दक्षेस: नेपाल की अति सक्रियता

दक्षेस का शिखर सम्मेलन आज-कल नेपाल की राजधानी काठमांडो में हो रहा है। जब पिछला सम्मेलन 12 साल पहले हुआ था, तब नेपाल की राजनीतिक दशा बहुत ही विषम थी। राज-परिवार का नर-संहार हो गया था। नए नरेश के विरुद्ध बगावत चल रही थी। सत्तारुढ़ सरकारें अस्थिर थीं। माओवादियों ने युद्ध छेड़ रखा था। जैसे-तैसे वह सम्मेलन संपन्न हो गया लेकिन इस बार नेपाल अति सक्रिय है। यह सम्मेलन काफी गाजे-बाजे के साथ हो रहा है। इसमें अफगानिस्तान की नई सरकार के नेता भी आ रहे हैं।

नेपाल की अति सक्रियता के दो उदाहरण हमारे सामने हैं। पहला, भारत-पाक वार्ता कराने का प्रयत्न और दूसरा चीन को दक्षेस का सदस्य बनाने की कोशिश! जहां तक नरेंद्र मोदी और नवाज़ शरीफ की भेंट करवाने का प्रश्न है, नेपाल का उत्साह सराहनीय है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दोनों देशों के नेता अपनी-अपनी सरकार के अविवेक पर पछता रहे हैं। हुर्रियत के बहाने विदेश सचिवों की वार्ता भंग करने वाली हमारी सरकार और कश्मीर पर अनाप-शनाप शोर मचाने वाली पाकिस्तानी सरकार को अब समझ में आ रहा है कि उन्होंने जो रास्ता पकड़ा है, वह उन्हें किसी अंधी सुरंग में ही ले जाएगा। यदि नेपाल की मध्यस्थता से दोनों देशों में बात हो जाए तो दक्षिण एशिया की कूटनीति में नेपाल का कद ऊँचा हुए बिना नहीं रहेगा।

लेकिन अपना कद ऊंचा करने की यह कवायद खतरनाक रुप भी धारण कर सकती है। नेपाल चाहता है कि चीन भी दक्षेस का सदस्य बन जाए। शिन्हुआ न्यूज़ एजेंसी के अखबार ‘एशिया पेसिफिक डेली’ में दक्षेस सम्मेलन के अवसर पर 12 पृष्ठों का एक विशेषांक निकाला है, जिसमें नेपाल के वर्तमान और भूतपूर्व मंत्रियों ने चीन को दक्षेस का सदस्य बनाने की वकालत की है। इसी अवसर पर चीन ने नेपाल को एक करोड़ युआन की मदद भी दी है। नेपाल में चीन की बढ़ती हुई गतिविधियां तो सर्वज्ञात हैं ही लेकिन दक्षेस में घुसने की उसकी यह कोशिश बिल्कुल बेजा है। चीन दक्षिण एशिया का अंग कभी रहा ही नहीं। वह अफगानिस्तान से अपनी तुलना बिल्कुल न करे। इतिहास में अफगानिस्तान भारत का और भारत अफगानिस्तान का अंग रहा है। अभी तो बर्मा को दक्षेस का पूर्ण सदस्य बनाना ज्यादा जरुरी है। चीन का पर्यवेक्षक का दर्जा ही काफी है। यदि चीन दक्षेस में घुस गया तो दक्षेस के गले में दोहरी फांस लग जाएगी। अभी भारत-पाक फांस को खोलना मुश्किल हो रहा है। फिर भारत-चीन फांस खोलने में ही सारा खेल खत्म हो जाएगा। अतः नेपाल सक्रिय जरुर रहे लेकिन वह अतिवाद से बचे, यह उसके हित में भी है।

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