vijender-singh-aryaअनीति नीति सी लगै, जब होता निकट विनाश
गतांक से आगे….
वाणी का संयम कठिन,
परिमित ही तू बोल।
वाणी तप के कारनै,
बढ़ै मनुज का मोल ।। 708 ।।

अच्छी वाणी मनुज का,
करती विविध कल्याण।
वाणी गर होवै बुरी,
तो ले लेती है प्राण ।। 709 ।।

कुल्हाड़े से काटन वृक्ष तो,
पुन: हरा हो जाए।
बुरे वचन के घाव तै,
हृदय उभर नही पाए ।। 710 ।।

हृदय में चुभे बाण को,
सहज निकाला जाए।
कटुवाणी का बाण तो,
सर्जन को भी न पाय ।। 711 ।।

‘सर्जन को भी न पाय’ से अभिप्राय है कि कटु वचन हृदय में ही बैठ जाता है। जो न तो ‘एक्सरे’ में दिखाई देता है और न ही कोई माई का लाल शल्य चिकित्सक उसे निकाल सकता है।

कटु वचन घायल करै,
अति मर्म स्थान।
घायल तडफ़ेे शोक में,
हो चाहे बुद्घिमान ।। 712 ।।

जिससे रूठें देवगण,
मति उसकी हर लेय।
पाप कर्म के कारनै,
दु:ख अनेकों देय ।। 713।।

ईष्र्यालु जलता रहे,
चुगली में रहे लीन।
ऊर्जा का अपव्यय करें,
रहता मित्र विहीन ।। 714 ।।

अनीति नीति सी लगै,
जब होता निकट विनाश।
मलिन होय नर की मति,
गैर लगै है खास ।। 715।।

हृदय में ऋजुता बसै,
वाणी में होय मिठास।
नजरों में हो पवित्रता,
समझो जन है खास ।। 716 ।।

ऋजुता अर्थात सरलता, एकत्व की भावना, पक्षपात रहित होना।
यहां खास से अभिप्राय है-विलक्षण होना

जब तक यश गाता जगत,
नर पुजता परलोक।
उत्तम कीर्ति प्राप्त कर,
लगै स्वर्ग पै न रोक ।। 717 ।।

भाव यह है कि मानव की जब तक उत्तम कीर्ति इस लोक में गाई जाती है, तब तक वह स्वर्ग में पूजित होता है। इसलिए हे मनुष्य! तू उत्तम कीर्ति प्राप्त कर, उत्तम कीर्ति प्राप्त करने वाले को स्वर्ग के प्रवेश से कोई रोक नही सकता है।

जैसे-जैसे सत्कर्म में,
मानव मन लग जाए।
वैसे ही बरसे हरि कृपा,
कामना पूर्ण हो जाए ।। 718 ।।

भाव दुष्टï को न फल मिले,
व्यर्थ यज्ञ तप दान।
कर्म के पीछे भाव का,
सदा फल देते भगवान ।। 719 ।।
भाव यह है कि जिसके मन में पापाचरण है, मन मैला है, मायावी है अर्थात जो ऊपर से पुण्यात्मा बनने का ढोंग करता है किंतु अंदर से पापात्मा है, तो ऐसे व्यक्ति के तप, त्याग, यज्ञ और दान भी व्यर्थ चले जाते हैं, अर्थात इनका फल दुष्टïभाव (मायावी) को प्राप्त नही होता है क्योंकि भगवान तो भावशुद्घि को देखते हैं। कर्माशय (प्रारब्ध) हमेशा कर्म के पीछे भाव क्या था, इस आधार पर परमपिता परमात्मा उसका निर्धारण करते हैं। इसलिए मनुष्यों को चाहिए कि वह कर्म के पीछे भाव की पवित्रता का विशेष ध्यान रखें। क्रमश:

Comment: