मन ही शरीर और आत्मा में सेतु का काम करता है

बिखरे मोती-भाग 9८

गतांक से आगे….
कर्म करे जैसे मनुष्य,
मन भुगतै परिणाम।
प्रकृति-पुरूष निरपेक्ष हैं,
मत कर उल्टे काम।। 929।।

व्याख्या :-
प्राय: लोग यह प्रश्न करते हैं कि कर्म देह का विषय है अथवा आत्मा का? इस प्रश्न का सीधा सा उत्तर हमारे ऋषियों ने वेद, उपनिषद और गीता में इस प्रकार दिया है-कर्म न तो देह का विषय है और न ही आत्मा का। देह पंचमहाभूत का समुच्चय है। आत्मा चेतन तत्व है। ये दोनों ही कर्म के निष्पादन में निरपेक्ष हैं। जबकि मन चित्त की भूमिका कर्म सम्पादन में महत्वपूर्ण होती है। यह मन ही शरीर और आत्मा में सेतु का काम करता है तथा कर्म व्यापार का संचालन करता है। गीता और उपनिषद में उल्लेख आता है-‘‘इस शरीर रूपी रथ का राजा आत्मा है, हमारी इंद्रियां इसके घोड़े हैं, जिनकी लगाम मन रूपी सारथी के पास है।’’ इसलिए अंततोगत्वा कर्म के लिए उत्तरदायी मन को ही माना गया है। जैसे गाड़ी को गति और दिशा देने के लिए उत्तरदायी उसका चालक होता है, उसका स्वामी अथवा इंजन नही।
प्रश्नोपनिषद में भी आता है कि मृत्यु के समय जैसा चित्त मन होता है उसी प्रकार का चित्त प्राण के पास पहुंचता है। प्राण अपने तेज के साथ आत्मा के पास पहुंचता है। ‘प्राण’ तेज ‘चित्त’ और आत्मा को अपने कर्म संस्कारों अथवा संकल्पों के अनुसार के लोक में ले जाता है।’’ ध्यान रहे सब कुछ छूट जाने पर भी कर्म नही छूटता है,कर्म के सहारे ही जीव टिका रहता है, पुण्य-कर्म से जीव पुण्यात्मा और पाप कर्म से जीव पापात्मा कहलाता है। इसे और भी सरलता से समझिये। आत्मा एक धवल ज्योति है जिसके चारों तरफ चित्त मन का घेरा है जो एक शीशे की तरह है। शीशा यदि लाल है तो रोशनी लाल आती है।
शीशा यदि हरा है तो ज्योति की रोशनी हरी आती है। ठीक इसी प्रकार हमारी आत्मा मन की कामनाओं अथवा वासनाओं के कारण वैसी ही दृष्टिगोचर होती है। इस संदर्भ में प्रश्नोपनिषद का ऋषि यहां तक कहता है-‘‘मन के किये से ही आत्मा विभिन्न प्रकार के शरीरों में आता है। मन की कामनाएं ही रस्सी बनकर आत्मा को शरीर में खींच लाती हैं। सर्वदा याद रखो, कर्म का संबंध मन से है शरीर अथवा आत्मा से नही। इसलिए सजा अथवा पुरस्कार आत्मा को चित्त ‘मन’ के अनुसार मिलता है। अत: मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन को काबू में रखे, और कभी अशुभ कर्म न करे।

निज का अधिमूल्यन करै,
औरों को समझै हीन।
आत्मप्रवंचना में जिये,
ज्यों खग पंखविहीन ।। 930।।

व्याख्या :-
इस संसार में ऐसी मनोवृत्ति के लोग प्राय: बहुलता में मिलते हैं जो अपना तो अधिमूल्यन करते हैं अर्थात अपने को तो दूध धोया समझते हैं अथवा अपने को बहुत बड़ा समझते हैं, जबकि दूसरों को हीन समझते हैं, उनका अवमूल्यन करते हैं। ऐसी मनोवृत्ति के लोग अपने दम्भ के कारण बेशक ‘मुंगेरीलाल के हसीन’ सपने देखते रहें किंंतु वे असलियत से कोसों दूर होते हैं। उनके हसीन सपने उस पक्षी की तरह हैं जिनके पंख तो हैं नही, किंतु ऊंची उड़ान के ख्वाब लेते रहते हैं, और दूसरों से अपने आपको ऊंचा समझते रहते हैं। यह एक गंदी मानसिकता है, इससे मनुष्य को बचना चाहिए। अपने से छोटों का भी महत्व समझना चाहिए।
क्रमश:

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