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बाबुओं को शाह नहीं, सेवक कैसे बनाएं?

केंद्र सरकार ने अपने खर्च में से 10 प्रतिशत की कटौती करने की जो घोषणा की है, उसका तो खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन हम लगे हाथ यह प्रश्न भी पूछ लें तो किसी को बुरा नहीं लगना चाहिए कि सरकार में फिजूलखर्ची क्या सिर्फ 10 प्रतिशत ही होती है? ‘अधिकाधिक सुशासन और न्यूनतम शासन’ का नारा लगानेवाली मोदी सरकार से ही यह सवाल पूछा जा सकता है। पिछली सरकारें तो वोट के खातिर नोट और नौकरियां झोलों में भर-भरकर बांट रही थीं। उस बंदर-बांट का सुशासन से कोई लेना-देना नहीं था। इसीलिए भारत की सरकार बेहद ज्यादा वज़नदार हो गई है। वह जनता के लिए दौड़-धूप कैसे करे? अपना वज़न ढोने में ही उसका दम फूलने लगता है। यदि सरकार को चुस्त-दुरुस्त बनाना हो और सचमुच उसकी फिजूलखर्ची पर रोक लगाना हो तो उसकी कम से कम 50 प्रतिशत चर्बी छांटना जरुरी है। यह चर्बी कैसे छटे, इस पर सुझाव बाद में देंगे। पहले यह देखें कि सरकार ने अभी जो घोषणा की है, उसके आयाम क्या-क्या हैं?

सबसे पहले नौकरशाहों की हवाई यात्राओं पर अकुंश लगा है। सारे वरिष्ठ नौकरशाह भारत और विदेशों में जब हवाई-यात्रा करते हैं तो प्रथम श्रेणी में करते हैं। यदि जहाज में प्रथम श्रेणी न हो तो वे ‘बिज़नेस क्लास’ में उड़ते हैं। इन श्रेणियों का किराया सामान्य किराए से तीन-चार गुना होता है। प्रथम श्रेणी का किराया इतना ज्यादा होता है कि उस पैसे में आप चाहें तो विदेशों में दो-तीन सप्ताह काट सकते हैं लेकिन इसमें अपनी जेब का पैसा तो लगना नहीं है। जनता की जेब कटती है तो कटने दो। विदेश जाकर हमारे नौकरशाह मंहगे होटलों में रहते हैं और सबसे बड़ी कारें टैक्सी के तौर पर मंगाते हैं। सैकड़ों डाॅलर रोज भत्ता भी वसूलते हैं। कई नौकरशाहों को अपना बेग उठाने में भी शर्म आती है। वे अपने साथ किसी निजी सचिव या बाबू को ले जाने का अच्छा-सा बहाना भी खोज लेते हैं। सरकार का यह ताज़ा निर्देश अधूरा है। अभी भी सरकार ने बाबुओं के लिए एक सुरक्षित गली छोड़ दी है। इस नए निर्देश में यह क्यों नहीं कहा गया कि वे हमेशा सामान्य श्रेणी में यात्रा करेंगे। हमारे नौकरशाह, शाह नहीं हैं, जनता के सेवक हैं। जो मालिक है याने जनता, वह तो चले सामान्य क्लास में और उसके सेवक चलें, ‘बिज़नेस क्लास’ में। यह कैसा लोकतंत्र है?

अंग्रेज के जमाने से चली आ रही मालिक और गुलाम, स्वामी और दास, शासक और शासित की परंपरा आज भी किसी न किसी रुप में जीवित है। नौकरशाहों को सामान्य श्रेणियों में यात्रा करने की हिदायत देने वाले नेताओं का क्या हाल है? क्या वे खुद सामान्य श्रेणी में यात्रा करने को तैयार हैं? बिल्कुल नहीं। उनकी कोशिश तो यह होती है कि जहाज में प्रथम-श्रेणी की भी सर्वप्रथम सीट भी उन्हें ही मिले। क्यों मिले? यह मामला सिर्फ मुफ्तखोरी और सीनाजोरी का ही नहीं है। ये तो उसके बाहरी रुप हैं। असली मामला है, अपने आप को शासक मानने का और खुद को आम-जनता से अलग और ऊंचा दिखाने का!

जब तक सरकार इस बीमारी का इलाज़ नहीं करेगी, ये छोटी-मोटी कटौतियों फुलझडि़यां बनकर रह जाएंगी। ये निर्देश तो अच्छे हैं कि अब पांच-सितारा होटलों में गोष्ठियां न की जाएं, वीडियो-गोष्ठियां कर ली जाएं, नई कारें न खरीदी जाएं, नई नियुक्तियां न की जाएं और विदेश यात्राओं के लिए पलकें बिछाकर न रखी जाएं। यदि इन निर्देशों का भी ईमानदारी से पालन हो गया तो एक जापानी कंपनी का अनुमान है कि भारत सरकार को 40 हजार करोड़ रुपए की बचत होगी।

जरुरी यह है कि हमारे नौकरशाहों और नेताओं को थोड़ा नीचे उतारा जाए। उन्हें जनता के नजदीक लाया जाए। शासक और शासित का फासला कम किया जाए। सबसे पहले तो उन्हें दिए जानेवाले बड़े-बड़े बंगलों पर प्रतिबंध लगाया जाए। अंग्रेज हुक्मरानों के लिए बने इन बंगलों में घुसते ही हमारे अफसरों और नेताओं में हवा भर जाती है। यदि वे इन मकानों का बाजार भाव से किराया भरने लगें तो उनकी हवा निकलते देर नहीं लगेगी। कई देशों के सांसद और नौकरशाह अपने आवास की व्यवस्था खुद करते हैं। सरकारी दफ्तरों में चपरासियों और चैकीदारों का क्या काम है? बेगार काटने और सलाम ठोंकने के अलावा। इन लाखों कर्मचारियों को किसी उत्पादक रोजगार में लगाया जा सकता है। हर अफसर से दैनिक नहीं तो कम से कम साप्ताहिक ब्यौरा मांगा जाना चाहिए, उसके काम का! अयोग्य और आलसी अफसरों की तुरंत छुट्टी होनी चाहिए और वास्तव में सरकारी नौकरियों को सावधि अनुबंधों के आधार पर कर दिया जाना चाहिए। इससे काम भी ज्यादा होगा और अच्छा भी होगा। अभी तो सरकारी नौकरी का अर्थ है, लोहे की कुर्सी! न टूटे, न फूटे। वह है ही इसलिए कि उस पर एक बार बैठे तो बैठ गए जीवन भर के लिए। हमारे लोकतंत्र की यह विडंबना है कि हम अपने शासक (नेता) को तो हटा सकते हैं लेकिन प्रशासक (नौकरशाह) को नहीं। नौकरशाहों को सरकारी कारें देने की क्या जरुरत है? बड़े नौकरशाहों के दफ्तर उनके घर से कितनी दूर होते हैं? ज्यादा से ज्यादा तीन-चार किलोमीटर! उन्हें सिर्फ एक-बार आना-जाना होता है। आधे घंटे के सफर के लिए चैबीसों घंटे कार को टांगे रखने और ड्राइवर को चिपकाए रखने की क्या जरुरत है? सरकारी कामों से कहीं जाने के लिए कारों की सुविधा दफ्तरों में होती ही है। सरकारी कारों का जितना दुरुपयोग भारत में बेखटके होता है, शायद दुनिया में कहीं नहीं होता। यही हाल टेलिफोनों का है। कई मंत्रियों और अफसरों के बिल लाखों तक चले जाते हैं।

            यदि सरकारी अफसरों पर उनके कामों के लिए समयबद्ध जवाबदेही लागू कर दी जाए तो उनकी अकड़ तो कम होगी ही, रिश्वतखोरी भी घटेगी। काम ज्यादा होगा। किसी भी दफ्तर में आधे अफसरों से ही काम चल जाएगा। सरकारी खर्च में जबर्दस्त कटौती हो जाएगी। भारत सरकार के सारे बड़े अफसरों ने अभी तक अपनी चल-अचल संपत्ति का ब्यौरा जमा नहीं करवाया है। उन्हें अब यह छूट भी मिल रही है कि वे अपनी पत्नी और बच्चों का ब्यौरा न दें। यह सबसे बड़ा चोर दरवाज़ा है। हर अफसर के परिजन की संपत्ति का सालाना ब्यौरा सरकार के पास होना चाहिए। उसे सार्वजनिक करने में भी क्या बुराई है? यही नियम हर सांसद, विधायक और पार्षद पर भी लागू होना चाहिए। अभी सरकार ने छोटी-छोटी सख्तियां शुरु की हैं। जैसे दफ्तरों में ठीक समय पर आना और जाना। इसका असर तो दिखाई पड़ रहा है। सरकारी छुट्टियों की संख्या भी आधी कर दी जाएं तो सरकारी काम-काज की रफ्तार तेज हो जाएगी। कम कर्मचारी ज्यादा काम करेंगे। बचत तो होगी ही! सरकारी बाबुओं को समुचित सुविधा और सम्मान तो मिलना ही चाहिए लेकिन असली समस्या यह है कि उन्हें (नौकर) शाह नहीं, सेवक कैसे बनाया जाए?

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