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कोर्ट को गुमराह करना ज्यादा गंभीर

जमानत पर छूटे फिल्मी सितारे सलमान खान को मिलने के लिए मुंबई के कई कलाकार और नेतागण उनके घर पहुंच गए, यह स्वाभाविक है। हो सकता है कि सलमान लोगों के अच्छे दोस्त हों। वे लोकप्रिय अभिनेता तो हैं ही। उनके साथियों और प्रशंसकों को इस बात की पीड़ा है कि उन्हें पांच साल की सजा हो गई तो इस पीड़ा को भी गलत नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि जो लोग सलमान से मिलने गए, वे यह मानते हैं कि सलमान बेगुनाह है या उन्हें सजा नहीं मिलनी चाहिए थी। मित्र उन्हें ही माना जाता है जो विपद् में काम आएं। सलमान इस समय घनघोर विपद् में हैं। उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि उन्हें सजा भी हो सकती है, वह भी सश्रम कारावास! जो फिल्मों में अपराधियों को पकड़ने की भूमिका निभाता है, आज वह खुद अदालत में अपराधी बना खड़ा है। फिल्मी दुनिया और असली दुनिया में क्या फर्क होता है, उन्हें आज पता चल गया है।

किंतु फिल्मी दुनिया के कुछ लोग अभी भी हवाई किलों में रह रहे हैं। उन्हें यह कहते हुए ज़रा भी शर्म नहीं आई कि सड़क पर तो कुत्ते सोते हैं। कुत्तों के मरने पर इतना हंगामा क्यों? किसी मनुष्य की हत्या पर इतनी घृणित बात कोई समझदार आदमी कैसे कह सकता है? लेकिन पैसे, सत्ता और लोकप्रियता का नशा तो शराब के नशे से भी ज्यादा भयंकर होता है। सलमान शराब के नशे में चूर थे। उनके पास लाइसेंस भी नहीं था। वे अपनी भीमकाय कार अंधाधुंध भगाए जा रहे थे। उनके अंगरक्षक पुलिस के जवान रवींद्र पाटील ने उन्हें टोका भी, लेकिन सिर्फ शराब का नशा होता तो वह शायद संभल जाता, लेकिन उन्हें वह नशा भी था, जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है। इसी नशे में चूर होकर उन्होंने एक गरीब आदमी को कुचल डाला। उसकी हत्या कर दी और चार मजदूरों को जीवनभर के लिए अपंग कर दिया। कौन थे, ये पांच लोग? पहला, नुरुल्लाह शरीफ, जो मारा गया। जो घायल हुए, वे थे- मोहम्मद अब्दुल्ला शेख, मन्नू खान, मोहम्मद कलीम इकबाल पठान और मुस्लिम नियामत शेख। इसी नशे के चलते सलमान अन्य कई संगीन मुकदमों में भी फंसे हुए हैं।

ऐसा नहीं है कि हर फिल्म अभिनेता, हर नेता या हर पैसेवाले को ऐसा ही नशा होता है। इन वर्गों में अनेक देवपुरुष भी होते हैं, लेकिन सलमान ने दुर्घटना के समय और 13 साल तक अदालतों में जो आचरण किया, वह सिद्ध करता है कि उन्हें मिली पांच साल की सजा बहुत कम है। यदि सारे मामले पर शुरू से अब तक आप गौर करें तो यह चोरी और सीनाजोरी का मामला बनता है। मान लिया कि 2002 की उस काली रात में सलमान को होश नहीं रहा या कार का टायर अचानक फट गया और कार फुटपाथ पर सोए लोगों पर चढ़ गई। यदि सलमान सचमुच नेक इंसान होते तो दु:ख में डूब जाते। घायलों को अपनी कार और टैक्सियों से अस्पताल पहुंचाते और उनका इलाज करवाते, लेकिन वे शातिर अपराधी की तरह भाग खड़े हुए और यदि उसका अंगरक्षक पाटील दूसरे दिन थाने में रपट नहीं लिखवाता तो वे पता नहीं कहां गायब हो जाते। जब उन्हें पकड़ लिया गया और उन पर मुकदमा चला, तब भी उन्हें ज़रा भी अफसोस नहीं था कि उनके हाथों इतना संगीन जुर्म हो गया है। यदि अदालत में वे अपना जुर्म कुबूल कर लेते और पीड़ितों से क्षमा मांग लेते तो कोई आश्चर्य नहीं कि फिल्मी दुनिया में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें क्षमादान मिल जाता।

परंतु उन्होंने अदालत को गुमराह करने के लिए जो कुछ किया, वह इरादतन था जबकि कार-दुर्घटना गैर-इरादतन थी यानी उनका यह दूसरा जुर्म हत्या से भी ज्यादा भंयकर था। हत्या पर पर्दा डालने के लिए सलमान और उसके वकीलों ने क्या-क्या हथकंडे नहीं अपनाए? लोगों के कुचले जाने की सफाई किस अदा से दी? कहा कि कार और घायलों को उठाने के लिए जो क्रेन गई थी, वे उसके नीचे दब गए। 13 साल तक तरह-तरह के दांव-पेंच करने के बावजूद जब बाजी हाथ से छूटती लगी तो उन्होंने अपने गरीब ड्राइवर को बलिवेदी पर खड़ा कर दिया। उससे कहलवाया कि उस रात सलमान नहीं, वही कार चला रहा था।

सबसे ज्यादा भरोसेमंद गवाह था-पुलिस का जवान और सलमान का अंगरक्षक रवींद्र पाटील! उन्होंने अदालत को सारी कहानी ज्यों की त्यों बता दी। उनकी एक बात भी झूठी नहीं निकली, लेकिन पाटील का हुआ क्या? सबसे पहले पाटील का अदालत में आना बंद हुआ। फिर उसे मुंबई से गायब करवा दिया गया। फिर उसकी नौकरी छूट गई। वह मानसिक रोग से ग्रस्त हो गया। वह मुंबई की सड़कों पर भीख मांगने लगा और फिर किसी सरकारी अस्पताल में उसने दम तोड़ दिया, लेकिन उसने पैसे, धौंस और तिकड़म के आगे घुटने नहीं टेके। उसने सत्य के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। यदि उसके बारे में ये सब तथ्य सही हैं तो मैं कहूंगा कि पाटील ने वही किया, जो सवा दो हजार साल पहले यूनान में सुकरात ने किया था। भारत के सारे पुलिसवाले पाटील पर गर्व कर सकते हैं। मुंबई में इस सत्यनिष्ठ शहीद पाटील का किसी भी नेता के स्मारक से बड़ा स्मारक बनना चाहिए। जहां तक अदालत का प्रश्न है, उसे बधाई कि उसने सलमान को दोषी करार दिया। यदि सलमान में साहस होता तो वे अपना जुर्म कुबूल ही नहीं करते, बल्कि अदालत से गुजारिश करते कि दस साल की सजा तो अदालत उसे दे और एक साल की सजा वह स्वेच्छा से भुगतना चाहता है। क्यों? क्योंकि वह सलमान खान है! वह मामूली आदमी नहीं है, लेकिन न्याय-व्यवस्था की कितनी दुर्दशा है कि दो-टूक मामले को तय करने में 13 साल लग गए। जाॅन स्टुअर्ट मिल के शब्दों में देर से किया गया न्याय तो अन्याय ही है। इतना ही नहीं, चोरी के लिए तो आधी सजा मिली, सीनाजोरी के लिए कोई सजा क्यों नहीं? 10 साल चोरी के और 10 साल सीनाजोरी के! 20 साल की सजा क्यों नहीं? और फिर जेल की बजाय ‘बेल’ क्यों? खासकर तब जबकि पौने तीन लाख लोग जमानत के बिना बरसों से जेल में सड़ रहे हैं। अब ‘बेल’ का फायदा उठाकर अगले 20 साल तक इस मुकदमे को खींचा जा सकता है।

हमारे देश में न्यायपालिका तो फिर भी काफी ठीक-ठाक है लेकिन खबरपालिका (मीडिया) का क्या हाल है? नेपाल के मामले में हमारे टीवी रिपोर्टरों ने अभी अपना मुंह काला करवाया ही था, अब उसने सलमान के गम में आंसुओं का परनाला बहा दिया है। पीड़ितों के दुख-दर्द को गुंजाने की बजाय चिकने-चुपड़े फिल्मी सितारों की बारात दिखाने वाले अपने आपको पत्रकार कहते हैं। रिपोर्टरों का काम सलमान की निंदा या भर्त्सना करना नहीं है, लेकिन वे जो कुछ कर रहे हैं, क्या उससे न्याय-व्यवस्था मजबूत होती है? क्या सलमान के हाथों हताहत हुए उन गरीबों को राहत मिलती है? क्या उनकी अमर्यादित चित्र-कथाओं का असर न्यायाधीशों पर नहीं होगा? खबरपालिका कुछ ऐसा क्यों करे, जिससे न्यायपालिका पटरी से उतर जाए?

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