राष्ट्रीय समस्या आकलन में पातंजल दर्शन का योगदान

2596968डॉ. मधुसूदन

(एक) संकीर्ण दृष्टि का दोष:

हम चाहते हैं; कि, राष्ट्र की प्रत्येक समस्या के समाधान में, हमारी इकाई को, हमारे प्रदेश को, हमारी भाषा को, लाभ पहुंचे। और जब ऐसा होता हुआ, नहीं दिखता, तो हम समस्या को हल करने में योगदान देने के बदले, समस्या के जिस गोवर्धन पर्वत को उठाना होता है, उसी पर्बत पर चढ कर बैठ जाते हैं। तो उस पर्बत का भार बढकर उसे उठाना असंभव हो जाता है। समस्याएँ लटकी रहती है। उनके सुलझने से जो लाभ हमें होना था; उस लाभ से भी हम वंचित रहते हैं।

तो , बंधुओं,ऐसे समस्या का समाधान नहीं निकलता। न देश को समस्या सुलझाने से लाभ होता है। एक घटक के नाते जो लाभ हमें पहुंचना होता है, वह भी नहीं पहुंचता।

(दो) क्या प्रत्येक हल से सभी को लाभ?

हर समस्या के सुलझने से हर कोई को लाभ प्राय: कभी नहीं होता। पर अनेक राष्ट्रीय समस्याएँ सुलझने पर जो सामूहिक लाभ होता है, वह अनुपात में कई अधिक होता है।

पर सारे छोटे बडे पक्ष छोटी छोटी इकाइयों के स्वार्थ पर टिके होते हैं।ऐसे, राष्ट्रीय दृष्टिका अभाव चारों ओर दिखता है।हाँ, वैयक्तिक स्वार्थ को उकसाकर संगठन खडा करना बडा सरल होता है। इस लिए, छोटी छोटी इकाइयों के बहुत संगठन आप को देश-विदेश में, भाषा-भाषियों में, इकाई-इकाइयों में, दिखाई देंगे। अहंकार जन्य नेतृत्व की भूख भी इस के पीछे काम करती है। जो, बिना योग्यता पद के लिए संघर्ष आप देखते हैं, इसीकी अभिव्यक्ति है। कुछ अच्छे उद्देश्यों से प्रेरित संगठन भी हैं, जिन के नेतृत्व में राष्ट्रीय दृष्टि के कर्णधार होते हैं, पर ऐसे अपवाद ही माने जाएंगे।

सामान्यत:, हम बालटी के अंदर पैर गडाकर उसे उठाना चाहते हैं; गोवर्धन पर्बत पर चढकर ही उसे उठाना चाहते हैं। घोर विडम्बना है। इसके कारण, जब समस्याएँ हल नहीं होती तो हम अपनी इकाई को छोडकर अन्य सारों को दोष देते हैं।

(तीन) क्या हम जनतंत्र में विश्वास करते हैं? कहने के लिए हम जनतांत्रिक है, वास्तव में हम स्वार्थतांत्रिक हैं। हमारे लिए हर समाधान, मेरे प्रदेश को क्या, मेरी जाति को क्या, मेरे समुदाय को क्या, या मुझे क्या मिला, यही विचार पर टिका होता है। हमें कुछ न कुछ मिलना ही चाहिए। इसका अर्थ विस्तार यही होगा, कि, हमारे लिए, प्रत्येक समस्या का समाधान सारे घटक प्रदेशों के स्वार्थों का जोड होना चाहिए। उस जोड में यदि मेरे प्रदेशका नाम नहीं है, तो हम उस गोवर्धन पर्बत पर चढ कर बैठ जाते हैं। इसे राष्ट्रीय दृष्टि नहीं कहा जा सकता।

***यह प्रादेशिक वृत्ति का राष्ट्रीय समस्या के हल पर अनुचित प्राधान्य ही, हमारी राष्ट्रीय समस्याओं को, सुलझाने में बाधक है, घातक है, अवरोध है।***हमारे प्राणप्रिय, राष्ट्रको जोडने के बदले यह तोड सकता है।

और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का सिद्धान्त है, कि, ऐसे टूटे हुए, छोटे राष्ट्र(?) अपने आप में कभी समर्थ नहीं माने जाते। सारी विश्वशक्तियाँ प्राय: बडे देश होते हैं। आज अमरिका, चीन, भारत, रूस इत्यादि प्रतिस्पर्धी माने जाते हैं। 6 वैसे विश्वसत्ता ओं के 8 घटक तत्व होते हैं;—मॉर्गन थाउ8 इसी लिए हमारे शत्रु देश भारत के और टुकडे कर, हमें दुर्बल बनाना चाहते हैं। आपने अनुभव किया ही है, कि, कैसे सोवियेत युनियन के 13 टुकडे होने के पश्चात रूस पहले से दुर्बल हो गया। भारत भी विभाजित होने से दुर्बल ही बना है। कुछ प्रत्यक्ष कुछ अप्रत्यक्ष रीति से।

(चार) चींटियाँ गुड का दाना खींचकर जाती है

देखा होगा, कि, चींटियाँ छोटे गुड के दाने को एक विशेष दिशा में खींचकर ले जाती है। सारी चींटियाँ यदि उस दाने अपनी अपनी ओर खींचती तो गुडका दाना विशेष आगे ना बढता। स्वार्थ प्रेरित हम, राष्ट्रीय समस्या सुलझाने के लिए, अपनी पूरी शक्ति लगाकर गुड के दाने को गुजरात की ओर, महाराष्ट्र की ओर, कोई कर्नाटक, तो कोई तमिलनाडु की , इत्यादि दिशाओ में ले जाना चाहते हैं। फलत: समस्याएँ सुलझती नहीं है। सारा देश जैसे थे वैसी ही अवस्था में रह जाता है। उन्नति जब होती नहीं है। तो हम अपनी इकाई छोडकर दोष और किसी को देते हैं।

(पाँच) वायुयान की उडान:

इस लिए, जिस वायुयान ने 1947 में देश की प्रगति की दिशा में उडान भरी थी। उस विमान को, चालक ने, कभी पूरब, कभी पश्चिम, कभी उत्तर कभी दक्षिण दिशा में उडाया। फलत: हम कुछ आगे अवश्य बढे हैं, पर जिस अनुपात में संसार के अन्य प्रगत देश आगे बढे हैं, उनकी तुलना में विशेष नहीं।

(छ:) समाधान कैसे ढूंढा जाता है?

समाधान वास्तविकता के (रियॅलिटी), व्यवहार के, क्षेत्र में होता है। समाधान को क्रियान्वयन के साथ संबंध होता है। और क्रियाएँ आपको इस संसार में करनी होती है।

उन क्रियाओं के बिना आप का समाधान क्रियान्वित नहीं हो सकता। और क्रियान्वयन किए बिना समस्या का समाधान सैद्धान्तिक ही रह जाएगा। संसार के व्यावहारिक क्षेत्र में क्रियाएँ करनी होती है।

ऐसे क्रियाओं को, 3 आयामों (लम्बाई चौडाई गहराई) के अंदर करना होता है।

(सात ) ऋतम्भरा दृष्टि चाहिए:

समस्याओं का आकलन करने के लिए, एक विशेष दृष्टि की आवश्यकता होती है। ऐसी शुद्ध दृष्टि दृष्टाओं की पहचान है। इसी का निम्नतम स्तर भी आप को सफल निरीक्षक बना देता है। आदर्श ऋतम्भरा दृष्टि एक ऐसी दृष्टि है, जो निरीक्षण करते समय, किसी अपेक्षा से बंधी नहीं होती। अपेक्षा से बंध जाना ही सबसे बडा दोष है।

जैसे एक आदर्श शिक्षक गुणांक देते समय छात्र की पहचान से ऊपर उठकर गुणांक देता है, उसी प्रकार की, शुद्ध दृष्टि ही अति मह्त्त्व पूर्ण भूमिका निभाती है। वास्तव में ऋतंभरा दृष्टिका यह निम्नतम स्तर ही यहाँ समझाया है। इससे ऊपर क्या क्या उपलब्धियाँ प्राप्त होती है, आप योगदर्शन पढने पर जान सकते हैं। लेखक का अनुभव भी बहुत बहुत सीमित है। पर पर्याप्त है, हमारे लिए, कि, सामान्य, समाधान ढूंढने के लिए, पतंजलि योग दर्शन के मात्र दो चार सूत्रों का उपयोग किया जा सकता है। ऐसी मर्यादित ऋतंभरा दृष्टि प्राप्त करने की विधि, पतंजलि योगदर्शन के, समाधिपाद – अध्याय के 47 और 48 वे सूत्र में बताई गयी है। पर, त्वरित सूचित कर देता हूँ; कि, ऐसी दृष्ठि प्राप्त करना कोई झट-पट प्रक्रिया नहीं है; न मात्र पढने से प्राप्त की जा सकती है। आलेख में, मात्र प्रक्रिया समझाने का उद्देश्य है। जो पाठक ध्यान करते हैं, उन्हें यह प्रक्रिया सहज समझमें आ सकती है। शायद आप वैयक्तिक एवं पारिवारिक समस्याओं को सुलझाने में भी इस विधि का उपयोग कर सकते हैं।

सूत्र 47-निर्विचार समाधिके अभ्यास से जब योगी के चित्तकी स्थिति सर्वधा परिपक्व हो जाती है, उसकी समाधि -स्थिति में किसी प्रकारका किंचिन्मात्र दोष नहीं रहता, उस समय योगी की बुद्धि अत्यन्त स्वच्छ-निर्मल हो जाती है। सूत्र 48-उस अवस्थामें योगी की बुद्धि वस्तु के सत्य स्वरूप को ग्रहण करनेवाली होती है; उस में संशय और भ्रमका लेश भी नहीं रहता ॥ 48॥ जिज्ञासुओं को इस के अतिरिक्त, विभूतिपाद अध्याय के प्रारंभिक 6 सूत्र भी देखने का अनुरोध है। (आठ) हमें मात्र राष्ट्रीय दृष्टि ही चाहिए: पहले ध्यान करने पर, दृष्टि शुद्ध हो जाती है। निरपेक्ष होकर दृष्टि पक्ष रहित और निष्पक्ष हो जाती है।

जो भी स्पष्ट दिखाई देता है, उसका स्वीकार करने की सिद्धता भी आप अपनी इकाई से ऊपर ऊठे होने के कारण उपलब्ध होती है।

***ऐसी दृष्टि प्रादेशिक नहीं होती। न गुजराती, न बंगला, न उडिया, न मल्ल्याळम, न कन्नड,न मराठी ज्न कश्मिरी, न तमिल, ज्.इत्यादि इत्यादि भी होती है; हाँ हिंदी भी नहीं। केवल राष्ट्रीय दृष्टि होती है।

ऐसी दृष्टि की ही 100 प्रतिशत पूर्वावश्यकता है। समस्या का पूर्ण आकलन इसी के कारण हो जाता है।

इसे, एक समर्थ चिकित्सक के, रोगी परीक्षण और उसके रोग निदान के उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है।

(नौ) चिकित्सा का अनुक्रम:

ऐसी निरपेक्ष दृष्टि समझने के लिए, हम एक आदर्श चिकित्सक जिस प्रकार रोगी का परीक्षण, रोग निदान, औषधी निर्धारण, और औषधी का प्रयोग करवाता है; उसे समझ लें।

(1)चिकित्सक रोगी का परीक्षण पहले करता है।

(2)रोग के लक्षण देख कर फिर रोगका निदान।

(3)पश्चात औषधी निर्धारित करता है।

(4)और औषधि का प्रयोग करवाता है, तो, रोगी ठीक होने की संभावना बढ जाती है।

संक्षेप में, इसका अनुक्रम निम्न होगा।

(1)रोगी का परीक्षण, (2) रोग का निदान, (3) औषधी निर्धारण, और (4) व्यावहारिक उपचार

ऐसे चिकित्सक की दृष्टि दूषित नहीं होनी चाहिए।

दृष्टि दूषित कैसे हो सकती है? चिकित्सक यदि भ्रष्ट हो; किसी विशेष रोग का निदान पहले से ही सुनिश्चित कर बैठे; किसी विशेष औषधी विक्रेता की औषधि बिकवाने में सहायक हो; या किसी विशेष रोगका ही निदान करना चाहता हो।

एक डॉक्टर के पास एक वृद्धा को ले गए, जिसे कर्कट(ष्टड्डठ्ठष्द्गह्म्) रोग हुआ था। पर डॉक्टर को बताया गया, कि, वृद्धाका परीक्षण करे, पर कॅन्सर रोग का नाम न बताया जाए।

डॉक्टर ने फिर किसी और ही रोगका नाम दिया, और उसी गलत रोग की औषधी भी देना प्रारंभ की।

आज तक वृद्धा निरोगी हुयी ही नहीं। तो क्या अचरज?

ऐसी निर्दोष आकलन की विधा हमें निष्पक्षता और प्रखर शुद्धता से, अतीव तटस्थ रीति से, वस्तुनिष्ठ

संदर्भ में, अकेले पतंजलि योग दर्शन से ही प्राप्त होती है। यह मेरा अनुभव है, आप पाठकों से बाँटना चाहता था।

इसका उपयोग आप राष्ट्रीय समस्याओं के अतिरिक्त, पारिवारिक समस्याओं का आकलन करने में भी सफलता पूर्वक कर सकते हैं। मैं इस शास्त्र का इस से अधिक अधिकार नहीं रखता।

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