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भारतीय संस्कृति

भारत की चेतना का मूल प्रेरणास्रोत हैं वेद

250px-Ved-mergeराजेन्द्र सिंह

अखिल वेद-चारों वेद इस सर्वप्राचीन राष्ट्र भारतवर्ष की धार्मिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक राजधर्मीय और ऐतिहासिक चेतना का मूल प्रेरणा स्रोत है। वेद प्रतिपादित कालगणना को आधार बनाकर आप द्वारा 2064-65 विक्रमी से श्री मोहन कृति आर्ष तिथि पत्रक निरंतर प्रकाशित किया जा रहा है। काल गणना संबंधी अनेक प्रचलित भ्रमों का निवारण करने वाले इस आर्य तिथि पत्रक को प्रतिवर्ष प्रकाशित करना एक सराहनीय सदप्रयास है जिसके लिए आप बधाई के सत्पात्र हैं।

आर्ष तिथि पत्रक में श्री श्वेतवाराह कल्प में सृष्टयादि से संबत्सरों की गणना शीर्षक के अंतर्गत ब्राह दिन-कल्प के प्रारंभ से लेकर अब तक के काल को दर्शाने वाली जो काल गणना 2068 विक्रमी से प्रतिवर्ष 1-1 अंक की वृद्घि करते हुए निरंतर प्रकाशित की जा रही है वह गणना बिल्कुल सही है। यह उल्लेखनीय है कि आप द्वारा प्रदर्शित काल गणना न केवल मनुस्मृति और सूर्यसिद्घांत के अपितु विष्णु धर्मोत्तर पुराण के भी अनुरूप है।

वर्ष 2070 विक्रमी को प्रकाशित आर्ष तिथि पत्रक के अंक में सुल्तानपुर वासी पंडित दिनेशानंद द्वारा प्रेसित पत्र में जो काल गणना बताई गयी है। वहन् उपरोक्त तीनों ही गंं्रथों से मेल नही खाती। उन्होंने अपने पत्र में जिस मनुस्मृति की श्लोक संख्या उद्धृत करते हुए अपना मत व्यक्त किया है। वह सर्वप्रचलित मनुस्मृति नही अपितु प्रो. सुरेन्द्र कुमार द्वारा अनुदित और आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित है। सर्व प्रचलित मनुस्मृति की श्लोक संख्या के स्थान पर विशिष्ट संख्या को देना भ्रामक ही कहा जा सकता है। अत: इस भ्रमकारक स्थिति से बचते हुए सर्वप्रचलित मनुस्मृति को उद् धृत करना ठीक रहेगा।

इसमें संदेह नही कि मनुस्मृति में मन्वंतरों के मध्य में होने वाले संध्या कालों का कोई स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नही होता। इस पर भी यह नही कहा जा सकता कि उसमें इनका परोक्ष अथवा सांकेतिक विवरण भी वर्णित नही है। मनुस्मृति 1/60 के अनुसार स्वायम्भुव मनु के आदेश से उनसे ज्ञानप्राप्त कर चुके ऋषिवर भृगु उपस्थित महर्षियों को बताते हैं :

स्वायंभुवस्यास्य मनो: षडवंश्या मनोअपरि।

सृष्टवंत: प्रजा: स्वा: स्वा महात्मानो महौजस:।।

स्वारोचिपश्चोतमश्च तामसो रैवतस्यथा।

चाक्षुषश्च महातेजा विवस्वत्सुत एव च।।

स्वायंभुवाद्या: सप्तैते मनवो भूरिन्तेजस:।

स्वे स्वेअंतरे सर्वमिदमुत्पाद्यापुश्चराचरम।।

-मनुस्मृति 1/61/63

उपरोक्त श्लोकों के अवलोकन से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि मनुस्मृति में छठे मन्वतर चाक्षुष के अंत तक अथवा दूसरे शब्दों में सातवें मन्वतर वैवस्वत के प्रारंभ तक की काल गणना की गयी है। इन श्लोकों केे बाद मनुस्मृति 1/69/71 बताया गया है।

चत्वार्याहु: सहस्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम।

तस्य तावच्छती संध्या संध्याशश्च तथाविध:।।

इतरेषु ससंध्येषु ससध्यांशेषु च त्रिषु।

एकापायेन वर्तन्ते सहस्राणि शचानि च।।

यदेतत्परिसंख्यातमादावेव चतुर्युगम।

एतद्वादशसाहस्रं देवानां युगमुच्यते।

इन श्लाकों में कृत, त्रेता, द्वापर, और कलि युगों केे क्रमश: विशुद्घ परिमाण से पहले और बाद में दोनों संध्या कालों के होने की स्पष्ट बात की गयी है। इन सबके अभिप्राय को इस प्रकार तालिकाबद्घ किया जा सकता है।

क्रमश:

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