत्र के जंगलों में नक्सलियों की टोह ले रहे एसटीएफ जवानों की टुकड़ी पर हमला बोला है। जिसमें प्लाटून कमांडर शंकर राव सहित 7 जवान शहीद हुए हैं। इस टुकरी में 60 जवान थे। यह वही इलाका है,जहां नक्सली खून की इबारत लिखने का सिलसिला अर्से से जारी रखे हुए है। इसके पहले 2014 में इसी क्षेत्र में दो घातक हमले किए थे,जिनमें राज्य पुलिस और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के 15 जवान शहीद हुए थे। 2013 में कांग्रेसी नेताओं पर नक्सलियों ने बड़ा हमला करके कांग्रेस को कमोवेष नेतृत्व मुक्त कर दिया था। 2010 में किए गए सबसे बड़े नक्सली हमले में 76 सुरक्षाकर्मी मारे गए थे। इस हमले के बाद संप्रग सरकार ने इन माओवादियों के खिलाफ विशेष कार्रवाई की योजना राज्य की रमन सिंह सरकार के साथ बनाई थी,जिसे ग्रीन हंट ऑपरेशन नाम दिया गया था,लेकिन इसके कारगर परिणाम सामने नहीं आए। साफ है कि अब इस समस्या को सेना के हवाले कर देने के अलावा सरकार के पास कोई अन्य उपाय बचा नहीं रह गया है।

इस घटना से साफ हो गया है कि लाल आतंकवादियों को नरेंद्र मोदी सरकार का भी कोई खौफ नहीं है। नक्सलियों की इन वारदातों को बार-बार कायराना हरकत कहकर सुरक्षा बल के जवानों को इस तरह से मौत के अंधे कुओं में धकेलना नाइंसाफी है। क्योंकि इस ताजा घटना के तत्काल बाद केद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने मुख्यमंत्री रमन सिंह से फोन पर बात करने के बाद ट्विट किया कि सीआरपीएफ की अतिरिक्त टुकरियां घटनास्थल पर भेजी जा रही हैं। जाहिर है,राजग सरकार फौरी उपायों से आगे नहीं बढ़ पा रही है। लिहाजा अब जरूरी हो गया है कि नक्सल विरोधी रणनीति में आमूलचूल परिर्वतन किया जाए। क्योंकि केंद्र में भाजपा नेतृत्व वाली सरकार के गठन के बाद यह उम्मीद बंधी थी कि सरकार आतंरिक सुरक्षा से जुड़े मामलों को गंभीरता से लेते हुए सख्त कदम उठाएगी। लेकिन सरकार स्पष्ट रणनीति और कठोर पहल करने में अब तक नाकाम रही है। जबकि केंद्र व राज्य सरकारें भाजपा नीत वाली हैं।

विषमता और शोषण से जुड़ी भूमण्डलीय आर्थिक उदारवादी नीतियों को जबरन अमल में लाने की प्रक्रिया ने देश में एक बड़े लाल गलियारे का निर्माण कर दिया है, जो पशुपति ;नेपाल से तिरुपति ;आंध्रप्रदेश तक जाता है। इन उग्र चरमपंथियों ने पहले पश्चिम बंगाल की माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता-कार्यकर्ताओं को चुन-चुनकर मारा और उसके बाद छत्तीसगढ़ के दरभा में पिछले साल कांग्रेसी नेताओं को मारा था। जाहिर है, नक्सलियों का विश्वासऐसे किसी मतवाद में नहीं रह गया है, जो बातचीत के जरिए समस्या को समाधान तक ले जाए। भारतीय राष्ट्र-राज्य की संवैधानिक व्यवस्था को यह गंभीर चुनौती है। इन घटनाओं को अब केवल लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला कहकर दरकिनार नहीं कर सकते ? जिन लोगों का भारतीय संविधान और कानून से विश्वास पहले ही उठ गया है, उनसे लोकतांत्रिक मूल्यों के सम्मान की उम्मीद व्यर्थ है। अब इस समस्या के हल के लिए क्षेत्रीय संकीर्णता से उबरकर केंद्रीकृत राष्ट्रवादी दृष्टिकोण अपनाने की जरुरत है।

पशुपति से लेकर जो वाम चरमपंथ तिरुपति तक पसरा है, उसने नेपाल , झारखण्ड, बिहार, ओड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के एक ऐसे बड़े हिस्से को अपनी गिरफ्त में ले लिया है, जो बेशकीमती जंगलों और खनिजों से भरे पड़े हैं। छत्तीसगढ़ के बैलाडीला में लौह अयस्क के उत्खनन से हुई यह शुरुआत ओड़ीसा की नियमगिरी पहाडिय़ों में मौजूद बॉक्साइट के खनन तक पहुंच गई है। यहां आदिवासियों की जमीनें वेदांता समूह ने अवैध हथकंडे अपनाकर जिस तरीके से छीनी हैं, उसे गैरकानूनी,देश की सबसे बड़ी अदालत ने माना है। शोषण और बेदखली के ये उपाय लाल गलियारे को प्रशस्त करने वाले हैं। यदि अदालत भी इन आदिवासियों के साथ न्याय नहीं करती तो इनमें से कई उग्र चरमपंथ का रुख कर सकते थे ?

सर्वोच्च न्यायालय का यह एक ऐसा फैसला था,जिसे मिसाल मानकर केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे उपाय कर सकती थीं, जो वाम चरमपंथ को आगे बढऩे से रोकते। लेकिन तात्कालिक हित साधने की राजनीति के चलते,ऐसा हो नहीं रहा है। राज्य सरकारें केवल इतना चाहती हैं कि उनका राज्य नक्सली हमले से बचा रहे। छत्तीसगढ़ इस नजरिए से और भी ज्यादा दलगत हित साधने वाला राज्य है। क्योंकि भाजपा के इन्हीं नक्सली क्षेत्रों से ज्यादा विधायक जीतकर आते हैं। मुख्यमंत्री रमन सिंह के इसी नरम रुख के कारण भाजपा के किसी भी विधायक या बड़े नेता पर आज तक नक्सली हमला नहीं हुआ है ? जबकि दूसरी तरफ नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ से कांग्रेस का कमोबेश सफाया कर दिया है। क्योंकि कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा ने नक्सलियों के विरुद्ध सलवा जुडूम को 2005 में खड़ा किया था। सबसे पहले बीजापुर जिले के कुर्तु विकासखण्ड के आदिवासी ग्राम अंबेली के लोग नक्सलियों के खिलाफ खड़े हुए थे। नतीजतन नक्सलियों की महेन्द्र कर्मा और कांग्रेसियों से नाराजी दरभा हत्याकाण्ड में देखने को मिली थी। जाहिर है, इनसे न केवल सख्ती से निपटने की जरुरत है, बल्कि खुफिया एजेंसियों को भी सतर्क करने की जरुरत है। क्योंकि नक्सली हमलों के मद्देनजर केंद्र और राज्य सरकारों की जासूसी संस्थाएं सौ फीसदी नाकाम रही हैं। ऐसे में इनके औचित्य पर भी सवाल खड़ा होता है ?

सुनियोजित दरभा हत्याकांड के बाद जो जानकारियां सामने आई थी, उनसे खुलासा हुआ था कि नक्सलियों के पास आधुनिक तकनीक से समृद्ध खतरनाक हथियार हैं। इनमें रॉकेट लांचर, इंसास, हेंडग्रेनेड, ऐके-56 एसएलआर और एके-47 जैसे घातक हथियार शामिल हैं। बड़ी मात्रा में आरडीएक्स जैसे विस्फोटक हैं। लैपटॉप, वॉकी-टॉकी, आईपॉड जैसे संचार के संसाधन हैं। साथ ही वे भलीभांति अंग्रेजी भी जानते हैं। तय है, ये हथियार न तो नक्सली बनाते हैं और न ही नक्सली क्षेत्रों में इनके कारखाने हैं। गोया, ये सभी हथियार नगरीय क्षेत्रों से पहुंचाए जाते हैं। हालांकि खबरें तो यहां तक हैं कि पाकिस्तान और चीन माओवाद को बढ़ावा देने की दृष्टि से हथियार पंहुचाने की पूरी एक श्रृंखला बनाए हुए हैं। चीन ने नेपाल को माओवाद का गढ़ ऐसे ही सुनियोजित षड्यंत्र रचकर बनाया और वहां के हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को ध्वस्त किया। नेपाल के पशुपति से तिरुपति तक इसी तर्ज के माओवाद को आगे बढ़ाया जा रहा है। हमारी खुफिया एजेंसियां नगरों से चलने वाले हथियारों की सप्लाई चैन का भी पर्दाफाष करने में कमोबेश नाकाम रही हैं। यदि ये एजेंसियां इस चैन की ही नाकेबंदी करने में कामयाब हो जाती हैं तो एक हद तक नक्सली बनाम माओवाद पर लगाम लग सकती है।

हालांकि पूर्व की संप्रग सरकार नक्सलियों से निपटने में सेना के हस्तक्षेप से मना करती रही है और नरेंद्र मादी सरकार का इस बाबत कोई स्पष्ट रुख अब तक सामने नहीं आया है। लेकिन मोदी सरकार को सोचने की जरूरत है कि जब किसी भी किस्म का चरमपंथ राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना को चुनौती बन जाए तो जरुरी हो जाता है, कि उसे नेस्तानाबूद करने के लिए जो भी कारगर उपाय जरुरी हों, उनको उपयोग में लाया जाए ? इस सिलसिले में केंद्र सरकार को इंदिरा गांधी और पीवी नरसिम्हा राव सरकारों सेसबक लेने की जरुरत है, जिन्होंने पंजाब और जम्मू-कश्मीर के उग्रवाद को खत्म करने के लिए सेना का साथ लिया, उसी तर्ज पर माओवाद से निपटने के लिए अब सेना की जरुरत अनुभव होने लगी है। क्योंकि माओवादियों के सशस्त्र एक-एक हजार के जत्थों से राज्य पुलिस व अर्ध-सैनिक बल मुकाबला नहीं कर सकते। धोखे से किए जाने वाले हमलों के बरक्षएकाएक मोर्चा संभालना और भी कठिन हो जाता है ? माओवाद प्रभावित राज्य सरकारों को संकीर्ण मानसकिता से ऊपर उठकर खुद सेना तैनाती की मांग केंद्र से करने की जरुरत है। देश में सशस्त्र 10 हजार संख्या वाली नक्सली फौज से सेना ही निपट सकती है।

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