तानाशाही नेतृत्व के खतरे और देश की अस्मिता

indira jiरामचंद्र गुहा

नवंबर 1969 में जब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस का विभाजन किया, तब उनके एक प्रतिद्वंद्वी ने उन्हें चेतावनी दी थी कि उन्हें इसके नतीजे भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। ये थे एस. निजलिंगप्पा। अविभाजित कांग्रेस पार्टी के आखिरी अध्यक्ष। निजलिंगप्पा ने कहा था कि 20वीं सदी का इतिहास ऐसे त्रासद उदाहरणों से भरा हुआ है, जब लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर या लोकतांत्रिक उपकरणों की मदद से सत्ता में आने वाला नेता लोकतंत्र को ही स्थगित करने की कोशिश करने लग जाए। आत्मरति से ग्रस्त उस नेता के चापलूस दरबारी आम धारणा को ही विरूपित करने की कोशिश करते हुए उसे सत्ताधीश के विचारों का प्रतिफलन बताने लगें और विपक्ष को आतंकित करने लगें।

जब ये पंक्तियां लिखी गई थीं, तब निश्चित ही वे अतिशयोक्तिपूर्ण लगी होंगी। लेकिन महज चंद ही वर्षों बाद ये पंक्तियां एक भविष्यवक्ता की पूर्व-चेतावनी लगने लगीं। 1970 के दशक के प्रारंभ में इंदिरा गांधी ने धीरे-धीरे कांग्रेस को अपनी निजी रुचियों से संचालित होने वाली पार्टी तक महदूद कर दिया था। फिर जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनके खिलाफ फैसला सुनाया तो सिद्धार्थ शंकर राय जैसों के मशविरे पर उन्होंने लोकतंत्र को ही निरस्त करने का निर्णय ले लिया। उनके चाटुकार, जिनमें देवकांत बरूआ का नाम सबसे प्रसिद्ध हो गया है, उन्हें देश का प्रतिरूप बताने लगे। और सबसे अंत में उनके सबसे उग्र सहयोगी और पुत्र संजय गांधी विपक्ष और अवाम को चुप कराने के लिए उन्हें आतंकित करने से भी बाज नहीं आए।

बहरहाल, आपातकाल लगे चालीस साल पूरे होने जा रहे हैं। क्या देश में एक और आपातकाल की स्थितियां निर्मित हो सकती हैं? इसके आसार कम ही हैं। कारण, जनता सरकार के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और कानून मंत्री शांति भूषण ने प्रधानमंत्री में शक्तियों का केंद्रीयकरण करने वाले संविधान के प्रावधानों को संशोधित कर दिया था। एक अन्य कारण यह भी है कि आज मीडिया, और खासतौर पर सोशल मीडिया का दमन करना बहुत मुश्किल हो गया है।

बहरहाल, आपातकाल ने जिस एक प्रवृत्ति को पोषित किया था, वह आज भी हमारे बीच मौजूद है और यह है हमारे लोकतांत्रिक ताने-बाने को छिन्न्-भिन्न् करना। ऐसा पर्सनैलिटी कल्ट के मार्फत किया जाता है। इंदिरा गांधी आजाद भारत की पहली ऐसी नेत्री थीं, जिन्होंने अपनी पार्टी को अपना पर्याय बना दिया था। ऐसा तो उनके पिता पं. जवाहरलाल नेहरू भी नहीं कर पाए थे। नेहरू कोई विनम्र व्यक्ति नहीं थे और वे जानते थे कि इतिहास उन्हें हमेशा एक खास मुकाम पर रखने वाला है। लेकिन इसके बावजूद वे अपने सहयोगियों पर अपने विचारों को थोपने में हमेशा सफल नहीं रहे थे। वैसे भी उनके प्रधानमंत्रित्वकाल के प्रारंभिक वर्षों में पटेल, राजाजी, पंत और आजाद जैसे लोग उनके सहयोगी थे तो बाद के वर्षों में कामराज, चव्हाण और देसाई जैसे नेता। इन लोगों को दरकिनार करना आसान नहीं था। गौरतलब है कि अपने पूरे प्रधानमंत्रित्वकाल के दौरान कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों के चयन में नेहरू की कभी नहीं चली थी।

लेकिन नवंबर 1969 के बाद यह सब बदल गया। कैबिनेट मंत्री प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रति अतिशय भक्तिभाव का प्रदर्शन करने लगे। कांग्रेस के सभी मुख्यमंत्रियों का चयन इंदिरा गांधी द्वारा ही किया जाने लगा। और अगर वे किंचित भी स्वतंत्रचेता सिद्ध होते तो उन्हें फौरन बर्खास्त भी कर दिया जाता। 1971 के चुनाव में कांग्रेस की शानदार जीत के बाद तो पार्टी में इंदिरा का रुतबा और बढ़ गया। इसी साल के अंत में बांग्लादेश युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को परास्त किया तो इसे इंदिरा की निजी जीत के तौर पर देखा गया। पहले इंदिरा पार्टी का पर्याय बनीं, फिर सरकार और फिर देश का ही पर्याय बन गईं। इंदिरा ही कांग्रेस थीं, इंदिरा ही सरकार थीं और अंतत: ‘इंदिरा इज इंडिया का जुमला भी इसी कड़ी में चलन में आया।

एक मायने में 1977 के चुनाव इस व्यक्तिपूजा पर जनता का फैसला थे। बहरहाल, इंदिरा और कांग्रेस भले ही चुनाव हार गए, लेकिन राज्यों में इंदिरा द्वारा प्रेरित व्यक्तिवादी प्रवृत्तियां जारी रहीं, जिनकी ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। तमिलनाडु में एमजी रामचंद्रन और आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव अपनी पार्टियों (अन्नाद्रमुक और तेदेपा), अपनी सरकारों और अपने राज्य के लोगों की अस्मिता के एकल प्रतीक बन गए थे। महाराष्ट्र में बाल ठाकरे स्वयं को छत्रपति शिवाजी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी और मराठी अस्मिता के प्रवक्ता के रूप में प्रस्तुत कर रहे थे। यह जरूर है कि एमजीआर और एनटीआर की तरह वे कभी मुख्यमंत्री नहीं बने, लेकिन यह भी सच है कि सरकार का रिमोट उनके ही पास रहता था।

बाद के सालों में तो यह प्रवृत्ति पूरे भारत में फैल गई। यही कारण है कि आज मायावती और बसपा, मुलायम सिंह यादव और सपा, बादल परिवार और अकाली दल, लालू प्रसाद यादव और राजद, ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस, जयललिता और अन्नाद्रमुक, करुणानिधि और द्रमुक, अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी और यकीनन, नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस को एक-दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता।

एक मायने में भाजपा ने इस रूढि़ को तोड़ा था, क्योंकि वह एक मजबूत विचारधारा और एकाधिक नेताओं वाली पार्टी थी। लेकिन धीरे-धीरे नरेंद्र मोदी भाजपा के भीतर भी तमाम शक्तियों का केंद्रीयकरण अपने में करने में सफल रहे। पहले उन्होंने गुजरात की भाजपा इकाई और फिर अपनी कैबिनेट में अपने प्रति व्याप्त असहमतियों का उन्मूलन किया। फिर एनटीआर और बालासाहेब ठाकरे की तर्ज पर खुद को अपने प्रदेश के गौरवशाली प्रतीक के रूप में पेश किया। गुजरात का अतीत, वर्तमान और भविष्य, उसकी आशाएं, आकांक्षाएं (और पूर्वग्रह) सभी एक व्यक्ति के राजनीतिक कैरियर में निहित हो गए।

अब यही स्थिति राष्ट्रीय स्तर पर दोहराई जा रही है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों को तो एक तरह से नरेंद्र मोदी पर जनमत-संग्रह की तरह ही प्रचारित किया गया था। सत्ता में आने के बाद से मोदी ने पार्टी, कैबिनेट और सरकार को अपने में निहित करने के ही प्रयास किए हैं। और उनके प्रशंसक ठीक उसी तरह से उन्हें देश का भी पर्याय मानने लगे हैं, जैसे इंदिरा को इंडिया का पर्याय माना गया था। हाल ही में एक भाजपा सांसद ने अपने एक लेख में लिखा है कि भारत के उदय को नरेंद्र मोदी के उदय के समांतर देखा जाना चाहिए। इसी तर्ज पर धीरे-धीरे प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द एक राष्ट्रव्यापी पर्सनैलिटी कल्ट स्थापित किया जा रहा है और आज भाजपा में भी देवकांत बरूआओं और सिद्धार्थ शंकर रायों की कमी नहीं है। इन मायनों में यह जरूर लगता है कि जिन परिस्थितियों ने आपातकाल को जन्म दिया था, वे आज भी मौजूद हैं।

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