उपचुनावों में जनता ने अपना भावी नेता चुन लिया

afआर. डी. वाजपेयी

राजनीति में अक्सर ऐसा होता है कि आप मनोवांछित परिणाम न पाकर मुंह की खा जाते हैं। ऐसा कितनी ही बार होता देखा गया है कि राजनीतिज्ञ किसी अपने विरोधी को फंसाने के चक्कर में कहीं खुद फंसकर रह जाते हैं। कुछ ऐसा ही सपा के साथ हो गया है। उप-चुनाव से ठीक पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ मुजफ्फरनगर की कोर्ट में आरोप पत्र दाखिल करके अखिलेश सरकार ने भगवा खेमे को वोटों के ध्रुवीकरण का एक और मौका थमा दिया। यह तब हुआ है जबकि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व पहले से ही फायर ब्रांड नेत्री साध्वी उमा भारती, निरंजन ज्योति, साध्वी डॉ. प्राची, साक्षी महाराज और योगी आदित्यनाथ के सहारे उप-चुनाव में हिन्दुत्व का कार्ड खुल कर खेल रहा था। लोकसभा चुनाव के समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिले मुजफ्फरपुर में दिये गये अमित शाह के विवादित भाषण के खिलाफ उप-चुनाव से तीन दिन पूर्व आरोप पत्र दाखिल किया जाना महज इत्तेफाक नहीं कहा जा सकता है। जरूर इसमें कहीं न कहीं अखिलेश सरकार की रजामंदी छिपी रही होगी। पुलिस ने आरोप पत्र दाखिल करने में काफी चपलता दिखाई थी जिसके कारण उसे कोर्ट की फटकार भी खानी पड़ी।

पुलिस की कार्यशैली से ऐसा लग रहा था कि शायद उसे पहले से ही इस बात का अहसास हो गया था कि सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी इसे चुनावी मुद्दा बनाने को उतावली है। अगर ऐसा न होता तो अदालत जांच अधिकारी को आरोप पत्र की खामियां गिनाते हुए फटकार नहीं लगाती। इतना ही नहीं अदालत ने चार्ज शीट लौटाते हुए उसमें सुधार कर दाखिल करने की बात कही। पुलिस की लापरवाही के चलते अखिलेश सरकार की अच्छी खासी किरकिरी हो गई और इसका फायदा भी पार्टी को नहीं मिला। बल्कि भाजपा उलटा सवाल दागने लगी कि जब लोकसभा चुनाव के दौरान विवादित भाषण देने के लिये नौ नेताओं को चुनाव चुनाव आयोग ने नोटिस दिया था तो फिर समाजवादी सरकार ने बाकी आठ नेताओं के खिलाफ किस आधार पर कार्रवाई करना उचित नहीं समझा। जो अन्य प्रमुख नाम थे उसमें कांग्रेस के राहुल गांधी, बेनी प्रसाद वर्मा, सलमान खुर्शीद, सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव, आजम खां और आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल प्रमुख थे। अमित शाह ने तो अपने किये के लिये चुनाव आयोग से माफी भी मांग ली थी लेकिन आजम गलती मानने की बजाये अपनी बात पर अड़े रहे थे जिसके चलते आजम चुनाव प्रचार भी नहीं कर सके थे।

इसे प्रदेश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि उत्तर प्रदेश में उप-चुनाव की जंग विकास की बजाय वोटों के ध्रुवीकरण के सहारे लड़ी गई। भाजपा को मोदी सरकार की उपलब्धियों पर भरोसा नहीं था तो समाजवादी पार्टी भी अपनी सरकार के विकास कार्यों की चर्चा नहीं करना चाहती थी जबकि दोनों ही दलों के नेता समय-बेसमय अपनी-अपनी सरकारों के विकास कार्यों की तारीफ के पुल बांधते थकते नहीं हैं। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान मंदिर से लाउडस्पीकर उतारने, साम्प्रदायिक हिंसा, लव जेहाद, मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में होते हैं ज्यादा दंगे, मोदी के झूठ, मुलायम के लडक़ों से गलती हो जाती है संबंधी बयान, धर्मांतरण से लेकर जोधाबाई, चंद्रगुप्त मौर्य तक पर चर्चा होती रही। विवादित बयान देने के मामले में इस बार सबसे अधिक सुर्खिंयां योगी आदित्यनाथ ने बटोरीं उन्हें चुनाव आयोग ने नोटिस भी दिया लेकिन न तो वह रूके न ही ठिठके। लखनऊ में तो प्रशासन से अनुमति नहीं मिलने के बाद भी जनसभा कर डाली। यह हाल तब था जबकि प्रदेश की 21 करोड़ जनता केन्द्र की मोदी और यूपी की अखिलेश सरकार से जानना और समझना चाहती थी कि उसने मंहगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, बिगड़ी कानून व्यवस्था, आतंकवाद, सूखा, बाढ़, महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार आदि जनसमस्याओं को लेकर अब तक क्या किया है। शायद सभी दलों के नेताओं को पता है कि जब साम्प्रदायिकता और विद्वेष फैलाकर शार्टकर्ट से चुनाव जीता जा सकता है तो फिर वह लम्बी प्रकिया से क्यों गुजरें। तमाम विवादित बयानों के बीच बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने भाजपा को दंगाराज और सपा को जंगलराज पार्टी करार दे दिया है।

बहरहाल, 13 सितंबर को हुए उपचुनावों के परिणाम भी आ गये हैं जिन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि सपा ने कहां चूक की और उस चूक का लाभ भाजपा को किस प्रकार मिला है। भाजपा के विषय में चर्चा रही कि उसने योगी आदित्यनाथ को प्रदेश का भावी मुख्यमंत्री मानकर चुनाव मैदान में खुलकर खेलने के लिए उतारा है। वैसे योगी आदित्यनाथ का अपना स्वभाव भी ऐसा है कि वह मुख्यमंत्री के रूप में ही स्वयं को कहीं अधिक सहज अनुभव करते हैं। उन्होंने बड़ी निर्भीकता से सच को सच कहने का प्रयास किया और एक निजी टीवी चैनल को दिये गये साक्षात्कार में बड़ी बेबाकी से अपना पक्ष रखा। लोकतंत्र में किसी को नेता के रूप में उतारना कभी गलत नही होता। यह बात अलग है कि विभिन्न पार्टियों द्वारा नेता के रूप में उतारे गये लोगों में से सही नेता चुनने का अंतिम अधिकार जनता के पास ही होता है। उप चुनावों के परिणामों ने स्पष्ट कर दिया है कि सपा से कहां भूल हुई और भाजपा ने उस भूल का कहां लाभ लिया। जनता ने अपना भावी नेता चुन लिया है।

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