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देश के किसानों की बदहाली के लिये कौन जिम्‍मेदार

राजीव कुमार

देश का किसान भूखमरी के कगार पर

भारत को आजादी के 66 साल से ज्यावदा बीत जाने के बाद भी इस देश का किसान भूखमरी के कगार पर है। गांव के किसान की हालत बद से बदतर है। यदि वर्षात् नही हुई तो उसके पास पानी की घनघोर समस्याा है। जल के अभाव में उसके फसल सूख जाते हैं। किसान को रहने को घर नही। वही लकड़ी और गोबर के कण्डे से भोजन बनाना, प्रदूषित वातावरण कई तरह की बीमारियां, महामारियां उसे व उसके व उसके परिवार को घेर लेती हैं। एक ओर जहां बड़े-बड़े नेताओं, नौकरशाहों व पूजीपतियों के बच्चेब बड़े-बड़े पब्लिक स्कूालों में पढ़कर उच्ची पदों पर आसीन हो जाते हैं वहीं किसान के बेटे को अपनी पढ़ाई पूरी कराने के लिये अपनी जमीन तक गिरवी रखनी पड़ती है। आर्थिक तंगी से जूझते किसान को सिर्फ और सिर्फ आत्म हत्याब ही सबसे सरल रास्ताड नजर आता है।

 पानी की समस्या

गांव में बहुत से जगह हैंडपंप नही हैं। खासकर दलित बस्तियों एवं मुसहर बस्ती में । ऐसे जगह के लोग बहुत दूर पानी लेने जाते हैं। कहीं नल है तो वो खराब। गांव के प्रधान ऐसे जगह हैंडपंप लगाते हैं जहां उन्हेंे एकमुस्तं वोट या कोई अन्यय फायदा दिखता है। यहां मुसहरों का आवास कई वर्षों से अधूरा पड़ा है। ये लोग आज भी इसी झोपड़ी में रहने को विवश हैं तथा पानी की कोई व्यवस्था नहीं है।

गांवों में नलकूप लगे हैं वह भी महीनों तक खराब पड़े रहते हैं। किसानों के फसल सूखने लगते हैं मगर उनकी सुधि लेने वाला कोई नही रहता है। कुएं का पानी अत्यंअत दूषित रहता है, मगर गांव के किसानों गरीबों की जानकारी न शासन-प्रशासन लेता है न ही मीडिया।

आज किसानों के बर्बादी को आंखों से देखते हुये भी पूंजीवादी मीडिया जानबूझकर आंखें मूंद लेता है। मीडिया यदि चाह ले तो किसानों के शोषण करने वालों के खिलाफ आवाज बुलंद कर ले तो किसानों को इतने दुर्दिन न देखने होते। मगर मीडिया ने जानबूझकर किसानों की उपेक्षा करता है, और करता आ रहा है। मीडिया का कैमरा वहीं जाता है जहां उसको फायदा नजर आता है।

गांव में कच्चीक मिट्टी के घर जो बहुत ही दयनीय होते हैं

गांव के किसानों के अधिकांशत: मकान कच्ची मिट्टी के होते हैं । जमीन को गोबर से लिपाई किया जाता है। छत के लिये राठे, पुआल और खत-पतवार लगाने के बाद खपरैल से घर को तैयार कराया जाता है। इस तरह के मिट्टी के मकान को हर वर्ष मरम्म-त की आवश्य कता पड़ती है। क्यों कि यदि मरम्म त नही होगा तो वर्षात् में पानी घरों में चूता रहता है। एक आंकड़े के मुताबिक गांव के लगभग अस्सी प्रतिशत मकान कच्ची मिट्टी के है तथा बीस प्रतिशत मकान ऐसे हैं जो पक्के हैं। सही मायने में देखा जाय तो आज के किसान को ठीक से सर छुपाने के लिये छत तक मु‍नासिब नही है।

गांव में ईंधन की समस्या

गांव में अधिकतम घरों में खाना पकाने के लिए मिट्टी के चूल्हे का इस्तेमाल होता है। मगर कुछ सालों से कुछ घरों में गैस का प्रयोग भी किया जाता है। चूल्हों के लिए लकड़ी का ईंधन के रूप प्रयोग किया जाता है। साथ ही गोबर के कण्डे भी ईंधन के रूप में इस्तेमाल किये जाते हैं। ज्ञात रहे कि लकड़ी या कण्डे के धुएं स्वापस्य्मा के लिये बेहद नुकसानदेय हैं। इनके धुएं जब गांव की महिलाओं के स्वांहस के जरिये फेफड़े में जाता है तो वह 20 पैकेट सिगरेट के बराबर नुकसानदेय होता है।

 गांव में सफाई की समस्या

गांवों में सफाई की व्यकवस्थाि एकदम नगण्य रहती है। वैसे शहरों में नगरपालिका, नगर निगम रहते हैं मगर गांवों में सरकार आज-तक सफाई की व्यणवस्थार नही करा पाई है। ज्या दातर गांवों में देखा जाता है कि कतारबद्ध नालियां शायद ही कहीं देखने को मिलती हो। गंदा पानी जहां-तहां बहता रहता है, जिस पर मच्छ रों के बैठने के कारण गंदगी के साम्राज्यय का विस्ताार होता रहता है।

गलियों में गंदे पानी की निकासी नहीं होने के कारण काफी समय से कीचड़ से लबालब भरी हुई रहती है। इस तरह के ग्रामीणों की समस्या की तरफ न तो शासन-प्रशासन का ध्यान है और न ही गांव के सरपंच का। गांव के लोगों में उनकी समस्या का समाधान नहीं होता। जिससे गांव के किसानों के दिलों में सरकार और प्रशासन के प्रति गहरा रोष बना हुआ रहता है। नेता जी आते हैं तब जब वोट मांगना होता है। जीतने के बाद उनका कुछ अता-पता नही चलता। और आज भी गांव के लोग शासन-प्रशासन द्वारा गलियों का सुधार करवाने की कार्रवाई पर नजर लगाए हुए है कि आखिरकार कब प्रशासन नींद से जागेगा और कब गांव की गलियों की मरम्म त होगी, नालियां साफ-सुथरी होंगी। ज्ञात हो कि हाथरस के एक उत्सााही युवा एसडीएम के पास तहसील पर फरियाद लेकर गया कि हमारे गांव में बिजली, पानी, सड़क, तालाब कुछ भी विकास नही हुआ। एसडीएम उस युवा से रौब झाड़ते हुये बोला कि तेरी समस्याक हो तो तू बोल नेतागिरी मत कर और बाद में उस एसडीएम ने पुलिस बुलाकर उस युवा को पुलिस के हवाले कर दिया।

 स्कूल की समस्या

बचपन के दिनों में, गांव में स्कूउल के मास्ट र साहब ने एक नारा बच्चोंा को याद कराया करते थे कि बढ़ते कदम अब नही रूकेंगे, कृष्ण सुदामा साथ पढ़ेगें। मगर आज वो उनका नारा सच नही हो पाया। आज जहां अमीरों और नेताओं के बच्चे जहां बड़-बड़े अंग्रेजी माध्य म के सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, वहीं गरीब का बच्चाड मात्र सरकारी स्कूयलों में पढ़कर आगे बढ़ना चाहता है मगर जब प्रतियोगी परीक्षाओं का वो सामना करता है तो वो अपने आप को अन्य‍ छात्रों के मुकाबले काफी कमजोर पाता है। प्रतियोगी परीक्षाओं को देने के लिये जहां धनी बच्चोंक के लिये अच्छेक–अच्छे। अंग्रेजी के पुस्त क मददगार होते हैं वहीं गरीब बच्चेल के लिये उसका हिन्दीे माध्यछम अभिशाप बन जाता है। बड़े-बड़े पदों पर नेताओं और नौकरशाहों के बच्चोंच का कब्जाी रहता है, वहीं गरीब के बच्चोंर के लिये आईएएस के अनिवार्य अंग्रेजी की परीक्षा को पास करना लोहे के चने चबाने जैसा होता है।

किसानों की आत्महत्या बढ़ती ही जा रही है 

किसानों की बढ़ती आत्महत्याा पूरे देश के लिये बहुत शर्म की बात है। इससे पूरे देश की छवि अंतर्राष्ट्री य स्त र पर बहुत ज्याादा धूमिल हुआ है। मीडिया किसानों की समस्याज, उनके द्वारा हो रहे आत्मयहत्या को हमेंशा नजरंदाज करने का प्रयास करता रहता है मगर कुछ ही ऐसे गिने-चुने पत्रकार इस समस्या पर अपनी कलम चलाते हैं। महाराष्ट्रह के विदर्भ में तो हालात बद से बदतर हो गये है और लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि समस्या का स्थाटयी हल किस तरह से निकाला जाए। राज्यसभा में बहस की शुरुआत करते हुए बीजेपी के नेता वेंकैया नायडू ने किसानों की आत्महत्याक और खेती के सामने पेश आ रही बाकी दिक्क़तों का एक-एक करके उठाया था। साथ ही यह भी कहा कि पुराने लागत के आंकड़ों से आज की फसल की कीमत तय की जाती है जो सरासर किसानों के साथ नाइंसाफी है। देखा जाये तो नायडू ने सरकार को सीधे तौर पर कटघरे में खड़ा किया । उन्होंने कहा कि जी डी पी में तो सात से आठ प्रतिशत की वृद्धि हो रही है जबकि खेती की विकास दर केवल २ प्रतिशत के आस पास है । उन्होंने कहा कि किसानों को जो सरकारी समर्थन मूल्य मिलता है वह बहुत ही मामूली है जिसके लिये भी सरकार ज़िम्मेदार है।

उन्होंने साफ़ कहा कि आत्महत्या करने वाले किसान वे नहीं होते जो खाद्यान्न की खेती में लगे होते हैं और आमतौर पर सरकारी समर्थन मूल्य पर निर्भर करते हैं। किसानों की आत्महत्याह के अधिकांशत: मामले उन इलाकों से सुनने में आ रहे हैं जहां कैश क्राप उगाई जा रही है। कैश क्राप के लिए किसानों को लागत बहुत ज्यादा लगानी पड़ती है। कैश क्राप के किसान पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही अर्थव्यवस्था के उतार-चढाव का असर अधिक पड़ता है, मगर देश के अंदर हो रहे हलचलों को वो झेल जाता है। इस तरह के किसानों के सामने जब उनके माल की कीमत दुनिया के उत्पाोदित बाजारों में बेहद कम हो जाती है तो उसके सामने भारी संकट पैदा हो जाता है । वह अपनी फसल में बहुत ज़्यादा लागत लगा कर बर्बाद हो चुका रहता है। और वो लागत साहूकार से ऋण के रूप में लिये रहता है।

यदि किसान माल को रोकना चाहे तो वह चाहकर भी उसे रोक नही पाता। सरकार द्वारा किसानों की उपेक्षा एकदम उदासीन रवैया किसानों को उजाड़ कर रख देता है। यदि देखा जाय तो ऐसा लगता कि मानो जान बूझकर किसानों को सरकार तबाह करना चाहती है, खेती के लिए क़र्ज़ लेने वाले किसान को छोटे उद्योगों के लिए मिलने वाले क़र्ज़ से ज्यादा ब्याज देना पड़ता है, जो कि एक मेहनत करके पसीना बहाने वाले कृषक भगवान के साथ सरासर नाइंसाफी है।

दैववश एक बार यदि किसान की फसल खराब हो जाती है तो वह किसान फिर हिम्मपत करके तो दोबारा पिछली फसल के घाटे की भरपाई करने के लिए वह भविष्यन के फसल में और ज्याीदा धन लगा देता है। मगर दुर्भाग्य से यदि फसल दुबारा-तीबारा बर्बाद हो गई तो उसके सामने दु:खों का पहाड़ आकर खड़ा हो जाता है। तो फिर यह गांव का किसान साहूकार के चक्रवृद्धि ब्यााज में फंस जाता है। साहूकार उसके सारे खेत को हथिया लेता है जिसके बाद उसके लिए सारी ज़िंदगी गुलाम मजदूर के रूप में या फिर आत्मोहत्या । इसके सिवा कोई चारा नही रहता।

अगर सही मायने में देखा जाये तो इसमें सरकार की बहुत बड़ी गलती है। कोई भी मुख्यमंत्री या राज्य सरकार आमतौर पर यह स्वीकार करने में संकोच करती है कि उसके राज्य में किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं।

जबसे यूपीए सरकार आई है वो सिर्फ अमेरिकी हित देखकर सारी नीतियां किसानों के लिये बनाती है। जब तक इस देश के किसान का जीवन सुखी नहीं होगा तह तह अर्थव्यवस्था में किसी तरह की तरक्की बेमानी होगी। इसलिये खेती में सरकारी निवेश को बढ़ाया जाना चाहिये, भण्डारण और विपणन की सुविधाओं के ढांचागत निवेश का एक मजबूत उपाय होना चाहिये, अन्याथा किसानों की समस्याि जस की तस रहेगी। सरकार की समस्यास सबसे बड़ी यह है कि उसके अंदर मजबूत इच्छा शक्ति का अभाव है जिसके चलते सारी समस्याक जस के तस है। कृषि मंत्री शरद पवार ने संसद में कहा कि इस देश में २७ प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो खेती को लाभदायक नहीं समझते, इसका मतलब यही निकलता है कि २७ प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं, २७ प्रतिशत किसान का मतलब यह है कि देश के करीब १७ करोड़ किसान खेती छोड़ना चाहते हैं जो कि बेहद चिंतनीय है। और तो और कृषि मंत्री ने यह भी स्वीनकारा कि रासायनिक खादों को भी किसानों को उपलब्ध कराने में सरकार असमर्थ है।

उन्होंने कहा कि दुनिया के कई देशों में खाद उत्पादन करने वाली बड़ी कंपनियों ने गिरोह बना रखा है और वे भारत सरकार से मनमानी कीमतें वसूल कर रहे हैं, जिस पर कोई लगाम लगाने वाला नही है। उन्होंने इस बात पार भी लाचारी दिखाई कि सरकार किसानों को सूदखोरों के जाल में जाने से नहीं बचा सकती । जो भी हो इस तरह के बयान से यही पता चलता है कि इस देश में सरकार किसानों के दर्द को दूर नही कर सकती। किसानों को कोई भी किसी तरह का समर्थन सरकार से फिलहाल नही मिल सकता।

भारत एक कृषि प्रधान देश था मगर आज सरकार के गलत नीतियों व पाश्चात्य बहुराष्ट्रीतय कंपनियों के दबाव के कारण सरकार किसानों के लिये कोई लाभकारी योजना बनाती ही नही जिस कारण आज किसान खेती छोड़ने को मजबूर हो गये हैं। कृषि हमारे देश की अर्थव्यवस्था की मुख्य रीढ़ है जिसको ध्याान में रखकर हर नीति देश के किसानों को ध्यान में रखकर बनानी चाहिये मगर वर्तमान सरकार ऐसा नही कर पाई जो कि आने वाले भविष्यक में निश्चित ही भारत एक कमजोर व अक्षम राष्ट्र साबित होगा।

जहां 70 के दशक में हरित क्रांति आने से देश में अनाज की पैदावार को बढ़ाया, 1990 के बाद जो भूमण्डलीकरण और उदारीकरण स्वीेकारा तबसे कृषि एक महंगा और घाटे का काम हो गया। कृषि उपकरणों, खाद-बीज और कृषि ऋण पर मिलने वाली सुविधाओं को धीरे-धीरे समाप्त। कर दिया गया। समस्याी तो आज इतनी विकट हो गई है कि छोटे और मध्य-मवर्गीय किसान खेती करना ही नही चाहते हैं। सुरसा के समान बढ़ती महंगाई ने किसान के मुंह का निवाला तक छीन लिया है।

गांव में बढ़ती बेरोजगारी

गांव में जब किसान खेती में घाटा खाता है तो वो या उसके परिवार के सदस्या नौकरी की तलाश करने लगते हैं। मगर वहां नौकरी नामुमकिन रहता है। साहूकार उसको अपने दिये ऋण के बदले पूरा जीवन उसका शोषण करना चाहते हैं। आज सरकार गांव में चाहे तो कुटीर उद्योगों की भरमार कर दे मगर बहुराष्ट्री य कंपनियों से उसका खतरनाक गठजोड़ गांव के युवाओं के भविष्यर को ही पूरी तरह से अंधकारमय कर दिया है।

अगर सरकार गांव में रोजगार को विकसित करे, कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दे तो आज गांव से लोगों का पलायन लगभग रूक जायेगा। इसलिये महानगरों की आबादी बढ़ने से रोकनी है तो सर्वप्रथम गांव को विकसित करना होगा वरना वहां बेरोगारी की भारी भरकम फौज खड़ी हो जायेगी।

यदि हम राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा वर्ष 2009-10 के आंकड़ों के अनुसार माध्यमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त कर चुके ग्रामीण युवकों में बेरोजगारी दर 5 फीसद और युवतियों में करीब 7 फीसद रही। शहरी क्षेत्रों के युवकों में बेरोजगारी दर 5.9 फीसद और महिलाओं में 20.5 फीसद दर्ज की गई। यानी कि शहरी क्षेत्रों में युवकों की अपेक्षा युवतियों में बेरोजगारी दर करीब चार गुना अधिक है। हायर सेकेंडरी स्तर के ग्रामीण क्षेत्रों के युवकों में बेरोजगारी दर 7.8 फीसद और युवतियों में 22.2 फीसद दर्ज की गई।

तकनीकी शिक्षा क्षेत्र में भी बेरोजगारी दर में बहुत ज्याददा वृद्धि हो रही है जिससे लगता है कि देश में युवाओं के लिए चलाए जा रहे कौशल विकास के तमाम प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं।

गांव में पिछले काफी सालों से न तो कोई रोजगार के साधन है और ना ही बच्चों के लिए गांव में अच्छी शिक्षा के लिए विद्यालय मौजूद है। गांव में आज भी बच्चों को पेड़ के नीचे पढ़ाया जाता है। मास्टकर साहब खेत अपना जोत कर 12 बजे पहुंचते हैं। कोई उन्हेंच न रोकने वाला है न टोकने वाला। यदि गांव के बच्चों को अच्छी शिक्षा ग्रहण करना है तो उसके लिये शहर में जाना पड़ता है जो कि गांव से काफी दूर रहता है। यदि यही शिक्षा गांव के बच्चों को गांव में ही मिल जाये तो उन्हे वहां नही जाना पड़ेगा।

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